बुधवार, 8 अप्रैल 2015

सुर-९६ : "क्रांति के अग्रदूत... 'मंगल पाण्डेय' !!!"

‘देशहित’
समझो मर्म
...
‘देशसेवा’
एकमात्र कर्म
...
‘देशभक्ति’
सबसे बड़ा धर्म
...
फिर जियो
उठाकर सर...
न आयेगी कभी शर्म...
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मित्रों...,

जब भी भारतीय स्वाधीनता का इतिहास पढ़ती तो बस, एक जगह आकर ठहर जाती वो भी तब जब उस अद्भुत पराक्रमी साहसी बलिदानी की गाथा के पृष्ठ पलटती तो गहन सोच में डूब जाती कि जब अंग्रेजो का हमारी सोने उगलती धरती प्राकृतिक सम्पदा से हरी भरी भूमि को देखकर मन ललचा गया और उन्होंने हमारी कमजोरियों का फायदा उठाकर हमें अपने ही घर में अपने ही देश और अपनी ही जमीन पर दास की तरह काम करने पर न सिर्फ़ मजबूर कर दिया बल्कि हमारी शक्तियों और क्षमताओं का भी मनमाना दोहन किया और इस तरह पुरे देश को ही अपना गुलाम बना लिया था तब वे हर काम के लिये अपने देश से तो मजदूर या श्रमिक ला नहीं सकते थे तो उन्होंने हमें ही इस काम पर नियुक्त कर दिया यहाँ तक कि सेना हो या कोई भी क्षेत्र हमें हमारे ही खिलाफ खड़ा भी कर दिया तभी तो 'मंगल पांडे' जैसे बहादुर उनकी सेना की शोभा बढ़ा रहे थे वैसे भी इतने इमानदार और ताकत से भरपूर लोग उन्हें और कहाँ मिलते लेकिन वो ये भूल गये कि हर एक भारतीय के दिल में समूचा हिंदुस्तान बसता हैं जो कभी बेबसी या मजबूरी में भले ही किसी की दासता स्वीकार कर ले लेकिन उसकी आत्मा में तो उसकी भारतमाता का ही स्वरूप ही विराजमान होता तभी तो जब कभी ऐसा वक़्त पड़ता कि उसके स्वाभिमान को ही कुचलने का प्रयास किया जाता तो उसकी अंतरात्मा विद्रोह कर उठती

यही तो उस शेरदिल देशभक्त भारत माँ के लाड़ले पुत्र के साथ हुआ जो कि और भी कई देशवासियों की तरह अंग्रेजो की सेना में एक सिपाही था लेकिन साथ ही अपने धर्म के प्रति भी जिम्मेदार था जिसने अपने जमीर अपने ईमान को रोटी की खातिर बेचा नहीं था इसलिये जब उसे ज्ञात हुआ कि उन लोगों को जो कारतूस दिये जा रहे हैं उनमें ‘गाय’ और ‘सूअर’ के मांस की चर्बी का प्रयोग किया जा रहा हैं तो वो भड़का उठा क्योंकि इस तरह तो उन सबका ही धर्मभ्रष्ट हो जाता जो भी इसका प्रयोग करते जिस समय की ये बात हैं वो  इतिहास में १८५७ की क्रांति या वतन के ‘प्रथम स्वाधीनता संग्राम’ के नाम से दर्ज हैं एक ऐसी घटना हैं जिसने आज़ादी का बिगुल बजाने की पहल की जिसने लोगों की रगों में ठंडे पड़कर जमते जा रहे लहू में एकाएक ही देशभक्ति के जोश का उबाल ला दिया सबको अचानक ही ये अहसास दिला दिया कि भले ही हमें दुश्मनों ने अपने कब्जे में ले रखा हैं और हम उनकी आधीनता में रहने को मजबूर हैं लेकिन ऐसी बेबस असहाय जिंदगी से तो दो पल की जोश-खरोश से भरी जिंदगी हैं जो भले ही छोटी हैं लेकिन उसमें अपनी मर्जी तो शामिल हैं कम से कम मरने पर इस बात का तो संतोष रहेगा कि एक गुलाम जीवन की जगह हमने एक आज़ाद मौत चुनी जिसने हमें सिर्फ़ इस दुनिया से ही नहीं उस दुनिया से भी ऊपर उठा दिया हमारा वजूद हमारी आत्मा हर तरह के बोझ से मुक्त होकर परमात्मा में विलीन हो गयी हमने एक सार्थक मौत चुनी जिसमें कोई ग्लानि नहीं I

यही उस सच्चे देशभक्त ‘मंगल पांडे’ ने भी किया और इस तरह अंग्रेजी शासकों की खिलाफत कर ‘स्वाधीनता संग्राम’ के इतिहास में एक अभूतपूर्व अध्याय जोड़ दिया जिसने ‘१८५७ की क्रांति’ के रूप में ज्योति से ज्वाला की तरह भड़ककर अपने ही देश में कब्जा जमाने वाले अंग्रजों और उनकी ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ की नींव हिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थीं । वही ‘मंगल’ जो कि इस आंदोलन से ३० वर्ष पूर्व ही १९ जुलाई १८२७ को ग्राम ‘नगवा’, जिला बलिया में पैदा हुये थे उस दिन उन्होंने सब्र की हर सीमा को तोड़कर शेर की तरह ऐसी दहाड़ लगाई कि पूरी की पूरी अंग्रेज फौज काँप गयी  थी । जब ‘बैरकपुर’ की सैनिक छावनी में ‘३४वीं बंगाल नेटिव इनफैंट्री’ में कार्यरत इस सैनिक को लगा कि धीरे-धीरे बात ‘धर्म’ पर ही आने लगी हैं तो ऐसी स्थिति में भी चुप रहना न तो इंसानियत और न ही अपने वतन के प्रति ही वफ़ादारी हैं एक गुस्सा तो पहले से ही मन के किसी कोने में दबाकर रखा ही था जो अब इस असहनीय बात से इस तरह उभरा कि सैलाब बनकर बाहर आया जिसने अपने साथ अन्य देशवासियों को भी देशप्रेम के रूहानी अहसास से लबरेज कर दिया और उन्हें अपने जीवन का मकसद भी मिल गया । 

इतिहास के अनुसार ‘कारतूसों’ में ‘गाय’ और ‘सुअर’ की चर्बी लगे होने की बात ने एक तरह से सबके अंदर की सोयी हुई देशभक्ति को जैसे झकझोर कर जगा दिया और इस तरह आज़ादी की इस पहली लड़ाई को एक मजबूत आधारशिला प्राप्त हुई और अब सभी ‘हिंदू’ और ‘मुसलमान’ ने एकजुट होकर फिरंगियों को सबक सिखाने की ठान ली और एक स्वर में उन कारतूसों का उपयोग करने से इंकार कर दिया । इस अंग्रेजी हुकूमत को देश से बाहर खदेड़ने के लिये ‘मंगल पांडे’ ने २९ मार्च १८५७ को ‘लेफ्टिनेंट बॉग’ और कुछ अन्य अधिकारीयों पर हमला कर दिया लेकिन वो अपने अभियान में सफ़ल न हो सके और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया जिसने दूसरे साथियों को भी बग़ावत करने को को उकसाया इस गिरफ्तारी के बाद ०६ अप्रैल १८५७ को ‘मंगल पांडे’ को फांसी की सज़ा सुनाते हुये १८ अप्रैल की तारीख मुकर्रर की गयी की गई जिसकी खबर होते ही सारा हिंदुस्तान और सभी देशवासी अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध खड़े हो गये ये जनक्रांति देखकर अंग्रेज भारतवासियों की ताकत और एकता से घबरा गये वे समझ गये कि इन्हें एक नहीं होने देना हैं और ‘मंगल पांडे’ को भी उन्होंने तयशुदा दिनांक से दस दिन पूर्व याने कि आज ही के दिन ‘मृत्युदंड’ दे दिया गया और ये उनके प्रयास का नतीजा था कि ९० साल बाद १९४७ में अंग्रेज देश छोड़कर चले गये और हम सबको आज़ादी का तोहफ़ा मिला ।

अब जबकि अपना ही शासन बोले तो 'लोकतंत्र' हैं तब एक सरकारी नौकर हर तरह के जुल्मों-सितम अत्याचार चुपचाप सहन करता हैं और अपना मुंह बंद कर के रहता हैं और अपने बच्चों को भी यही सिखाता हैं कि चैन से अपना काम करो अपने काम से काम रखो किसी के फटे में टांग न अडाओ न ही किसी बहस में पडों सब कुछ देखते हुये भी अपनी आँख नाक काम सब बंद रखो वो कभी ये नहीं समझ सकेंगे कि किसलिये ‘मंगल पांडे’ ने अपनी जान गंवा दी आज तो लोगों को ये तक नहीं पता कि वो क्या खा रहे हैं और उस समय एक व्यक्ति ने सिर्फ़ इसलिये फिरंगी सरकार से पंगा ले लिया कि उसने ‘कारतूस’ में चर्बी मिला दी थी भले ही आज के युवाओं को ये अविश्वसनीय लगे लेकिन आज भी ‘मंगल पांडे’ हमारी आन बान शान का प्रतीक हैं जिसने सैनिक होते हुये भी अपने ही ऑफीसर्स को ललकारा उनके खिलाफ़ मुहीम छेड़ी लोगों में चेतना जगाई, मरती जा रही आत्मा को जीवन दिया लोगों में आशा का संचार किया कि नामुमकिन कुछ भी नहीं केवल आवाज़ उठाने की देर हैं फिर देर सवेर उसका सुपरिणाम आ ही जाता और यही हुआ जिस चिंगारी को उन्होंने आग लगाई थी वो ऐसी मशाल और जन आन्दोलन में तब्दील हुई कि नब्बे साल बाद ही सही अंग्रेजों को अपना ताम-झाम उठाकर इस देश की बागडोर को वापस हमारे ही हाथों में सौंपकर जाना पड़ा

हमें देखो हम अपने ही लोगों के बीच रहकर भी अपने मन की बात नहीं कह पा रहे हर बार हम लोगों को सब्ज बाग़ दिखाकर सरकार सत्ता में आ जाती और फिर पांच साल के कुर्सी पर काबिज हो हमसे मुंह फेर लेती फिर भी हम खामोश सब सहते रहते कि कहीं हमारे या हमारे परिवार पर कोई विपत्ति न आ जाये कहीं ऐसा न हो कि हमें मार दिया जाये और भी न जाने कितने तरह के डर वो भी अपनी ही चुनी गयी सरकार में अपने ही लोगों के मध्य रहते हुये भी किसी भी अन्याय के खिलाफ न तो एक जुट हो पाते न ही कोई आन्दोलन ही करते जबकि कुछ स्थितियां वाकई बेहद असहनीय और बदलाव की दरकार मांगती हैं लेकिन सभी अपने-अपने ‘कम्फर्ट ज़ोन’ में रहते हुये सिर्फ़ ये सोचते कि कोई ‘मंगल पांडे’ हो कोई ‘भगत सिंह’ हो जो हमारे लिये लड़े हमारी जगह फांसी चढ़ जाये... जबकि अपने धर्म-कर्म को महफूज़ रखने हमें ही कदम उठाना पड़ेगा... जब भी हमारे आत्माभिमान को कोई ठेस पहुँचायेगा... कोई भी हमारे लिये खड़ा न होगा गर, हम में लड़ने का जज्बा न होगा... वंदे मातरम... इंकलाब जिंदाबाद... :) :) :) !!!         
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०८ अप्रैल २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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