गुरुवार, 23 अप्रैल 2015

सुर-११२ : "विश्व पुस्तक एवं कॉपीराइट दिवस... फिर ले जाते हमें किताबों के निकट...!!!"

जब
कोई भी
न था साथ मेरे
तो हाथ में थामी थी
‘किताब’
...
जिसने
किया न कभी
तन्हां मुझे
दिया जीवन भर
‘बेहिसाब’...
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मित्रों...,

कहते हैं किताबों से अच्छा 'मित्र' कोई नहीं होता अतः जिसका इस दुनिया में कोई भी नहीं यदि वो केवल इनसे ही अपना नाता जोड़ ले तो ये उसे कभी निराश नहीं करती, न ही कभी किसी हाल में उसका साथ छोडती या उसे अकेलेपन का अहसास होने देती बल्कि ये तो यदि पाठक सजग और सतर्क हैं तो उसके लिये स्वर्णिम भविष्य के द्वार भी खोल देती हैं क्योंकि इनके भीतर तो व्यक्तित्व निर्माण से लेकर आपके रोज़गार चुनने और उसे स्थापित करने तक की  अभूतपूर्व जानकारी भरी होती जिसे कि आपको ही सावधानी से चुनना पड़ता हैं I तभी तो ये माना जाता हैं कि पढ़ा गया कभी व्यर्थ नहीं जाता कभी न कभी, कहीं न कहीं वो काम आ ही जाता हैं इसलिये हमें हमेशा कुछ न कुछ पढ़ते रहना चाहिये लेकिन बहुत से लोगों को तो ये भी नहीं पता कि उन्हें किस तरह की किताबों का अध्ययन करना चाहिये क्योंकि हमारे पाठ्यक्रम की पुस्तकों को पढ़ना तो हम अपना दायित्व मात्र मानते हैं अतः उसे उस तरह गंभीरता से नहीं लेते जिससे कि उनको खेल की तरह खेलते-खेलते उनसे अपने स्वप्नों को साकार करने का मार्ग ढूंढ पाये क्योंकि हर कोई तयशुदा ढर्रे पर चलकर उन ही क्षेत्रों में अपना आने वाला कल देखता जहाँ बाकी साथी जा रहे हैं I इसलिये हर कोई विषय को समझकर या रटकर उसके साथ कदमताल करता लेकिन ये नहीं सोचता कि जरूरी तो नहीं कि सभी विषयों में हमारी रूचि भी हो अतः पढ़ाई के दौरान ही हमें ये भी समझना चाहिये कि किस विशेष विषय को पढ़ने में हमें आनंद आता हैं तब उसे गहराई से जानने और उसमें विशेषज्ञता हासिल करने हेतु उस पर लिखी अन्य जाने-माने लेखकों की किताबों का भी अध्ययन कर फिर अपनी राय बनानी चाहिये जिससे हम उसके बारे में विश्वासपूर्वक न सिर्फ़ अपना मत प्रकट कर सकते हैं बल्कि यदि अधिक रूचि पैदा होती हैं तो उसमें कोई नया शोध भी कर सकते हैं I इस तरह स्कूली जीवन से ही अपने पसंदीदा विषय के साथ-साथ ख़ुशी-ख़ुशी पढ़ते-पढ़ते उसे अपना कैरियर भी बना सकते हैं और उसमें दक्षता हासिल कर उसके विशेषज्ञ भी बन सकते हैं जो बड़ी आसानी से किया जा सकता हैं क्योंकि जब तक बचपन से ही हमारा रुझान इस दिशा में नहीं होता तो बाद में प्रयास करने पर भी हम खुद को उसके लिये आसानी से तैयार नहीं कर पाते यही वजह हैं कि हमारे यहाँ विद्यालयों में छात्र-छात्राओं को पढ़ना एक बोझिल कार्य लगता क्योंकि वो उसे केवल मजबूरी समझ करते या फिर प्रतिस्पर्धा में आगे निकलने की होड़ में लग जाते लेकिन चंद ऐसे होते जो उसमें रस लेते और वहीँ लोग उस क्षेत्र में कुछ अनूठा कर पाते हैं जिसकी नींव उनके बचपन में ही पड़ गयी थी इसलिये साल-दर-साल ज्ञान की इंटों से वो ईमारत इतनी मजबूत हो गयी कि लोग उनसे सलाह लेने लगे क्योंकि वे उसके बड़े ज्ञानी जो बन चुके थे I

आज जबकि हम तकनीकी रूप से भी बहुत अधिक समृद्ध हो चुके हैं तो हमारे लिये ज्ञानार्जन भी बेहद आसान हो गया हैं क्योंकि अब तो सब कुछ हमारे 'कंप्यूटर' या 'मोबाइल' में उपलब्ध हैं लेकिन कितने लोग हैं जिनको वास्तव में कोई ज्ञान हैं क्योंकि जब भी किसी से कोई सवाल करो तो वो झट 'गूगल महाराज' की शरण में चला जाता आज के युवा वर्ग का एकमात्र दोस्त, सहयोगी, मार्गदर्शक और हर सवाल का जवाब केवल 'गूगल' हैं I लेकिन कभी आपने ये सोचा कि आज हम लोग जो भी 'ज्ञान' या 'जानकारी' महज चंद बटन दबाकर, चंद ही पल में अपने ,कंप्यूटर' या 'मोबाइल' पर प्राप्त कर रहें दरअसल वो भी तो किसी के द्वारा लिखा गया या किसी का अपना अनुभवों या प्रयोगों से अर्जित ज्ञान हैं जो उसने स्वयं या किसी और ने वहां साँझा किया हैं और यदि कोई किसी विषय से संबंधित कोई ख़ास जानकरी वहां पर न रखे तो हम उसे पढने से वंचित रह जायेंगे तो ऐसी स्थिति में हमें और ज्यादा गंभीरता से पुस्तकों का महत्व समझना चाहिये कि आज जो भी 'इन्टनेट' के माध्यम से हमें मिल रहा हैं वो वास्तव में विद्वानों का कलम से रचा गया और बड़ी ही मेहनत से लिखा गया 'अक्षत ज्ञानकोष' हैं जिसका उपयोग कर हम लोग खुद को ऐसे ज्ञानी बताते जैसे कि हमने खुद ही उसे खोजा हैं I हमारी यंत्रो पर निर्भरता दिनों दिन बढती ही जा रही जिसने कई सारी समस्याओं, बीमारियों के अलावा हमारी 'स्मृति' को भी प्रभावित किया हैं जिसकी वजह से अब हमें कुछ भी याद नहीं रहता यहाँ तक कि सुबह किस मेसेज को पढ़कर हंस रहे थे कोई पूछे तो याद नहीं आता, अपने रिश्तेदारों के फोन नंबर तो छोड़ो हमें तो कई बार अपना खुद का ही मोबाइल नम्बर याद नहीं आता I फिर भी हम इतने गाफ़िल हैं अपने आप में अपनी इस 'स्मार्ट दुनिया' में कि हमें भान ही नहीं कि 'मोबाइल' तो स्मार्ट हो गया लेकिन हम तो अब भी 'अज्ञानी' हैं यदि ऐसा नहीं हैं तो सिर्फ़ एक दिन उसके बिना गुज़ारे बहुत बड़ी बात हो गयी न... जो व्यक्ति एक घंटे भी उसके बिना नहीं रह सकता उससे २४ घंटे उसके बिना रहने की कहना ज्यादती ही होगा लेकिन यदि हम इस तरह के छोटे-छोटे प्रयोग करें तो पाते हैं कि थोड़ा-सा हम कृत्रिमता से बाहर आकर जानते कि इसके नशे में चूर होकर हमने क्या खो दिया I इसकी संगत में हमारी अनमोल सेहत चोपट हो रही, प्रकृति और अपनों से दूरी हर पल बढती जा रही, हमारे अंगों में थकावट का अहसास हमें इंगित कर रहा पर हम ही उसे नजरअंदाज़ कर रहे, हमारी पल-पल भूलने की आदत ने हमें मजाक का पात्र बना दिया, यार दोस्तों से आमने-सामने बैठकर बतियाना अच्छा नहीं लगताबाहर घुमने जाना का मन नहीं करता, अपनी प्रिय किताबों को पढ़ने की तो सोचते ही नहीं उन पर धुल बढती जा रही, अपने पालतू पशुओं के साथ खेलने का समय नहीं, बच्चों संग मस्ती करना बच्चे बन जाना लुभाता नहीं... ये सब बातें हमें धीरे-धीरे इंसान से मशीन बनाती जा रही हैं जहाँ 'सामाजिकता' का पर्याय 'सोशल नेटवर्किंग', तन्हाई का मतलब बेट्री खत्म हो जाना, ‘गेदरिंग’ बोले तो ‘ग्रुप’ बना लेना, पढ़ना बोले तो ‘मेसेज’ को ‘रीड’ करना हो गया, ज्ञान बांटना याने कि किसी के भी संदेश को ‘फोरवर्ड’ कर देना... टोटली अपनी शख्सियत को यांत्रिक बना देना हैं I

जब विदेशों में तकनीक की वजह से लोगों में पागलपन के लक्षण, असाध्य बीमारियाँ और आत्महत्या की घटनायें बढ़ने लगी तो 'संयुक्त राष्ट्र संघ' के एक सामजिक संगठन 'यूनेस्को' जिसका कार्य ही शिक्षा, प्रकृति तथा समाज विज्ञान, संस्कृति तथा संचार के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय शांति तथा समझबूझ को बढ़ावा देना है और जिसकी स्थापना के पीछे ये आदर्श वाक्य छिपा हैं कि --- “चूंकि युद्ध लोगों के मस्तिष्क में उत्पन्न होते हैं, इसलिए मनुष्य के मस्तिष्क में ही शांति की रक्षा का सृजन होना चाहिए” ने अपना नैतिक दायित्व मानते हुये वर्ष १९९५ से २३ अप्रैल को 'विश्व पुस्तक एवं कॉपीराइट दिवस' के रूप में मनाने का निर्णय लिया ताकि हाड़-मांस से बने इंसान को पुनः 'मशीन' से 'मानव' में तब्दील किया जा सके उसकी जड़ों से उसका परिचय करवाया जा सके जिसके लिये किताबों से बढ़कर और कोई साधन नहीं क्योंकि इनके स्पर्श मात्र से आत्मा को एक सुकून मिलता हैं और शब्दों की शक्ति तो हैं ही अपराजेय जो ब्रम्हांड में भौतिक देह के मिट जाने के बाद भी गूंजती रहती तभी तो लेखन या सृजन कभी नहीं मरता केवल उसकी रचना करने वाला ही दुनिया से चला जाता लेकिन अपने कृतित्व के रूप में वो सदैव उपस्थित रहता तभी तो आज भी हम उन महान साहित्यकारों को भूल नहीं सकें जिन्होंने 'कलम' को औज़ार बनाकर अपना सारा जीवन रचनात्मक कृति को गढ़ने में समर्पित कर दिया इस दिन के साथ हम सब उनका भी स्मरण कर सकते जिनकी लिखी किताबों को पढ़कर आज हम इस स्थान तक पहुंचे हैं तथा अपनी सभी उन प्रिय पुस्तकों का भी अवलोकन करें जिन्होंने हमें काल्पनिक और वास्तविक दुनिया का फर्क समझाया, थोड़ा-सा समझदार और जागरूक बनाया तभी तो हमने '' से सिर्फ़ 'अनार' नहीं 'असीमित' जाना और खुद से हर चीज़ को जान-समझकर अपनी परिभाषायें लिखी तब तो हम विश्वासपूर्वक तर्क कर सकें नहीं तो महज किताबी ज्ञान में उलझकर रह जाते

'विश्व पुस्तक एवं कॉपीराइट दिवस' का मूल उद्देश्य हमें वापस उसी मासूम दुनिया में ले जाना हैं जहाँ से हमने अपनी पहली यात्रा शुरू की थी और हाथ में लेकर अपनी पाठ्यपुस्तक उसकी सोंधी-सोंधी महक को अपने नथुनों में भरकर खुद को जीवंत महसूस किया था, फिर प्यार से उस पर कवर चढ़ाकर अपना नाम लिखा था तो आओ फिर से उस खुशबू में खो जाये, शब्दों की जादूगरी को सुलझाये, सीने पर रखकर उसे सो जाये खुद को फिर से उस रूहानी काल्पनिक दुनिया में ले जाये... आओ थोड़ा किताबों के नजदीक आये... उनसे हाथ मिलाये... उनको अपना दोस्त बनाये... फिर बच्चे बन जाये... :) :) :) !!!      
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२३ अप्रैल २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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