रविवार, 19 अप्रैल 2015

सुर-१०८ : "सिर्फ़ कहो नहीं... दिखो भी...!!!"


कहते तो हो तुम खुद को परेशां
चेहरे पर नहीं लेकिन गम के निशाँ ।।

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मित्रों...,

न जाने क्यों आदमी की सामान्य सोच यही होता कि यदि कोई खुद को ‘दुखी’ या ‘परेशान’ बता रहा हैं तो केवल कहने से ही ये साबित न होगा कि वास्तव में उसकी दशा खराब हैं... उसे अपने आचरण और व्यवहार से भी ये ज़ाहिर करना होगा कि जो कुछ भी उसने कहा वो शत-प्रतिशत सत्य हैं उसमें बनावट या झूठ का लेश मात्र भी नहीं । जिसे दर्शाने के लिये उसे अपनी मुखमुद्रा, भाव भंगिमा, बाहरी भेषभूषा, खान-पान यहाँ तक कि अपने शौकों के प्रति भी अरुचि प्रदर्शित करनी होगी वरना ये समझा जायेगा कि जो कुछ भी उसने बताया वो मिथ्या भाषण के सिवा कुछ भी नहीं हैं ।

भले ही पढने और सुनने में ये अटपटा लगे लेकिन आज के जमाने की एक वैचारिक विषमता हैं जिसकी वजह से अनजाने में ही अपनी व्यथा बताने वाला गहन अवसाद में चला जाता क्योंकि सामने वाला केवल उसके शब्दों से उसका आकलन कर रहा होता उसकी मानसिक दशा को समझने का प्रयत्न कोई नहीं करता न उसके साथ रहने वाले, न आस-पास ही कोई यहाँ तक कि उसके सखा या मित्र भी नहीं क्योंकि सब केवल वही देखते जो नजर आता उसके अनपेक्षित व्यवहार के पीछे की छुपी हुई असलियत न ही कोई देखना चाहता और न ही किसी के पास इतना वक़्त कि वो इसे जानने का ही प्रयत्न करें ।

सबका एक ही ख्याल होता कि यदि अमुक खुद को दुखी बता रहा तो फिर वो सारा दिन रोता ही क्यों नहीं रहता, यदि वो आर्थिक रूप से परेशान हैं तो फिर बाज़ार क्यों जाता हैं, यदि उसके उपर इतनी ही आफत आन पड़ी है तो वो हंसता मुस्कुराता क्यों हैं, कल तो उसने कहा कि उसका किसी चीज़ में मन नहीं लग रहा और आज ही मैंने उसे एक शादी के रिसेप्शन में खाते देखा, अरे बड़े नये नये कपड़े पहनकर और सजकर ऑफिस जाने की क्या आवश्यकता जब तुम परेशां... कहने का तात्पर्य यही कि कोई ये नहीं समझता कि ये दायित्व वो जो इतनी कठिनाई में भी कुशलता से निभा रहा तो इसकी वजह क्या हैं ? क्या वो वास्तव में दोगला हैं या ऐसा करना भी उसकी सामाजिक मजबूरी हैं या फिर कहीं ऐसा तो नहीं उसके इन शौकों से ही उसको ऊर्जा मिल रही हो क्योंकि कितनी भी असहनीय या विकट स्थितियां क्यों न हो पर यदि व्यक्ति अपने मन का काम करें तो उसे जीने लायक ईधन मिल जाता उसे घुटन में कुछ ताज़ी खुली हवा का अहसास हो जाता जो उसके सीने में जीने की ख्वाहिश को मरने नहीं देता यही कारण हैं कि कुछ लोग मौत जैसे हालातों में जिंदा रहते और लोग कहते कि कितना बेशर्म हैं अभी भी मरा नहीं... बहुत कठिन हैं जीवन का मर्म समझना इसे लिबास से नहीं जेहनी ख्यालात से नापो... तभी समझोगे कि अक्सर जो चेहरे पर दिखाई देता वो आँखों का धोखा ही होता... कभी किसी की आँखें पढ़ो तो शायद पढ़ सको जो उसमें लिखा...

जीने की तो बस अदाकारी करते हैं हम ।
और... ये दुनिया समझती हैं कि जिंदा हैं हम ।।

यही तो हैं व्यक्ति की अपनी निजता जिस तक हर कोई न पहुँच पाता और जिसने इसे पा लिया उसने ही जीवन का रहस्य भी समझ लिया... जो ढूंढना पड़ता सहजता से नहीं मिलता... तो फिर अब जब भी किसी के व्यवहार में दोहरापन नजर आये तो जरा गंभीरता से उसकी पड़ताल करें न कि उसके बारे में कोई राय कायम कर ले... क्योंकि अमूमन जमाने के साथ चलते-चलते इंसान को कई तरह के रूप और दिखावा भी करना पड़ता हैं... जो कभी-कभी उसके बारे में गलतफ़हमी में भी डाल देता हैं... :) :) :) !!! 
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१९ अप्रैल २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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