रविवार, 12 अप्रैल 2015

सुर-१०१ : "लघुकथा : कालचक्र !!!"


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मित्रों...,

रात होते ही चट्टानों में उभरे अक्स आपस में बात करने लगे... जब हम यहाँ नहीं बल्कि इंसानों की तरह उस दुनिया में थे तो... किसी ने भी जीते-जी हमें न तो समझा, न ही वो हमें पहचान सके और अब ढालकर शिलाओं में हमारी आकृति ख़ुद को गौरवान्वित महसूस करते... सारी दुनिया को बताते कि अमुक हमारे देश में पैदा हुआ हमारी आन-बान-शान हैं जबकि उन्होंने कभी न तो किसी ‘पैगंबर’, न ही किसी ‘अवतार’ या ‘मसीहा’ को ही जीते जी उसका वो मकाम दिया जिसका वो हकदार था लेकिन जब बाद में उसकी कही गयी बातों की व्याख्या की, उसके गूढ़ार्थ समझ लिये तो उसकी ही मूर्ति बना उसे पूजने लगे

अब जब हम पाषाण प्रतिमा बन गये तो ये रहस्य समझ पा रहे कि मिट्टी से बना ‘मानव’ प्राण प्रतिष्ठा होते ही अपनी असलियत भूल जाता इसलिये सभी जीवित को अपने समान समझ उसे हेय दृष्टि से देखता पर, उसके मृतक होते ही उसे अपने से श्रेष्ठ समझने लगता काश, भगवान ने सबको ‘माटी का पुतला’ ही बने रहने दिया होता तो ये संसार कितना अच्छा होता न, जैसा कि अब हम सब साथ रहकर शांति महसूस करते वैसा ही तब करते और इसके लिये इतना लंबा सफ़र या इंतजार भी तो नहीं करना पड़ता न... तभी, एक बड़ा धमाका हुआ और चट्टानें चूर-चूर होकर बिखरकर मिट्टी में मिल गयी और कुछ दिनों बाद उसी मिट्टी से सृष्टि रचयिता कुछ नवीन मानवों का सृजन कर रहे थे     
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१२ अप्रैल २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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