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मित्रों...,
हमारे लियें ‘गंगा’
सिर्फ़ एक नदी नहीं, एक ‘देवी’,
एक ‘माँ’ हैं । जिससे
हमारी संस्कृति की पहचान हैं, ये ईश्वर प्रदत्त उपहार हैं,
जिसे सहेजने-संवारने की जगह हम नष्ट-भ्रष्ट किये जा रहें हैं,
वो भी आखिर कब तक हमारा ये ज़ुल्मो-सितम सहेगी इसलियें जब उसे लगा की
मानव तो अब उसकी रक्षा करने में सक्षम नहीं रहा, बस अपने आप
में अपनी मस्ती में डूबा है, तो वो अपने रक्षक और जगत संहारक
‘भगवान शिव’ के पास अपनी प्रार्थना
लेकर पहुंची। जो उस समय अपने धाम ‘कैलाश-पर्वत’ पर ध्यानस्थ थे, लेकिन क्या वो अपनी प्रियतमा की
पुकार को अनसुना कर सकते थे? क्या वो उसकी दुर्दशा देखकर भी
मौन रह सकते थे? क्या उसकी इस विनती पर उन्होंने कोई
प्रतिउत्तर दिया या फिर हम मानवों से कोई प्रतिकार लिया उसका ही चित्रण इस कविता
में किया गया हैं---
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प्रभु,
त्राहिमाम...त्राहिमाम...!
कहाँ हैं आप?
मेरी रक्षा करें??
मुझे जीवन दान दे???
सुनकर ये ह्रदय विदारक पुकार,
कैलाश पर्वत पर ध्यानरत ‘भगवान शिव’ ने
चारों तरफ बड़ी तेजी से अपनी दृष्टि घुमाई
मगर कहीं किसी की कोई छाया तक नजर ना आई
समझकर इसे अपनी समाधि का भ्रम
उन्होंने फिर अपनी आँखें मूंद ली और
अपनी तीसरी आँख पर ध्यान केन्द्रित कर लिया कि तभी
पुनः किसी के रोने की मद्धिम आवाज़ सुनाई दी
इस बार उन्हें ये अपने करीब से ही आती प्रतीत हुई
उन्होंने अंतरतम की ध्वनि समझा और कहा---
“तुम
कौन हो? कहाँ हो? और तुम्हें क्या हुआ
हैं?
जो यूँ दारुण स्वर में क्रंदन कर रही हो ।”
अब जवाब में एक ‘स्त्री’
की मधुर तान उनके कानों में पड़ी---
“है
मेरे पालनहार !
तनिक ऊपर तो दृष्टि घुमाइये,
ये मैं, आपके मस्तक पर विराजमान
आपकी परम प्रिय ‘गंगा’!
जिसे आपकी सृष्टि के
मानवों ने कर दिया हैं ‘गन्दा’
स्वर्ग में देवताओं के मध्य,
रमण करने वाली मैं पूज्यनीय ‘मंदाकिनी’
आपके एक परम भक्त ‘भागीरथ’
की घोर तपस्या के
फलस्वरूप अपने लोक से भूलोक में कितने अरमानों से
आपकी जटाओं का बल लेकर इठलाती हुई उतरी थी
आज वही इसे छोड़कर वापस अपनी दुनिया में आना चाहती हैं ।”
सुनकर उसकी ये व्यथा,
‘गंगाधर’
ने अपनी जटाओं की और मुंह फेरा और पूछा---
“प्रिये,
इतनी दुखी क्यों हो?
बताओ तो आखिर इसकी वजह क्या हैं?
तुम्हें किसने गन्दा किया हैं?”
ठंडी आह भरकर रुंधे गले से ‘गंगा’ बोली---
“मुझे
मोक्षदायिनी, पुण्यदायिनी और जननी मानते हैं,
सब लोग मुझे ‘देवी’
की तरह मुझे पूजते भी हैं,
मगर फिर भूलकर सब मुझे में गंदगी धोते हैं।
एक तरफ कोई श्रद्धा से पुष्प चढ़ता हैं,
तो दूसरी तरफ़ कोई मुझ में मुर्दा बहाता हैं।
कभी किसी ने पूजन कर आरती गाई तो ,
किसी ने अपनी नवजात कन्या दफनाई।
मैंने अपने सीने में अब तक ना जाने राज़ छुपाये हैं
समझकर इन्हें अपने किसी को भी नहीं बताएं
मगर फिर भी इन्होने मुझ पर ना जाने कितने ज़ुल्म ढायें हैं ।”
देखकर उसके बहते आंसू वो चुप ना रह पायें कहा---
“कौन
हैं वो जिसने तुम्हारी ये दशा की हैं?
तुम तो कितनी स्वच्छ और निर्मल थी, मगर
अब कितनी मटमैली और मलिन हो गई हो
पावन सरिता थी, आज अपावन हो गई हो ।”
पोंछकर अपने आंसुओं को उसने कहा---
“आप
तो मुझे यहाँ अकेला छोड़कर,
जैसे भूल ही गए देखा न फिर कभी मुड़कर,
कि इस पृथ्वी पर मेरे साथ कैसा अन्याय हो रहा हैं?
सारे जहाँ की गंदगी आकर मुझमें समां गई हैं,
मेरा चौड़ा विशाल पाट जिसमें मेरे लहरें मचलती थी,
आज सिकुड़कर मुझसे ही आ लगा हैं।
स्वच्छ निर्मल जल धारा मल से भर गई हैं
क्या, क्या बताऊँ प्रभु,
किस मुंह से इनके घृणित कर्मों की दास्ताँ सुनाऊँ?
अब तो बस बिना कहे ही मुझे देखकर ही
आप सब कुछ समझ जायें जो मैंने कहा नहीं ।”
उसके नयनों के अविरल बहते आंसू और
हलक में रुँधने वाले वेदनामयी स्वर ने
‘भोलेनाथ’
का ध्यान भंग कर दिया,
और भीतर के क्रोध को जगा दिया ।
तब ‘शंकर’
ने नीचे दृष्टि घुमाई
‘गंगा’
के साथ-साथ उन्हें ‘सृष्टि’ भी नजर आई,
देखकर अपनी प्रियतमा गंगा की ये दुर्दशा
उनके भीतर से रोष की एक चिंगारी निकली,
और देखते ही देखते उनके धाम
‘केदारनाथ’
में चट्टानें दरकने लगी,
बड़ी-बड़ी विशाल इमारतें सब पल भर में,
आँखों के सामने ही धाराशायी हो गई,
पलक झपकते वो सब ताश के पत्तों सी ढह गई,
और उसी गंगा जल में मिट्टी बनाकर बह गई।
सिर्फ़ एक हल्के-से दृष्टि मात्र से
जितने भी लोग थे वहां,
उन सबकी ‘जल-समाधि’
बन गई,
ऐसे सब कुछ जलमग्न हुआ,
कौन किधर गया कुछ पता ही ना चला
सब कुछ गंगा की कोख में समा गया,
यूँ लगा जैसे बस प्रलय का क्षण आ गया,
हर तरफ लाशों और मकानों का ढेर
और कुछ भी नजर ना आता था ।
देखकर ये विनाशकारी कोहराम
‘गंगा’
आखिर ‘माँ’ ही थी
द्रवित हो ही गई बोली---
“प्रभु
! बस अब अपना क्रोध शांत किजीयें,
इन सबकी गलतियों को क्षमा किजीयें,
मेरी बात मान कर इन्हें एक मौका और दीजियें,
अगर अब भी न चेता,
प्रकृति से खिलवाड़ करने वाला इंसान,
तो फिर आप ले ही लेना इसकी जान,
मिटा देना ये सकल ब्रम्हांड,
जिसे परमपिता ‘ब्रम्हा’
ने रचा,
पालनहार ‘विष्णु’
ने जिसका पोषण किया
आप संहारक हो आप ही इसका विनाश कर देना,
ये झलक प्रलय की यदि अब भी,
मानव की आँखें खोल नहीं खोल पायेगी,
तो फिर इन्हें ये ‘गंगा
माँ’ भी नहीं बचा पायेगी ।”
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‘उत्तराखंड
की त्रासदी’ ‘गंगा’ और ‘प्रकृति’ पर मानव के कियें गए अन्याय और अत्याचार के
खिलाफ ‘ईश्वर’ का एक सांकेतिक रोष और ‘जल-प्रलय’ की एक झलक मात्र हैं, जिसे नजरंदाज करने के भविष्य में क्या परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं
कल्पनातीत हैं... चेत मानव... अब तो चेत... वरना कुछ ना रहेगा शेष... बस बचेंगे
चंद अवशेष... ‘गंगा सप्तमी’ की शुभकामनाओं सहित.... :) :) :) !!!
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२५ अप्रैल २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह “इन्दुश्री’
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