गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

सुर-९० : "काव्य श्रृंखला... द्वितीय दिवस...!!!"


“काव्य रचना श्रृंखला :  ‘दूसरा दिन... दूसरी रचना..."
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मित्रों...,

अपनी सखी द्वारा थमायी गयी ‘काव्य डोर’ को किसी और के हाथों में सौंपने के साथ ही मैं आज ‘छंदमुक्त विधा’ में अपनी अभिव्यक्ति प्रस्तुत करते हुये अपनी इस श्रृंखला को आगे बढ़ाती हूँ... कि जिसने भी इस अभियान की शुरुआत की हैं उसका ये आयोजन सफलता के सोपान चढ़ते हुये अपनी उस मंजिल को प्राप्त हो जिस उद्देश्य के लिये इसे प्रारंभ किया गया हैं...

तो आज ‘स्वामी महावीर जयंती’ के शुभ अवसर पर मेरी रचना उन महान आत्मा को ही समर्पित हैं जिन्होंने इस देश की पावन भूमि पर अवतरित होकर हम सबको सत्य, अहिंसा का वही मार्ग दिखाया जिस पर चलकर हर कोई अपना जीवन सार्थक कर सकता हैं... हमेशा ही ‘वैराग्य’ ने अपनी पैदाइश के लिये सुख ऐश्वर्य से परिपूर्ण ‘राजमहल’ को ही चुना क्योंकि त्याग के लिये दामन का भरा और मन का संतुष्ट होना बेहद जरूरी होता हैं... इसलिये तो जब इतनी सारी सुख-सुविधाओं सागर में डूबे हुये वे कमल के पत्ते की तरह रहते हुये इनमें लिप्त न होते और धुल की तरह इन्हें अपने लिबास से झटकते हुये मौन सत्य के पथ पर चल देते तो सारा ब्रम्हांड उनके आगे नतमस्तक हो जाता... आकाश से देवता पुष्पों की वर्षा करते और उनके भक्तगण उनके चरणों में लोट जाते... और उनकी दिव्य वाणी से निकले उपदेशक वचनों से प्रजा सारी धन्य होकर उनका अनुशरण करती...

ऐसी ही दिव्यात्मा ‘वर्धमान’ के श्रीचरणों में श्रद्धा के ये शब्द सुमन अर्पित करती हूँ...     
   
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चैत्र माह
शुक्ल पक्ष
तिथि त्रयोदशी
वर्ष ईसा से ५९९ पूर्व
भारत की पुण्य धरा पर
बिहार प्रदेश के कुंडलपुर प्रांत में
लिच्छिवी वंश का था शासन
जिसके ऐश्वर्यशाली महाराज थे...
'श्री सिद्धार्थ' और महारानी थी 'त्रिशला देवी'
ऐसे वैभवशाली राजमहल में जन्मा था वैराग्य
लिया था अहिंसाने मानवीय अवतार ।
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जिसे प्यार से
नाम दिया था वर्धमान
कि आने से उसके बढ़ गयी थी
राज्य की वैभव और संपन्नता
आया था वो लेकर मानवता का संदेश
कठोर तप और अथक साधना से
जीत के अपनी सारी इंद्रियां कहलाये जिन
देखकर उनका कठिन पराक्रम
मिला था उनको नाम नया स्वामी महावीर
इस तरह वो बने जैन धर्मके चौबीसवें तीर्थंकर ।
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हिंसा हर तरह की
चाहे हो मनसा वाचा कर्मणा ही
बनाती वो हमको हिंसक
तो करो न कभी कोई ऐसा कर्म
मानो केवल अहिंसा’ को ही परम धर्म
कहते रहे वो सबसे यही आजीवन
अपनाओ पंचशील का मार्ग
सत्य, अहिंसा, क्षमा, अस्तेय, अपरिग्रह  
उनकी जयंती जब-जब आती
हम सबको ये याद दिलाती
कि भूले न हम कभी भी इंसानियत
हर एक से हो हमारा भाईचारे का सच्चा नाता ॥
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इसके साथ ही आज मैं इस सूत्र को अपने एक मित्र 'अविनाश बागडेजी' को थमाती हूँ... इस उम्मीद और विश्वास के साथ कि वो अगले चार दिन तक किसी भी विधा में अपनी कलम से कमाल करते हुये इसी तरह प्रतिदिन किसी एक कलमकार को नामांकित करते हुये कविता के इस ‘अश्वमेध’ के लिये आगे की राह प्रशस्त करेंगे... :) :) :) !!!
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०२ अप्रैल २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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