बुधवार, 22 अप्रैल 2015

सुर-१११ : "ले प्रदुषण मुक्त धरा का संकल्प... इस 'विश्व पृथ्वी दिवस'...!!!"

गर,
न होती
‘पृथ्वी’
न होती
‘जिंदगी’
दोनों अधूरे
एक दुसरे बिन
पर, हम न जी सकते
‘प्रकृतिविहीन’
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मित्रों...,

आजकल हम आये दिन मौसम का रोना रोते रहते हैं कि कभी एकदम तेज ‘गर्मी’, तो कभी अचानक से झमाझम ‘बारिश’ और यकायक ‘सर्दी’ का अहसास ऐसा पहले सदियों में कभी एक बार होता था लेकिन अब तो जब देखो तब एक के बाद एक तीनों मौसम चले आते और ऐसे में हम सब उपरवाले को या फिर क़ुदरत को दोष देते लेकिन ये भूल जाते कि प्रकृति कभी बेवजह किसी को भी कष्ट देती जब हम उसके प्राकृतिक क्रियाकलापों में दखलअंदाजी देते तो उसका संतुलन बिगड़ जाता जिसका खामियाजा हमें इस तरह भुगतना पड़ता पर हम उटपटांग के चुटकुले बनाकर उसका मजाक उड़ाते यदि इसकी जगह हकीकत को समझे या इसके पीछे के कारणों की पड़ताल करें तो उसकी जड़ में हमारी ही कारस्तानी के नमूने नज़र आयेंगे जो हमने अपनी मनमानी के लिये, अपनी सुविधा के लिये उसके साथ किये हमने ही मकान बनाने के लिये तमाम जंगलात काट डाले, यहाँ तक कि प्रकृति की संतान पशु-पक्षियों तक को धीरे-धीरे मार डाला और यदि किसी नदी-तालाब. झरने या किसी ऊँचे पहाड़ ने हमारा रास्ता रोका तो हमने उसे ही समाप्त कर दिया बिना ये सोचे समझे कि आज तो हम उसकी जगह अपने रहने का ठिकाना बना लेंगे लेकिन कल जब उनके न रहने से कुदरत कुपित होगी तो उसके क्रोध को किस तरह से झेलेंगे क्योंकि ये सब जंगल, नदी-पहाड़, पेड़-पौधे ही तो सभी तरह के मौसम को सही प्रकार से नियंत्रित करते हैं जिससे वे समय-समय पर अपने आप ही आ जाते हैं

सिर्फ़ जलवायु परिवर्तन ही नहीं अक्सर होने वाली प्राकृतिक आपदायें भी यही इंगित करती कि अब भी यदि हम न संभले तो एक दिन सर्वनाश निश्चित हैं क्योंकि ये सब अनायास नहीं बल्कि हमारे ही कर्मों का परिणाम हैं जो एक साथ न जाने कितने लोगों को झेलना पड़ता तभी तो कभी ‘केदारनाथ’ तो कभी ‘अमरनाथ’ तो कभी देश की किसी भी हिस्से में कुछ ऐसा अप्राकृतिक घटता जो केवल हमें ये संदेश देता कि हे मानव अब भी समय हैं चेत जाओ वरना एक दिन पछताने के लिये भी न कुछ शेष बचेगा पर हम भी दो-चार दिन का शौक प्रकट कर आगे अपनी उसी रफ़्तार से न सिर्फ़ बढ़ जाते बल्कि अपना ढर्रा भी बदलना नहीं चाहते क्योंकि हर तरह की सुख-सुविधा के कृत्रिमता के इतने आदि हो चुके हैं कि अब शुद्ध वातावरण हमें रास न आता । हम तो अपने ही बनाये प्रदूषित माहौल में रहना पसंद करते जहाँ तरह-तरह की आवाजों का शोर हैं तो कहीं धुआं तो कहीं गंदगी का फैला हुआ साम्राज्य जो हम लोगों को अनेक तरह की बीमारियों के अलावा न जाने कितने तरह की परेशानियाँ भी देता अब तो इसमें हमारे द्वारा इस्तेमाल किये गये विभिन्न यंत्रों का कचरा जिसे कि ‘ई-वेस्ट’ कहते वो भी शामिल होता जा रहा हैं जिसे मिटाया जाना संभव नहीं और जो हम सबके लिये अत्यंत हानिकारक हैं जबकि अभी हम सब ‘पॉलिथीन’ की समस्या से ही निज़ात नहीं पा सके ऐसे में इन ‘गेजेट्स’ का कचरा भी रक्तबीज की तरह बढ़ता ही जा रहा अतः अब हमें जल्द ही सचेत हो जाना चाहिये कि जो भी सुख के साधन हम इस्तेमाल कर रहे वो दरअसल एक तरह का धीमा जहर हैं जो आज हमें सुख देता प्रतीत होता लेकिन वास्तव में वो हमारी जान ही ले रहा हैं

विकास के इस चरम में अब हमारे आस-पास नये-नये खतरे पैदा हो रहे हैं जो कि नई-नई समस्याओं को जन्म दे रहे हैं ऐसे में जरूरी हैं कि हम अपनी हर तरह की समस्या के लिए प्राकृतिक समाधान ही तलाशे न कि अप्राकृतिक साधनों में खुद भी एक मशीन बन जाये अब तो हर एक नागरिक को एकजुट होकर अपनी शरणदायी ‘पृथ्वी’ को बचाने के हरसंभव प्रयास करने होंगे जिसमें हम सबको  चाहे वो प्रशासन हो या  कोई सामाजिक संगठ या कोई शैक्षणिक संस्थान सबको अपना दायित्व समझना होगा तब कहीं जाकर हम अपनी आने वाली पीढ़ी को एक स्वच्छ सुंदर खुशनुमा रोगरहित प्राकृतिक वातावरण और वो हर संपदा भी दे सकेंगे जिसका हमने रो भरपूर उपभोग किया लेकिन कोई इसके अभाव में ही मर गया क्योंकि हम कितनी भी प्रगति कर ले लेकिन खाने-पीने को आज भी हमें अनाज, फल, सब्जी और पानी ही चाहिये न कि मोबाइल या कंप्यूटर या अन्य कोई गेजेट्स ये सब सुविधा के साधन भी तभी अच्छे लगते जब आपका पेट भरा होता हैं इसलिये हमें इन झूठे छलावों के आगे अपने जीने के लिये निहायत जरूरी ऑक्सीजन को नहीं भूलना चाहिए जो कि मोबाइल से नहीं पेड़ों से ही मिलती और जब वहीँ न होगी तो बाकी चीजों का लुत्फ़ किस तरह उठाओगे तभी तो कहते ‘जान हैं तो जहान हैं’ ये नहीं कहते कि ‘गेजेट्स’ हैं तो जान हैं... जीवन जीने के लिये हम सब जिसका आश्रय लेते उसी प्रकृति को मिटाना बिल्कुल वैसा ही जैसे ‘जिस डाल पर बैठे उसे ही अपने हाथों से काटना’ और ज़ाहिर हैं उसके साथ हमारा भी अस्तित्व खत्म हो जायेगा तो फिर उसे बचाने की कोशिशें करें न कि उससे गाफ़िल रहकर मोबाइल पर ही उँगलियाँ चलते रह जाये और फिर एक दिन बीमारी से ग्रस्त होकर तमाम सुविधाओं को भोगकर चले जाये और हमारी आने वाली संतति हम पर गर्व करने की बजाय शर्म से हमको याद करें तो फिर चलो सब एक साथ मिलकर नन्हे-नन्हे रोपे लगाये... जिसके साये तले जीवनदायी ऑक्सीजन का पान कर दुनिया मुस्कुराये... और ‘पृथ्वी’ सबको अपने आंचल में छुपायें... आओ ऐसे  ‘विश्व पृथ्वी दिवस’ मनाये... करें प्राकृतिक भविष्य की मंगल कामनायें... :) :) :) !!!
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२२ अप्रैल २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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