शुक्रवार, 10 अप्रैल 2015

सुर-९९ : "वैचारिक क्रांति के जनक महान... बहुमुखी प्रतिभा के धनी 'खलील जिब्रान'... !!!"

'देह'
की होती सीमा
पर,
'आत्मा'
तो होती असीम

और...
'मन'
भी तो न...
न मानता कोई बंधन
उड़ता-फिरता
इस जहाँ से उस जहान...

कहते यही...
प्राचीन दार्शनिक महान
भूल गये क्या ?

वो तो हैं... 'खलील जिब्रान' ।।
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मित्रों...,

 पश्चिम एशिया की वही पवित्र भूमि जहाँ कभी प्रभु पुत्र 'यीशु' भगवान का संदेश देने और मरती जा रही मानवता एवं धर्म को अत्याचारियों  के चंगुल से बचाने आये थे उसी 'लेबनान' पर्वत के सुंदरतम प्राकृतिक वातावरण में बसे गाँव 'बशरी' में ६ जनवरी १८८३ को एक निर्धन अभावग्रस्त परिवार में अपने हम नाम पिता और माँ 'कामिला रहामी ' के यहाँ 'खलील जिब्रान’ का जन्म हुआ था उस वक़्त वहां तुर्कियों का अधिकार था अतः उनके बेलगाम निरंकुश शासन के कारण वहां की जनता पलायन कर अमेरिका जाकर बसने लगी तो इनका परिवार भी चला गया जहाँ उनकी प्राथमिक शिक्षा-दीक्षा हुई फिर जब कुछ अंतराल बाद ‘लेबनान’ के हालात परिवर्तित हुए तो वे लोग वापस अपने वतन लौट आये और उनके आगे की पढ़ाई यहीं पूर्ण हुई चूँकि वे बालपन से ही अत्यंत होशियार, हुनरमंद और तीव्र बुद्धि के धनी थे अतः कुछ ही वर्षों में अनवरत परिश्रम और लगन से अंग्रेजी, अरबी, फ़्रांसिसी आदि भाषाओँ पर उनका पूर्ण अधिकार हो गया । धीरे-धीरे सब तरह के विषयों को पढ़ते-पढ़ते उनके मस्तिष्क में कल्पना का एक अनोखा खुबसूरत संसार निर्मित होने लगा जो बच्चों की तरह अबोध छल-कपट व विकारों से रहित था तभी शायद उनके मन में लेखन का विचार आया जिसके जरिये वो अपनी इस आभासी दुनिया को सबके सामने ला सकते थे जो कि वास्तविक दुनिया से एकदम अलग मनोभावों से परिपूर्ण थी और शायद, उस वक्त कठिन राजनैतिक, धार्मिक, अराजक माहौल में तुर्कियों के अत्याचार से पीड़ित दुखी परेशान जनता को इस तरह की वैचारिक क्रांति की जरूरत भी थी क्योंकि पराधीनता अपमान झेलते-झेलते सबकी बुद्धि भी अब रूढ़ हो चली सोचने-समझने की शक्ति भी काम नहीं कर थी ऐसे में सब किसी परिवर्तन की अपेक्षा कर रहे थे जो उनके सोये हुए जज्बातों को अपने शब्दों की थपकियों से जगा दे इसलिये उन्होंने अपनी कलम के माध्यम से सभी दुखी पीड़ित पराधीन साथियों के आवाज़ मुखर करने का जिम्मा उठाया और उनकी रचनाओं ने तात्कालिक सरकार जबरन थोपे जा रहे धर्म के प्रति अपना रोष जाहिर किया जिससे कि उस वक़्त का संपूर्ण आधिकारिक प्रशासन उनका शत्रु बन गया और उन्हें देश निकाला तक दे दिया पर, उनकी कलम ने फिर रुकने का नाम न लिया जिस जनांदोलन को उन्होंने मुखर कर दिया था उससे पीछे हटना उन्हें गंवारा न था ।

उन्होंने अपने गहन दर्शन और विचार से लोगों को कलम की ताकत से परिचित करवाया वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे अतः एक महान दार्शनिक होने के अलावा विचारक, चित्रकार, मूर्तिकार, कथाकार और कवि के रूप में उन्होंने अद्भुत सृजन किया जिसे पढ़कर उनकी गहराई का अहसास होता उन्होंने आज से सौ डेढ़ सौ साल पहले ही धर्म, अध्यात्म, राजनीति, इतिहास, मनोविज्ञान पर इस तरह से अपनी पैनी कलम चलाई कि वो आज भी उसी तरह प्रासंगिक हैं अपनी छोटी-छोटी अप्रतिम लघुकथाओं में भी उन्होंने ऐसा अनूठा ज्ञान उडेला हैं कि उनकी व्याख्या और अनुवाद करते-करते भी हर बार कोई नूतन अर्थ निकल आता हैं । इसे पढ़ते समय यदि हम उस कालखंड और परिवेश को नहीं भूले तो हम उनकी प्रतिभा का अंदाज़ लगा पाते हैं  जरा, एक बानगी देखिये सिर्फ दो पंक्ति में ही उन्होंने कितनी आसानी से कितना गूढ़ अर्थ बयान कर दिया हैं---

'कभी हमारे घर को भी पवित्र करो।'  
करूणा से भीगे स्वर में भेड़िये ने भोली-भाली भेड़ से कहा।

'मैं जरूर आती बशर्ते तुम्हारे घर का मतलब तुम्हारा पेट न होता।'
भेड़ ने नम्रतापूर्वक जवाब दिया।

‘भेड़’ और ‘भेडिये’ के माध्यम से उन्होंने इस कथा में जितनी सहजता से एक बड़े राज से पर्दा उठाया हैं उसी तरह उन्होंने अपनी अन्य कहानियों में भी जानवरों और पक्षियों को पात्र बनाकर जिंदगी के अनगिनत पहलुओं को प्रतिबिंबित किया हैं... अपनी असाधारण उक्तियों में भी उन्होंने नायाब दर्शन को भर दिया हैं जिन्हें पढ़कर पाठक एक गहरी सोच में डूब जाता हैं... हमारी सोच किस तरह से किसी की शख्सियत के आकार-प्रकार से प्रभावित होती हैं उसे उन्होंने किस तरह से ‘जुगनू’ और ‘सूरज’ के तुलनात्मक विवरण से अभिव्यक्त किया हैं देखिये---

“यदि हमारे चिंतन में नाप-तौल का विचार न होता तो हम जुगनू के सामने भी उसी श्रद्धा भाव से खड़े होते जिससे सूर्य के सामने खड़े होते हैं”

ये एक कटु सत्य कि हम सभी उसे ही नमन करते जिसका कद बड़ा होता लेकिन हमने कभी उसे इस तरह से सोचकर नहीं देखा आज यदि सोच भी ले तो उतना मायने नहीं रखता क्योंकि आज से वर्षों पहले ही उस व्यक्ति ने इसे शब्द दे दिए हैं इसी तरह एक कलाकार के मन की पीड़ा को भी उन्होंने किस तरह अपनी शैली में लिखा हैं खुद ही अंदाजा लगाइये---

“पेड़ वे कवितायें हैं जिन्हें धरती आकाश पर लिखती हैं हम उन्हें काट कर कागज़ में बदल देते हैं ताकि अपने खालीपन को उस पर उतार दे”     

पेड़ को ‘कविता’ की संज्ञा देकर उससे बनने वाले कागज़ को हमारी वेदना अभिव्यक्ति का जरिया बना लेना दर्शाता कि उनकी अंतर्दृष्टि बड़ी सूक्ष्म थी जो जड़-चेतन सभी की संवेदनाओं को महसूस कर लेती थी और उसे उतनी ही खूबसूरती से लिखना भी उनकी अपनी ही एक अलहदा शैली थी तभी तो विश्व के श्रेष्ठ विचारक, दार्शनिक में उनका स्थान अव्वल हैं वे कहते हैं---

“इंसानों में सबसे अधिक दयनीय वह हैं, जो अपने सपनों को चांदी-सोने में बदल देता हैं”

देखिये कितनी अनमोल बात कह दी उन्होंने जबकि आज सब अपने सपनों को बेचकर ही अपना मुस्तकबिल बनाते लेकिन वो हमसे कह रहे हैं कि ऐसा व्यक्ति भले ही कितना धनवान और सुखी नजर आये वास्तव में वो दयनीय कहलाने लायक हैं क्योंकि उसने अपनी सबसे कीमती चीज़ के बदले में ये बेमानी ख़ुशी हासिल की हैं किसी व्यक्ति के भीतर किस भी शय को खोजने के लिये किस तरह की भावना का होना जरूरी हैं इसका एक नज़ारा देखिये---

“धरती को कहीं से भी खोदो तुम्हें खज़ाना मिलेगा पर, शर्त यह हैं कि तुम्हें किसान की आस्था से खोदना होगा”

कितनी सच्चाई हैं इस छोटी-सी बात में कि जब तक हमारे भीतर किसी भी वस्तु को पाने की अभिलाषा तीव्रतम होने के साथ उसके प्रति हमारा विश्वास न जुड़ेगा हम उसे प्राप्त न कर सकेंगे जैसे कि भगवान को कहीं भी पा सकते किसी भी पत्थर या कंकर में  बशर्तें पहले उन पर श्रद्धा-भक्ति तो हो... जब तक भरोसा नहीं हमारी तलाश व्यर्थ हैं ‘प्यार’ जैसी कोमल भावना को चिरस्थायी बनाने का उनका मंत्र पढ़िये---

“प्यार जो प्रतिदिन अपना नवीनीकरण नहीं करता, एक आदत बन जाता हैं और फिर गुलामी”

“प्यार और शक में कभी बोलचाल नहीं होती”

“प्रत्येक पुरुष दो स्त्रियों से प्रेम करता हैं, एक जो उसकी कल्पना का सृजन हैं और दूसरी अभी तक पैदा नहीं हुई”

खैर... ये तो चंद छोटी-छोटी उक्तियाँ दी हैं उनका रचना संसार तो विरला और ज्ञान का भंडार हैं जिसे जितना ही पढ़ते हर बार एक नई परत खुलती... वो कहते थे... “रात का अँधेरा पार किये बिना, सुबह तक नहीं पहुंचा जा सकता”... यानि कि जीवन में कठिनाई और संघर्ष का काँटों भरा पथ तो होगा जिस पर हौंसलों के साथ सतत चलने  से ही मंज़िल तक पहुंच सकते हैं... अपना सृजित कला का विशाल खज़ाना हमारे लिये छोड़कर वो आज ही के दिन १० अप्रैल १९३१ को महज ४८ वर्ष ३ महीने और ४ दिवस की अल्पायु में ही इस दुनिया से अलविदा कर गये आज उनकी पुण्यतिथि पर उनका पुण्यस्मरण और शब्दांजलि... मन से नमन... :) :) :) !!!    
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१० अप्रैल २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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