सोमवार, 6 अप्रैल 2015

सुर-९४ : "देवी से सौंदर्य और अभिनय का तेज... 'सुचित्रा सेन' !!!"

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पवित्र सौंदर्य
एक देवी के समान
जगाता मन में सम्मान
...
जब भी निभाया
कोई किरदार लगा ऐसा
हमारे आस-पास हो कोई जैसा
...
भूला न कोई आज तलक
आवाज़ और अनुपम चेहरा उनका
अभिनेत्री 'सुचित्रा सेन' था नाम जिनका ।।
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मित्रों...,

‘देवदास’ नदी किनारे बंसी डालकर बैठा हैं कि तभी अचानक गगरी लिये पानी भरने ‘पारो’ वहां आती हैं और बाल सखा 'देवदास' से टकरा जाती हैं एकाएक उनके बीच वार्तालाप बिगड़ता हैं और गुस्से में आकर अभिमानी 'देव' उसके माथे पर ये कहते हुये बंशी मार देता हैं कि रूप का इतना अहंकार ठीक नहीं... चाँद पर भी दाग हैं और तुम बेदाग़ लाओ तुम्हारे इस परिपूर्ण चाँद जैसे चेहरे पर भी एक दाग बना दूँ... वही देवदास, पारो से किया वादा कि मरने से पहले वो उसके गाँव जरुर आयेगा, निभाने जब मरणासन्न अवस्था में पहुंचकर दम तोड़ता हैं तो जिस तरह ‘पारो’ को बेचैनी होती हैं और वो ये जानकार कि उसके दरवाजे पर दम तोड़ने वाला कोई और नहीं उसका अपना प्रियतम हैं... विकल होकर वो अपनी हवेली, परिवार, अपना मान-सम्मान सब छोड़कर भागती हैं पर, मुख्य द्वार पर रोक दी जाती हैं तो वही बेहोश होकर गिर जाती हैं...

'शरतचंद्र चट्टोपध्याय' का कालजयी सृजन 'देवदास' सिर्फ एक काल्पनिक उपन्यास हैं लेकिन इसने जनमानस में जिस तरह अपनी पैठ बना रखी हैं कोई भी इस किरदार को महज आभासी नहीं कह पाता क्योंकि कहीं न कहीं हर कोई अपने जीवन में कभी न कभी तो प्रेम की सुखद अनुभूति से गुजरता ही है । ये और बात हैं कि सबको वो हासिल नहीं होता फिर उनकी परणिती ‘देवदास’ जैसी होती इस तरह ये गढ़ा गया शब्दिक पात्र जीवंत हो गया और किवदंती बन गया जिस पर सहज ही विश्वास हो जाता... अब जरुर प्रेमी उससे सबक लेकर बेहद व्यावहारिक और सैधांतिक हो गये हैं लेकिन उसे भूल फिर भी न सके तभी तो इस पर सर्वाधिक फ़िल्में बनी लेकिन कहने में संकोच नहीं कि 'विमल रॉय' कृत ‘देवदास’ उस लेखन एवं स्वाभाविकता के जितने नजदीक हैं उतनी कोई और नहीं तभी तो ‘देवदास’ बोलो तो सिर्फ और सिर्फ अभिनय सम्राट 'दिलीप कुमार' का चेहरा ध्यान में आता जिस तरह डूबकर उन्होंने उसे आत्मसात किया वो उसके पर्याय बन गये और 'पारो' तो फिर 'सुचित्रा सेन' कोई दूसरी हुई ही नहीं जिसने ‘पारो’ को इस तरह रजत पर्दे पर साकार किया कि लगने लगा इसके सिवा कोई और ‘पारो’ हो ही नहीं सकती... हम ‘चंद्रमुखी’ का रोल अभिनीत करने वाली 'वैजयंती माला' को भी नज़रंदाज़ नहीं कर सकते जिन्होंने कि इस फिल्म के लिए सर्वोत्तम सहनायिका के पुरस्कार के लिये नामांकित किये जाने का विरोध किया था । ये था हिंदी सिने युग का वो दौर जब 'सिनेमा' पैयाँ-पैयाँ चलने लगा था और इस तरह के समर्पित कलाकार उसके कदमों में अपार जोश और सीने में साँसें भर रहे थे यही वजह हैं कि इसकी आधारशिला इतनी मजबूत हो गयी कि सौ साल गुजरने के बाद भी इमारत उतनी ही मजबूती से न सिर्फ खड़ी हैं बल्कि और दमदार भी होती जा रही हैं  ।

'टालीगंज' की 'सुचित्रा सेन' भी उस शुरूआती दौर में जब मुंबई आई तो उसने एक साथ ‘हिंदी’ और ‘बंगला’ सिनेमा को अपने अप्रतिम बंगाली रूप सौंदर्य के जादू से मंत्रमुग्ध कर दिया उस पर उनकी कशिश भरी दिल में उतरती आवाज़ और अलहदा संवाद अदायगी का अंदाज़ साथ अभिनय की सहजता सबने मिलकर हर किसी को अपना मुरीद बना लिया था कहते हैं बंगाल में तो देवियों की मूर्ति भी उनकी शक्ल के समान बनाई जाती थी ये आलम था उनके अप्रतिम मनमोहक रूप का । यूँ कहने तो उन्होंने यहाँ चंद फिल्मों में ही अभिनय किया पर सभी 'मील का पत्थर'  चाहे हो ‘देवदास’, ‘बंबई का बाबू’, ‘ममता’ और ‘आंधी’ केवल चंद फिल्म या किरदार नहीं बल्कि हिंदी सिनेमा का स्वर्णिम अध्याय हैं जो ये बताता कि अभिनय संख्या से नहीं भावों से नापा जाता और इस मापदंड पर उनके द्वारा निभाया गया हर एक पात्र इतनी विवधता और रंग लिये हुए हैं कि एक को ही दस के बराबर माने तो ये अनगिनत अलग-अलग भाव भंगिमा हैं जिसे देखने के बाद उसकी गहराई का पता लगता हैं । यदि हम सिर्फ ‘पारो’ को ही केंद्र में रखकर उनका आकलन करें तो भी उन्हें समझ सकते हैं... जब जब वो पर्दे पर आती तो रजत पटल भी उनके असाधारण व्यक्तित्व के आगे छोटा नजर आता ऐसा प्रभावशाली था उनका असली वजूद था जिसके सामने बड़े-बड़े निर्देशक भी अदब से सर झुकाकर खड़े होते थे उनसे पूछकर ही दृश्य और संवाद भी रखे जाते थे क्योंकि उनका कंठ स्वर भी अपनी ही तरह का एक अलग कोमलता लिये कान के रास्ते दिल में उतरता मखमली अहसास था तभी शायद वो बोलती भी कम थी कि कहीं वो आवाज़ इतनी सामान्य भी न हो जाये कि व्यक्ति सुन सुनकर बोर ही हो जाये । उनके चेहरे पर ऐसा सादगी भरा दैवीय सौन्दर्य का तेज था कि उन्हें देखकर मन में कोई विकार नहीं बल्कि श्रद्धा का भाव जगता उनमें मादकता या मांसलता होने के बाद भी भारतीयता का ऐसा असर था कि उन्हें देखकर भले ही कोई अपलक देखता रह जाये लेकिन उसके भीतर कामुकता नहीं जगेगी ये उस समय की अधिकांश अभिनेत्रियों की विशेषता थी तभी तो उस वक़्त ये ‘सेक्सी’ या ‘हॉट’ नहीं बल्कि भरतीय मानदंडों पर ही सुंदरता को परखने के बाद कोई ‘अभिनय की देवी’ तो कोई ‘दर्द की देवी’ या कोई ‘सौंदर्य की देवी’ आदि उपमाओं से नवाजी गयी जबकि आज अश्लील फूहड़ शब्दों से उनको न सिर्फ नवाज जाता बल्कि उसी नजरिये से उनको देखा जाता जबकि वो भी चाहे तो इसी तरह की अपनी छवि निर्मित कर सकती पर अब तो अभिनय की जगह इस बात की होड लगती कि कौन किस फिल्म में कितने कम कपड़े पहनकर कितने सेक्सी अवतार में नजर आयेगी ।

आप लोगों ने भी शायद इस बात पर गौर किया हो कि उस वक़्त कैमरा नायिकाओं के जिस्म की जगह उनके चेहरे पर अधिक फोकस किया जाता था इसलिये नहीं कि वे अधिक सुंदर थी क्योंकि सुन्दरता की तो अभी भी कोई कमी नहीं पर, उस समय अभिनय की प्रधानता थी तो चेहरे के मनोभावों को कैद करने की कोशिश की जाती थी अब जबकि तकनीक की मदद से हर कोई सुंदरतम दिखाया जा सकता तब भी विदेशी लोकेशन, हजारो सहनर्तक, भव्य सेट आदि का सहारा लेकर नायक या नायिका के चेहरे की बजाय उसके चीखने चिल्लाने या उसकी देह पर ही  कैमरा घूमता रहता । ‘सुचित्रा सेन’ इतनी अधिक सुंदर और सम्मोहक थी कि हर ‘एंगल’ से खुबसूरत नजर आती उनका ‘क्लोज अप’ प्रशंसकों को दीवाना बना देता तभी तो सबसे ज्यादा उनके चेहरे को अलग-अलग कोण से दिखाया जाता... उनका यही ‘फोटोजेनिक फेस’ उनका प्लस पॉइंट बन गया था इसलिये आपको उनके ‘क्लोजअप’ अधिक मिलेंगे । उन पर फिल्माये गाये गीत भी एक से बढ़कर एक जिसमें अभिनय का अद्भुत पैनापन.... तभी तो ‘ममता’ फिल्म में ‘छूपा लो यूँ दिल में प्यार मेरा कि जैसे मन्दिर में लौ दिये की’... या ‘रहते थे कभी जिनके दिल में हम जान से भी प्यारों की तरह... बैठे हैं उन्हीं के कुचे में हम आज गुनाहगारों की तरह...’ या ‘रहें न रहें हम महका करेंगे बनके कली बनके सबा बाग़ ए वफा में....’ और ‘आंधी’ फिल्म में ‘तुम आ गये हो नूर आ गया हैं...’, ‘तेरे बिना जिंदगी से शिकवा तो नहीं...’ तो  ‘बंबई का बाबू’ में ‘देखने में भोला हैं दिल का सलोना...’, ‘चल री सजनी अब क्या सोचे कजरा न बह जाये रोते-रोते...’ उफ़... गीत भी सारे अमर हो गये तो फिर किरदार किस तरह न जीवंत होते... आज उनके ‘जन्मदिवस’ पर उनको याद करते हुए उनके ही गीत ‘रहें न रहें हम महका करेंगे बन के कली बन के सबा बाग़ ए वफा में... जब हम न होंगे तब हमारी ख़ाक पर तुम रुकोगे चलते-चलते... अश्कों से भींगी चांदनी में एक सदा सी सुनोगे चलते चलते... वही पे कहीं हम तुमसे मिलेंगे बन के कली बन के सबा.... सच... अब कली में ही बस गया नाज़ुक-सा वो अक्स उनका... जो कभी एक झलक पर देखने वाले को अपना दीवाना बना देता था... अब तो यहीं ढूंढना हैं ‘सुचित्रा सेन’ को जो कली या सबा बनकर अभिनय जगत की फिजाओं में महक रही हैं और सदैव इसी तरह अपने अद्भुत पाकीज़ा हुस्न से हमको मदहोश करती रहेगी... :) :) :) !!!
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०६ अप्रैल २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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