शुक्रवार, 24 अप्रैल 2015

सुर-११३ : "दिल श्मशान हैं... जलते अरमान हैं....!!!"


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मित्रों...,

रचयिता ने पंचतत्वों से जो काया बनाई उसमें न जाने कितने सारे अंग-प्रत्यंग, हिस्से, हड्डियाँ, जोड़, कर्मेन्द्रियाँ, ज्ञानेन्द्रियाँ और तंत्र बना दिये... बस, फिर प्राण फूंकने की देर थी कि वो सभी चलायमान हो गये और इस तरह सृष्टि के समस्त जीवित प्राणी अपने आप में सक्षम होकर अलग-अलग जीने लगे अपनी प्रजाति को आगे बढ़ाने लगे... इन छतीस करोड़ योनियों में सिर्फ 'मनुष्य' को ही सर्वश्रेष्ठ कृति का ख़िताब हासिल हुआ क्योंकि उसे अपने सृजनकर्ता के द्वारा उन समस्त शारीरिक उपलब्धियों के अलावा मस्तिष्क के साथ बुद्धिमता का अतिरिक्त उपहार भी प्रदान किया गया जिसकी वजह से वो अपने से भी अधिक शक्तिशाली और हुनरमंद जानवरों को भी न सिर्फ अपने काबू में कर सका वरन उन पर शासन भी करने लगा लेकिन यही मानव अपने सीने में बंद छोटे-से मुट्ठी भर दिल के आगे मजबूर हो जाता जिसका काम केवल रगों में दौड़ने वाले रक्त को शुद्ध कर पम्पिंग करना हैं पर, इसके अलावा वो सारे अहसासों, मनोभावों और अनुभूतियों का भी तो जनक और सरंक्षक भी हैं ।

ये भावनायें या विचार सब इस नाज़ुक दो हिस्सों में विभाजित 'हृदय' नामक अन्तःस्थल में स्वतः ही पैदा होते और जिसका खुद पर नियंत्रण न होता उसके मालिक बन जाते फिर मदारी की तरह उस आदमी को बंदर जैसे अपने इच्छाओं की डुगडुगी पर मनचाहा नचाते । उफ़... आँख के साथ ही स्वप्न का वरदान या अभिशाप जो भी कहें वो भी तो मिला तभी तो उसने सोये-जागते हर घड़ी, हर पल कोई न कोई ख्वाब कभी उस पर्दे पर सजाया तो कभी चलचित्र के समान उसे सजीव होते देखा पर, जब नयन खुले तो वो स्वप्नलोक अदृश्य हो गया पर, देखने वाले को अपना दीवाना बना गया जिसमें जूनून की हद तक उसे पूरा करने का जज्बा था उन्होंने उसे साकार कर लिया लेकिन कुछ शेखचिल्ली की तरह केवल उनका दीदार और फिर बखान करते रह जाते हैं ।

ये आरजूयें, तमन्नायें या ख्वाहिशें या कल्पनाये या जो भी इनको नाम दिया जाये सब दिल नामक नन्हे से कोने में पैदा होती हैं और वहीँ उनकी सारी दुनिया होता अतः वे वही जन्मती, पलती, बड़ी होती और खुद को मुकम्मल करने की भागा दौड़ी में लग जाती... कुछ ही पूरी हो पाती तो वो उस अँधेरी काल्पनिक दुनिया से निकलकर वास्तविक जगत का हिस्सा बन जाती... कुछ बेहद उग्र और हिंसक होती जो खुद पूरी न होने पर उस सुंदर रचनात्मक लोक को ही खत्म कर देती... कुछ इतनी बलवती होती कि दुनिया से टकरा जाती और खुद को पूरा कर लेती लेकिन कुछ अभागी, शापित अपूर्ण अंदर ही सड जाती बदबू मारने लगती... और कुछ ऐसी भी होती जो इस बनावटी दुनिया, खोखले समाज, घुटन भरे पारिवारिक माहौल और कठोर रस्मों रिवाज के आगे घुटने टेक देती और पूरा न हो पाने की पीड़ा सहते-सहते घुट-घुटकर भीतर ही मर जाती सबसे ज्यादा यही आदमी को भी सालती उसके अंदर जीने की इच्छा को भी खत्म कर देती... फिर अंततः उसी दिल के साथ भस्मीभूत होकर ख़ाक हो जाती ऐसे में यही कहना ज्यादा उचित प्रतीत होता कि दिल एक श्मशान हैं... जिसमें जलते अरमान हैं... :( :( :( !!!
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२४ अप्रैल २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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