मंगलवार, 21 अप्रैल 2015

सुर-११० : "भगवान परशुराम... गूंजता एक अक्षय नाम...!!!"

बढ़ता
जब भी धरा पर
पाप और अत्याचार
खत्म करने उसे आते अवतार
‘सतयुग’ में जन्में जो और...
‘कलयुग’ तक हैं अक्षय जिनका नाम
वो तो हैं ‘भगवान परशुराम’...!!!
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मित्रों...,

हमारे धर्मशास्त्रों में ‘वैशाख’ माह का अपना ही धार्मिक महत्व हैं और इस महीने के शुक्लपक्ष  की तीज तिथि जिसे कि ‘अक्षय तृतीया’ कहा जाता हैं वो अमोघ हैं क्योंकि इस दिन किया गया जप, तप, हवन या कोई भी काम ‘अक्षय’ होता हैं अर्थात इसका पुण्य कभी भी समाप्त नहीं होता और इस वजह से इस दिवस को ये अमरता प्राप्त हुई हैं साथ ही ‘सतयुग’ के अंतिम चरण में ‘भगवान परशुराम’ के इस दिन अवतार लेने के कारण भी जो कि ‘त्रेतायुग’, ‘द्वापर’ युग से लेकर ‘कलयुग’ तक चिरजीवी हैं अतः आज तलक भी उनका नाम उसी तरह कण-कण में विद्यमान हैं तथा उनकी गाथा के साथ इतनी सारी विचित्रतायें जुडी हुई हैं कि उनकी कथा पढ़कर लगता जैसे किसी रहस्यमय शक्तियों वाले किसी ‘सुपर हीरो’ की अद्भुत कहानी पढ़ रहे हो क्योंकि जन्म से लेकर उम्र के हर पड़ाव पर कोई न कोई अलौकिक घटना जुडी हुई हैं तभी शायद आज भी हम उनकी जयंती मनाते हुये उनकी अदृश्य उपस्थिति को महसूस करते हैं हमारे देश के सभी युवाओं को अपने इस वास्तविक चरित्र की अमर कथा न सिर्फ याद होनी चाहिये बल्कि उससे शिक्षा लेते हुये सबको बताना भी चाहिये कि किस तरह एक ब्राह्मण पुत्र ‘राम’ अपने कर्मों से शस्त्र-शास्त्रों का ज्ञाता ‘परशुराम’ बन जाता हैं तो आज उनके जीवन से जुड़े इन रहस्यों पर ही प्रकाश डालने का प्रयास किया हैं---

रहस्य-०१ : जन्म से ब्राह्मण... कर्म से क्षत्रिय... क्यों ???
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‘भृगु कुल’ में जन्मे जगतपालक लक्ष्मीपति भगवान विष्णु के आवेशावतार माने जाने वाले बालक ‘राम’ जो कि अपने तेजस्वी पिता ऋषि ‘जमदग्नि’ और माँ ‘रेणुका’ के गर्भ से ब्राम्हण वंश में अवतरित होने के कारण जन्म से तो ब्राम्हण थे लेकिन कर्म से क्षत्रिय इसकी एक बड़ी सुंदर कथा पुराणों में आती हैं कि इनकी दादी ‘सत्यवती’ ने अपने ससुर ‘भृगु’ से अपने और अपनी माता के लिये ‘पुत्र रत्न’ का वरदान माँगा था जिसको पूर्ण करने हेतु उन्होंने उन दोनों को प्रसाद रूपी 'चरु' खाने के लिये देते हुये निर्देशित किया कि ऋतुकाल के पश्चात् स्नान करके ‘सत्यवती’ ‘गूलर’ के पेड और उसकी माता ‘पीपल’ के पेड़ का आलिंगन करे तो दोनों को ही पुत्र प्राप्त होंगे परंतु उन दोनों माँ-बेटी से ‘चरु’ खाने में गलती हो गयी और उन्होंने एक दुसरे के लिये दिए गये प्रसाद का भक्षण कर लिया परंतु दिव्य दृष्टि से उनके ससुर ऋषि ‘भृगु’ को इस बात का ज्ञान हो गया तो वे पुनः आश्रम आये और तथा उन्होंने ‘सत्यवती’ से कहा कि तुम्हारा बेटा ‘ब्राह्मण’ होकर भी ‘क्षत्रियो’ के समान व्यवहार करने वाला होगा जबकि तुम्हारी माता का पुत्र ‘क्षत्रिय’ होकर भी ‘ब्राह्मण’ की तरह आचार-विचार करने वाला होगा जिसे सुनकर ‘सत्यवती’ घबरा गयी और उनसे करबद्ध प्रार्थना की तो वे द्रवित हो गये और बोले कि तुम्हारा पुत्र तो ‘ब्राह्मण’ ही रहेगा लेकिन ‘पोता’ क्षत्रियों की तरह कार्य करने वाला होगा और इस तरह इस कथा से उनके जन्म और कर्म में भिन्नता का कारण विदित होता हैं जिसका रहस्य उनकी दादी माँ की कथा में छुपा हुआ हैं ।

रहस्य-०२ : मातृभक्त परशुराम ने अपनी माँ ‘रेणुका देवी’ का वध क्यों किया ???
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हम सबने ही अपने बाल्यकाल में ये पढ़ा और सुना हैं कि भगवान परशुराम ने अपनी पिता ‘ऋषि जमदग्नि’ की आज्ञा होने पर अपनी ही माँ ‘रेणुका देवी’ का ‘परशु’ से सर काट दिया था लेकिन उन्होंने ऐसा सिर्फ पितृ ऋण चुकाने या पिता के आज्ञाकारी होने मात्र से ही नहीं किया बल्कि इसकी भी एक रोचक कहानी हैं ‘परशुराम’ अपने माता-पिता की इकलौती संतान नहीं थे बल्कि उनके चार और बड़े भाई भी थे एक दिन रोज की भांति जब सब सब भाई फल-फूल लेने के लिए वन को चले गए तो उनकी माँ ‘रेणुका’ भी जल लेने को नदी पर चली गई और जब वे स्नान पश्चात् वापस अपने आश्रम को आ रही थी तो उन्होंने राह में ‘गंधर्व चित्ररथ’ को अप्सराओं के साथ जलक्रीड़ा करते देखा और उसे देखने में ‘रेणुका’ इतनी तन्मय हो गयी कि जल लाने में विलंब हो गया तथा यज्ञ का समय व्यतीत हो गया । जब वे लौटकर आश्रम में आई तो उनके पति ‘महर्षि जमदग्नि’ ने अपनी दिव्य शक्ति से उनके अंतर्मन की ये बात जान ली थी इसलिये जब एक-एक उनके बड़े पुत्र ‘रुक्मवान’, ‘सुषेणु’, ‘वसु’ और ‘विश्वावसु’ लौटकर आये तो उन्होंने सभी से बारी-बारी अपनी मां का वध करने को कहा लेकिन प्रेमवश कोई भी ऐसा नहीं कर पाया जिससे मुनि ने उन सबको श्राप दे दिया कि उनकी सोचने समझने की शक्ति नष्ट जाये फिर जब  कुछ देर बाद वहां ‘परशुराम’ आये तो पिता ने उनसे भी ऐसा ही करने को कहा और उन्होंने बिना किसी सवाल-जवाब के उनके आदेश का पालन करते हुये अपनी ही मां का वध कर दिया जिसकी वजह से ‘महर्षि जमदग्नि’ अत्यंत खुश हुये और उनसे वर मांगने को कहा तो ‘परशुराम’ ने अपने पिता से माता रेणुका को पुनर्जीवित करने और चारों भाइयों को ठीक करने का वरदान मांगा साथ ही इस बात का किसी को याद न रहने और अजेय होने का वरदान भी मांगा तथा महर्षि जमदग्नि ने उनकी सभी मनोकामनाएं पूरी कर दीं ।

रहस्य-०३ : क्यों भगवान परशुराम ने इक्कीस बार किया क्षत्रियों का संहार ???
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हम सब ये तो जान गये कि किस तरह ‘राम’ ने एक महर्षि के यहाँ जन्म तो लिया लेकिन केवल तपस्या या पूजन में ही अपना सारा जीवन समर्पित करने की जगह एक क्षत्रिय की तरह युद्ध भी किये और इन्हें क्रोध भी बड़ी आसानी से आ जाता था क्योंकि ये भगवान ‘विष्णु’ के आवेशावतार माने जाते हैं और उनके इस धरती को २१ बार क्षत्रियविहीन करने की शपथ लेने के पीछे भी पुराणों में एक बड़ी ही अलग सी कहानी का उल्लेख मिलता हैं उस काल में ‘महिष्मती नगर’ में क्षत्रिय समाज के हैहय वंश के राजा राजा कार्तवीर्य और रानी कौशिक के पुत्र ‘अर्जुन’ का राज था जिन्होंने अपनी कठोर तपस्या से ‘दत्तात्रेय’ को प्रसन्न कर दस हजार हाथों का आशीर्वाद प्राप्त किया जिसकी वजह से उसका नाम ‘अर्जुन’ से ‘सहस्त्रार्जुन’ हो गया जिसने  उसके भीतर बेहद अहंकार भर दिया और उसने प्रजा पर अत्याचार करना शुरू कर दिये और उसी घमंड में एक दिन वो अपनी पूरी सेना के साथ ‘महर्षि जमदग्नि’ के आश्रम पहुंचा और उन्होंने अपने तपोबल से ‘देवराज इन्द्र’ से वरदान स्वरूप पायी चमत्कारी ‘कामधेनु’ गाय की मदद से कुछ ही पलों में देखते ही देखते पूरी सेना के भोजन का प्रबंध कर दिया और  ‘कामधेनु’ के ऐसे विलक्षण गुणों को देखकर उसके मन में ऐसी अद्भुत गाय को पाने की लालसा जागी तो उसने ‘ऋषि जमदग्नि’ से उसे मांगा किंतु उन्होंने इंकार कर दिया क्योंकि उसी से उनके आश्रम के सभी शिष्यों का भरण-पोषण होता था जिससे ‘सहस्त्रार्जुन’ ने क्रोधित होकर उनके आश्रम को उजाड़ दिया और कामधेनु को ले जाने लगा पर वो उसके हाथों से छूट कर स्वर्ग की ओर चली गई ।

जब परशुराम अपने आश्रम पहुंचे तब उनकी माता रेणुका ने उन्हें सारी बातें बताई जिसे सुनकर और आश्रम की दशा देखकर उनके गुस्से बेकाबू हो गया वे अपने ‘परशु’ अस्त्र सहित  ‘महिष्मतिपुरी’ पहुंचे  जहां सहस्त्रार्जुन और परशुराम का युद्ध हुआ और भगवान परशुराम ने दुष्ट सहस्त्रार्जुन की हजारों भुजाएं और धड़ परशु से काटकर कर उसका वध कर दिया । ‘सहस्त्रार्जुन’ के वध के बाद पिता के आदेश से इस वध का प्रायश्चित करने के लिए परशुराम तीर्थ यात्रा पर चले गए तब मौका पाकर सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने अपने सहयोगी क्षत्रियों की मदद से तपस्यारत ‘महर्षि जमदग्रि’ का उनके ही आश्रम में सिर काटकर उनका वध कर दिया और आश्रम के सभी ऋषियों का वध करते हुए, आश्रम को जला डाला तब  माता ‘रेणुका’ ने सहायतावश पुत्र ‘परशुराम’ को पुकारा तो ‘परशुराम’ माता की पुकार सुनकर आश्रम पहुंचे और माता को विलाप करते देखा और माता के समीप ही पिता का कटा सिर और उनके शरीर पर लगे 21 घाव भी देखे यह देखकर ‘परशुराम’ बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने शपथ ली कि वह ‘हैहय वंश’ का ही सर्वनाश नहीं कर देंगे बल्कि उसके सहयोगी समस्त क्षत्रिय वंशों का २१ बार संहार कर भूमि को क्षत्रिय विहिन कर देंगे पुराणों में उल्लेख है कि ‘भगवान परशुराम’ ने अपने इस संकल्प को पूरा भी किया ।

ये महादेव के भक्त थे और उन्हें अपनी तपस्या से प्रसन्न कर उन्होंने एक अमोघास्त्र ‘परशु’ प्राप्त किया और इसे धारण करने से ये ‘परशुराम’ कहलाये तथा इन्हें ‘विष्णु’ के दशावतारों में छठवां माना गया हैं  जिसे ‘वामन’ एवं ‘रामचन्द्र’ के के मध्य रखा जाता हैं और ‘महर्षि जमदग्नि’ के पुत्र होने के कारण ये 'जामदग्न्य' भी कहलाते हैं आज ही के दिन ‘अक्षय तृतीया’  को इनका जन्म हुआ था अत: इस दिन व्रत कर इस उत्सव को मनाया जाता हैं... तो सभी मित्रगणों को इस पावन अवसर की मंगलकामनायें... :) :) :) !!!
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२१ अप्रैल २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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