शनिवार, 18 अप्रैल 2015

सुर-१०७ : "विश्व विरासत दिवस... देता बचाने धरोहर का संदेश...!!!"

सहेजने...
अपनी ‘भाषा’
अपनी ‘सभ्यता’
अपनी ‘संस्कृति’
अपनी प्राचीन ‘धरोहर’
मनाओ ‘विश्व विरासत दिवस’
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मित्रों...,

यदि हम अपने परिवार को ही अपनी छोटी-सी दुनिया माने तो हम पाते हैं कि उसमें ही न जाने कितनी ऐसी प्राचीन चीजें होती जिन्हें कि हम आने वाली पीढ़ी के लिये बरक़रार रखना चाहते ताकि वो भी अपने उस खानदानी रस्मों-रिवाज़ के अलावा उन सब पुरातन वस्तुओं को भी जाने-पहचाने फिर अपने समृद्धिशाली अतीत पर न सिर्फ गर्व कर सकें बल्कि सबको बड़े फक्र से उसके बारे में भी बता सके और जो भी ऐसा कर पाने में सफल होते पीढ़ी दर पीढ़ी उनकी प्राचीन पारिवारिक विरासत की जड़ें गहरी होते-होते एक विशाल मजबूत वट वृक्ष की भांति सबको अपनी छाया में महफूज़ रखती और हर शाखा की अपनी ही एक अलग कहानी होती जिससे निकली टहनियां उसके सहारे अपना अस्तित्व कायम रखते हुये उस पर नाज़ करती हैं । ये तो सिर्फ़ एक चारदीवारी और उसके भीतर की बेशकीमती वस्तुओं को सहेजने की बात हैं लेकिन अब हम उस दायरे से बाहर निकले और अपने शहर को देखें तो जानते कि यहाँ तो उससे भी अधिक कीमती धरोहर यहाँ-वहाँ बिखरी पड़ी हैं जिनकी देखभाल की जिम्मेदारी सरकार का काम समझकर हम केवल उसे देखकर यदि वो खुबसूरत होती तो ‘वाह’.. या जर्जर होती तो उसकी दशा पर...’आह’ कर रह जाते लेकिन इससे ज्यादा का काम हमारा नहीं जबकि हम सब चाहे तो अपने प्रांत की परिचायक बन चुकी इन धरोहरों को बचाने हेतु भी अधिक नहीं तो कम ही सही सहयोग कर सकते हैं क्योंकि इनसे हमारी भी तो शान बढ़ती हैं । फिर इसके बाद जरा अपने शहर से बाहर निकले तो बात आती हमारे ‘प्रदेश’ और ‘देश’ की जिसके अंतहीन आकाश तले फैली हुई महासागर सी विशाल धरा पर तो प्राकृतिक, कृत्रिम, मानवीय निर्मित अनगिनत ऐसी बहुमूल्य संपदा हैं जिनसे हम लोग ऐतिहासिक रूप से रईस बनते और शायद यही वजह हैं कि इसके सरंक्षण और बचाव हेतु विश्व स्तर पर प्रयास किये जा रहे हैं ।

'संयुक्त राष्ट्र' की एक संस्था ‘यूनेस्को’ ने संपूर्ण विश्व के लिये इसकी महत्ता को समझते हुये एक ऐसा कदम उठाया जिससे कि वैश्विक स्तर पर हम सब एक होकर अपनी इन प्राचीनतम और नायाब धरोहरों को सुरक्षित कर सकें तभी तो उन्होंने ये निर्णय लिया कि सभी लोग मिलकर ’१८ अप्रैल’ को न सिर्फ़ एक अनोखा-सा सांस्कृतिक पर्व ‘विश्व विरासत दिवस’ मनाये जिससे कि इस दिन ही सही दुनिया के हर देश-प्रदेश के निवासी अपने चारों तरफ़ बसी हुई इन चीजों का निरक्षण कर उनको किस तरह से लंबे समय तक अक्षय रखा जा सकता इस पर विचार-विमर्श कर नीतियाँ बनाये और उन पर अमल भी करें जिससे कि प्रतिवर्ष के ये क्रिया-कलाप इन सबकी उमर को बढ़ाकर भविष्य में आने वाली कौम को भी अपने गुज़रे समय की अमर गाथा सुनाकर उससे रूबरू करा सकें बस, इस तरह इस दिवस को मनाने की परंपरा की शुरुआत हुई क्योंकि हमारे इतिहास की आधारशिला पर ही हमारे भविष्य की ईमारत खड़ी होती हैं और यदि यही चरमरा जाये तो सोचों हम सब किस तरह अपने अस्तित्व की पहचान को बचा पायेंगे । इसे मनाने की घोषणा होने के बाद से ही सबसे पहला 'विश्व विरासत दिवस' १८ अप्रैल, १९८२ को ‘इंटरनेशनल काउंसिल ऑफ मोनुमेंट्स एंड साइट्स' द्वारा ‘ट्यूनीशिया’ में बड़े जोर-शोर से आयोजित किया गया जिसमें कि एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन ने १९६८ में बनाई गयी विश्व प्रसिद्ध इमारतों और प्राकृतिक स्थलों की सुरक्षा के लिए एक प्रस्ताव तैयार किया गया था जिसे कि ‘संयुक्त राष्ट्र’ के सामने १९७२ ई. में ‘स्वीडन’ की राजधानी ‘स्टॉकहोम’ में एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान रखा गया और फिर उस जगह उपस्थित विश्व के लगभग सभी देशों ने मिलकर ऐतिहासिक और प्राकृतिक धरोहरों को बचाने की शपथ ली जिससे कि "यूनेस्को वर्ल्ड हेरिटेज सेंटर" पूरी दुनिया के सामने आया । कहते हैं कि उस वक़्त १८ अप्रैल, १९७८ में संपूर्ण दुनिया के सिर्फ़ १२ स्थलों को ‘विश्व विरासत स्थलों’ की सूची में रखा गया और तब इसे "विश्व स्मारक और पुरातत्व स्थल दिवस" के रूप में मनाया जाता था लेकिन फिर ‘यूनेस्को’ ने वर्ष १९८३ में इसको वैश्विक मान्यता प्रदान की और इस तरह उस दिन से ही इस दिवस को एक नया नाम "विश्व विरासत दिवस" देकर मनाया जाने लगा ।

हर देश की अपनी सभ्यता, संस्कृति और अभूतपूर्व इतिहास होता हैं जिसे यदि बचाया न जाये तो फिर उसे पहचान पाना संभव न होगा और जिस तरह से वैश्वीकरण के नाम पर सामान के साथ-साथ अब भाषा, वस्त्र, तहज़ीब, किताबें, फल, फूल, सब्जियों और रिश्तें भी आयात होने लगे हैं तो हर एक राष्ट्र अपनी व्यक्तिगत पहचान को बचाने जद्दोजहद भी शुरू हो गयी हैं क्योंकि पता ही नहीं चलता कि हम जो भी इस्तेमाल कर रहे हैं वो आखिर किस मिट्टी से उपजा हैं अब तो हर जगह हर चीज़ उपलब्ध होने लगी हैं जिसने लोगों के ऊपर लगी उनकी वैयक्तिक पहचान को ही चुनौती देना आरंभ कर दिया हैं हम अपने वतन पर ही ध्यान दे कि जिस तरह से लोगों की खान-पान की प्रवृति और आदतें ही नहीं बल्कि आम बोलचाल की भाषा भी ऐसी बदली कि ‘मातृभाषा’ या ‘राष्ट्रभाषा’ का अस्तित्व भी संकट में आने लगा हैं उसके बाद अब हमारे परिधान और रिश्तें भी उलझने लगे जिन्हें देखकर हमें पता ही नहीं चलता कि कौन किस देश का बाशिंदा हैं जबकि हमारे देश में तो हर प्रदेश की ही अपनी बोली, भेसभुषा, खानपान हैं पर, अब तो सब एक रंग में रंगे नज़र आते जिससे उनकी निजता खोती जा रही हैं इसलिये ऐसी बदली हुई परिस्थितियों में तो जरूरी हैं कि हम अपनी इमारतों, शिलालेख, ग्रंथों, साहित्य आदि ही नहीं बल्कि अपनी छोटी-छोटी सी लुप्त हो जा रही विरासतों को भी सहेजने में जुट जाये नहीं तो कल को हमारे योग, होम, औषधि, तमाम रिश्ते-नाते, मीठी वाणी, वेद-पुराण, पशु, पक्षी, खेल, व्यंजन, अनाज, परिधान, मिष्ठान्न, त्यौहार सब कुछ बीते कल की बातें बन कर रह जायेगी फिर हम उन्हें गूगल पर सर्च कर पता करेंगे और यदि जो ‘गूगल’ ही न रहा तो... इसलिये बेहतर हैं कि जो कुछ भी हमारे पास शेष रह गया हैं इससे पहले कि वो ‘डायनासोर’ या अन्य विलुप्त हो चुकी प्रजातियों की तरह चित्रों में ही बचा रह जाये हम ही उसे उसके वास्तविक रूप में बचाये... लोगों को भी इसके प्रति जागरुक बनाये... आओ मिलकर ‘विश्व विरासत दिवस’ मनाये... :) :) :) !!!            
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१८ अप्रैल २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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