बुधवार, 29 अप्रैल 2015

सुर-११८ : "अंतर्राष्ट्रीय नृत्य दिवस... "

करो उठकर
अपनी ख़ुशी का
मनोभावों का इज़हार
आओ नाचो खुलकर बेहिसाब
कि आया ‘अंतर्राष्ट्रीय नृत्य दिवस’
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मित्रों...,

जिस धरती या सृष्टि में हम सभी निवास करते हैं इसका निर्माण ‘ब्रम्हाजी’ ने किया पर उससे पूर्व ही इस ब्रम्हांड में ‘नृत्य कला’ ने जनम ले लिया था तभी तो आज भी जो लोग इसकी साधना करते वो सर्वप्रथम ‘नृत्यकला’ के जनक या फिर उन्हें हम ‘नृत्य के देवता नटराज’ के नाम से भी जानते हैं की पूजा करते फिर अपना अभ्यास आरंभ करते हमारी भारतीय संस्कृति इस संसार में सबसे विलग हैं जिसमें हर एक कला का भी कोई न कोई ‘भगवान’ होता तभी तो हमारे यहाँ किसी भी विधा में पारंगत होने के लिये जब उसकी शुरुआत की जाती तो उस काल को ‘उपासना’ कहा जाता और बड़े संयम के साथ उस अवधि में हर नियम कायदे का पालन किया जाता और सीखने वाला को भी ‘साधक’ की संज्ञा दी जाती इसलिये तो हमारी इस पावन धरा में ‘गुरु-शिष्य परंपरा’ की नींव पड़ी जिससे कि सीखने का इच्छुक विद्यार्थी न सिर्फ अपनी पसंदीदा कला की बारीकियों की जानकारी हासिल कर उसमें दक्ष बन सकें बल्कि एक दिन उसमें महारत अर्जित कर खुद उस विरासत को अपने आगे आने वाली पीढ़ी तक भी ले जा सके अतः हम देखते कि एक दिन वही उपासक पूर्ण शिक्षा प्राप्त कर ज्ञानी की जगह पर आ जाता और दूसरों को वही अर्जित विद्या प्रदान कर अपना ‘गुरु ऋण’ चुकाता हैं


यदि हम ‘नृत्यकला’ की उत्पत्ति के बारे में बात करें तो सहज ही हमारे जेहन में ‘भगवान शिव’ और उनका जगतप्रसिद्ध ‘तांडव नृत्य’ आ जाता क्योंकि यही तो वे आदि देवता हैं जिन्हें न सिर्फ हम हाथ में ‘डमरू’ लेकर नाचते हुये देखते बल्कि इन्हें तो नृत्य के अवतार ‘नटराज’ के रूप में भी जानते हैं जहाँ ‘नट’ याने कि कला और ‘राज’ याने कि ‘राजा’ समझा जाता हैं इस प्रकार इन्हें इस कला का ‘महाराज’ सर्वोत्तम नर्तक माना गया हैं जिनकी चार भुजाएं हैं और उनके चारो तरफ अग्नि के वलय हैं तथा उन्होंने अपने एक पांव के नीचे एक बौने को दबाया है तथा दूसरे पांव को नृत्य करते हुये उपर उठाया हुआ हैं साथ ही अपने पहले दाहिने हाथ में एक ‘डमरू’ पकड़ा है जिसकी आवाज से सृष्टि का सृजन होता हैं तथा ऊपर की ओर उठे हुए उनके दूसरे हाथ में आग है जो कि विनाश का प्रतीक है और उनका दुसरा दाहिना हाँथ आशीष की मुद्रा में उठा हुआ है जो कि हम सबकी बुराईयों से रक्षा करता है ‘नटराज’ का जो पांव उठा हुआ है वह ‘मोक्ष’ दर्शाता है इसका अर्थ यह है कि शिव के चरणों में मोक्ष है तथा जो बौना शिव के पैरों तले दबा हुआ है वह अज्ञानता का प्रतीक है इस तरह ‘शिवजी’ अज्ञान को खत्म करते हैं ।

इस तरह हम पाते हैं कि ‘नृत्य’ का इतिहास तो उतना ही पुराना हैं जितना कि इस पृथ्वी का निर्माण और कहते हैं कि आज से लभग दो हज़ार साल पूर्व ‘त्रेतायुग’ में देवताओं के द्वारा विनय किये जाने पर सृष्टि रचयिता ‘ब्रह्माजी’ ने ही एक विशेष वेद की रचना की जिसे ‘नृत्य वेद’ कहा जाता हैं तथा तब से ही इस दुनिया में ‘नृत्य’ की उत्पत्ति मानी जाती हैं तथा जब ‘नृत्य वेद’ का लेखन कार्य पूर्ण हो गया तो ये माना जाता हैं कि ‘भरतमुनि’ के पुत्रों ने इसका अभ्यास किया और इस तरह हमारे सामने भरतमुनि लिखित ‘नाट्यशास्त्र’ आता है जिसका उल्लेख वेदों में भी किया गया हैं इस तरह वैदिक काल से ही इसका चलन हैं तभी तो हम अप्सराओं द्वारा किये जाने वाले नृत्य के बारे में तो पढ़ते ही हैं साथ-साथ भगवान कृष्ण और राधा के अलावा गोपियों संग उनके रास का उल्लेख भी पुराणों में मिलता हैं जो हमें बताता कि इसे तो देवी-देवताओं के द्वारा भी अपनाया गया हैं और जहाँ तक मानव सभ्यता में इसकी खोज की बात करें तो खोह कंदराओं के अलावा मंदिरों में बने भित्ति चित्रों में हमें नृत्य की विभिन्न मुद्रायें देखने मिलती हैं और ‘हड़प्पा’ व ‘मोहनजोदड़ो’ के समय एक कांसे की धातु की बनी ‘तन्वंगी’ की मूर्ति खुदाई में मिली है जिससे ज्ञात होता हैं कि प्राचीन काल से ही हम सब इससे परिचित हैं और मनुष्य ने भी ख़ुशी या मनोभावों का प्रदर्शन करने इसे उत्तम जरिया माना होगा ।

‘नृत्य’ अपने मनोभावों को अभिव्यक्त करने का एक सबसे सशक्त माध्यम हैं तभी तो आप प्रकृति पर नज़र डाले तो आपको हर तरफ़ हर शय नाचती हुई दिखाई देगी चाहे वो जड़ हो या चेतन सब आनंद में विभोर होकर अपने अंदर के तनाव या विषाद को इस तरह समाप्त कर सकता हैं इसलिये जिसे नाचना नहीं भी आता वो भी अपने हाथ पैरों को हिलाकर न सिर्फ़ अपनी ख़ुशी का इज़हार कर सकता हैं बल्कि खुद को तनावरहित भी महसूस कर सकता हैं हमारी धरती में तो हर प्रदेश हर गाँव की अपनी ख़ास नृत्य शैली होती हैं और हमारे यहाँ इस विधा की ‘शास्त्रीय नृत्य’, ‘लोक नृत्य’ और ‘आधुनिक नृत्य’ जैसी तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया हैं जिसके अंतर्गत भरतनाट्यम, कथकली, कत्थक, ओडिसी, मणिपुरी, मोहनी अट्टम, कुची पुडी, भांगड़ा, भवई, बिहू, गरबा, छाऊ, जात्रा, घूमर, पण्डवानी आदि को रखा गया हैं लेकिन आजकल जिस तरह का नाच किया जाता उसने इन परंपरागत शैलियों को धूमिल कर दिया हैं और लोग ‘विदेशी/वेस्टर्न डांस’ सीखने के चक्कर में अपने भारतीय नृत्यों से दूर होते जा रहे हैं तथा आजकल फिल्मों या टी.वी. के कार्यक्रमों में जिस तरह के फूहड़ नाच का प्रदर्शन किया जाता वो तो देखने का भी मन नहीं करता क्योंकि ये मन को शांत करने के स्थान पर अशांत कर देता जिसके कारण माहौल में भी शोर बढ़ जाता शायद इसी तरह समस्त विश्व में लोगों को इस तरह नृत्य का स्वरुप बिगाड़ते देखकर ही ‘यूनेस्को’ की सहयोगी ‘अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच संस्था’ की सहयोगी ‘अंतर्राष्ट्रीय नाच समिति’ ने आज के दिन याने कि ’२९ अप्रैल’ को ‘अंतर्राष्ट्रीय नृत्य दिवस’ घोषित किया और १९८२ से ही इसे एक महान रिफॉर्मर ‘जीन जार्ज नावेरे’ के जन्म की स्मृति में इस रूप में मनाया जा रहा हैं

‘अंतरराष्ट्रीय नृत्य दिवस’ संपूर्ण संसार में मनाये जाने का मुख्य उद्देश्य यहीं हैं कि विश्वस्तर पर हर एक व्यक्ति ये जाने कि उसके राष्ट्र की पहचान उसकी अपनी कला को किस तरह सरंक्षित किया जा सकता हैं क्योंकि जिस तरह का महौल आजकल बना हुआ हैं उसने सारे विश्व को चिंतित कर दिया हैं कि वे जल्द से जल्द सचेत होकर अपनी कलाओं की शुद्धता बरकरार रखने के साथ-साथ लोगों के मन में इसके प्रति चेतना भी जगाये जिससे सभी जागरूक होकर इसके प्रति गंभीरता से कदम उठाये... तो फिर पश्चिमी नाच-गाने में अपने आपको और अपनी देश की इस पुरातन नृत्य शैलियों को गुम न होने दे... आओ इसे बचाने मिलकर ‘नृत्य दिवस’ मनाये... ‘नटराज’ को प्रणाम कर नर्तक बन जाये... नाचकर अपना तनाव घटाये परेशानी को दूर भगाये... :) :) :) ।
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२९ अप्रैल २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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