शनिवार, 11 अप्रैल 2015

सुर-१०० : "बापू में समा गयी 'कस्तूरबा'... बनकर 'बा'...!!!"

छाया
बनकर वो
साथ चलती रही
...
आदमकद
के पीछे होकर भी
कद से न वो कमतर हुई
...
वटवृक्ष
के साये तले भी
वजूद अपना बनाये रखी
...
'कस्तूरबा'
'महात्मा गाँधी' से अलग
अपने नाम को भी जीती रही ।।
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मित्रों...,

किसी भी व्यक्ति के आम से ख़ास और फिर महान बनने में केवल उसके अपने परिश्रम या साधना के अलावा भी अन्य कई लोगों का योगदान होता हैं जो कि परोक्ष या अपरोक्ष रूप से उसके लक्ष्य संधान में लघु या दीर्घ भूमिका अदा करते हैं जिससे कि अपनी मंजिल की और बढ़ते उसके कदमों को गति मिल जाती हैं और इसमें सबसे महत्वपूर्ण जिसे कि मुख्य भूमिका कहते हैं यदि कोई निभाता हैं तो वो उसका जीवनसाथी या सहगामी होता है जो अर्ध अंग की तरह उसके जीवन में आता और फिर उसकी आगे की सारी जिंदगी में उसके साथ कदम से कदम मिलाकर चलता तभी तो पति-पत्नि को 'सहचर' या 'हमसफर' कहा जाता तथा 'विवाह' को भी एक नये जीवन की शुरुआत की संज्ञा दी जाती जिसमें कि जीवनसाथी के आगमन से आगे की दिशा निर्धारित होती एवं यदि दोनों वाकई सही मायनों में एक दूसरे के अर्धांग होते तो एक दूसरे से मिलकर एक मुकम्मल व्यक्तित्व बन जाते फिर एक से दूसरे को पहचान लिया जाता शायद, तभी ब्याह के बारे में ये एक आम धारणा प्रचलित हैं 'जो करें वो भी पछताये और जो न करें वो भी' क्योंकि यदि आपका हमराह सही नहीं हैं तो आपका भविष्य अंधकारमय हो सकता और यदि वो आपका वास्तव में वही हिस्सा हैं जिससे मिलकर आप एक संपूर्ण शख्सियत में तब्दील होते तो फिर आपकी सारी परेशानियाँ एकदम से खत्म हो जाती । कुछ ऐसा ही हुआ था 'मोहनदास करमचन्द गांधी' के साथ जब तेरह साल की अबोध अवस्था में उनकी शादी एक अल्हड नादान बालिका 'कस्तूरबा' से कर दी गयी चूँकि उस जमाने में कच्ची उम्र में ही इस तरह के पक्के रिश्ते बन जाया करते थे अतः उनका तालमेल भी अधिक घनिष्ठ हुआ करता था क्योंकि दोनों एक साथ ही हर तरह के खट्टे-मीठे अनुभव से गुजरते हुये धीरे-धीरे समझदार होते और एक दूजे से अच्छी तरह परिचित होते जाते जिससे उनके संबंध अधिक प्रगाढ़ होते इसी तरह बालपन में एक डोर से बंधे ये दोनों भी एक-दूसरे के पूरक बन गये थे तभी तो सिर्फ 'बा' कहो या फिर 'बापू' दोनों का नाम आ जाता हैं ।

जब हम 'गांधीजी' के जीवन चरित का अध्ययन करते तो 'बा' को हमेशा हर जगह उनके साथ 'अर्धनारीश्वर' की साक्षात मूर्ति  की तरह पाते हैं जो उस विराट व्यक्तित्व के पीछे रहकर भी गुम नहीं होती न ही एक नदी की तरह अपने आपको उस महासागर में विलय कर देती कि उसकी अपनी स्वतंत्र पहचान ही मिट जाये क्योंकि 'गांधीजी' भी कहीं पर भी उनके चाँद से उजले रोशन चरित्र के ऊपर बादल की तरह नहीं छाते कि वो नजर ही न आये तभी तो दोनों साथ हैं एक नाम हैं एक ही पहचान 'गांधी' फिर भी हम उन्हें पृथक पहचान लेते हैं । 'गांधीजी' का जीवन खुली किताब सा हम सबके सामने दिखाई देता हैं जो न जाने कितने पथरीले, संषर्ष भरे रास्तों से गुजरता हैं लेकिन न कभी रुकता, थकता या थमता हैं क्योंकि वो दौर ही ऐसा था जबकि रुकने या विश्राम करने का न तो समय ही किसी के पास था और न ही उनको थकान महसूस होती क्योंकि उनको अपने कष्ट या पांव के छाले नहीं बल्कि 'भारतमाता' की पीड़ा और गुलामी की जंजीर से बंधे हाथ ही नजर आते थे ऐसे में एक सच्चे देशभक्त और सपूत से यही आशा की जाती कि वो खुद को मिटाकर भी अपनी 'मातृभूमि' की न सिर्फ रक्षा करेगा बल्कि अपने परिवार को भी ऐसा करने की प्रेरणा देगा जिससे कि वो मातृ-पितृ ऋण के साथ-साथ जन्मभूमि के प्रति भी अपने कर्तव्य से मुक्त हो सके यही तो गांधीजी का भी प्रयास था इसलिये तो उन्होंने 'बा' की कार्यक्षमता और प्रतिभा का सम्मान करते हुए उनके भीतर भी देशप्रेम का जज्बा भर दिया जिसके कारण वो भी जंग ए आज़ादी में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हुए छोटी-बड़ी गतिविधियाँ संचालित करती रही फिर चाहे वो स्वदेशी आंदोलन में विदेशी वस्त्रों की होली जलाना हो या अपने देशवासियों को क्रांति के लिये जगाना या उनको वर्तमान परिस्थितियों में देशभक्ति का संदेश देते हुये जरूरत पड़ने पर बलिदान के लिये तैयार करना या फिर आश्रम में रहकर सूत कातना या गांधीजी के साथ हर आन्दोलन में कदम से कदम मिलाकर चलना हो या फिर मूक रहकर केवल उनका संबल बनना हो शायद, यही वजह रही कि जब वो जेल में बंद होते तो वो बाहर उनके स्थान पर सक्रिय रहते हुए उनकी स्वाधीनता संग्राम की अहिंसा की मशाल को जलाये रखती थी इस तरह वे स्वतंत्रता संग्रामकी लड़ाई में महिलाओं की पुरोधा बनी जिससे प्रेरित होकर अन्य नारी भी घर की चारदीवारी से बाहर निकलकर इस धर्मयुद्ध में अपनी आहुति देने लेगी थी ।

गांधीजीही की तरह कस्तूरबाभी काठियावाड़ के पोरबंदरमें ही जन्मी थी और उनसे छे महीने पूर्व याने कि आज ही के दिन ११ अप्रैल को सन् १८६९ को एक सामान्य व्यापारी पिता 'गोकुलदास मकनजी' के घर पर उनका जनम हुआ था चूँकि उस समय लडकियों की शिक्षा-दीक्षा का इतना प्रचार-प्रसार न था अतः उनके पिता ने भी उनको पढ़ाया नहीं था और अल्पायु में ही उनका विवाह कर दिया था... निरक्षर होने के बाद भी उनका दृष्टिकोण बेहद परिपक्व और अपने ध्येय के प्रति एकदम साफ़ था तभी तो उन्होंने उस जमाने में भी अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय दिया और अपने पति के कर्मपथ में उनकी प्रेरणा की अग्नि से ज्योत की तरह जलती रही और फिर २२ फरवरी १९४४ को ये ज्योति बुझ गयी लेकिन आज भी भारतवर्षके आसमान में सितारे की तरह टिमटिमा रही हैं... :) :) :) !!!  
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११ अप्रैल २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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