मंगलवार, 21 अगस्त 2018

सुर-२०१८-२३१ : #कोमल_या_कमज़ोर_नहीं_हूँ #आत्मविश्वास_के_कणों_से_मैं_भी_बनी_हूँ




मनउड़ता-फ़िरता
ना जाने कहाँ-कहाँ
मगर, सोंचू तो लगता हैं कि
कितनी बेबस हूँ मैं यहाँ
यूँ तो कहने को,
मेरा अपना ही हैं ये सारा जहाँ
लेकिन, लब खोलना भी गुनाह हो
जिस जगह पर तो,
क्या कर सकती हूँ मैं वहाँ???
..... 
सुन सकती हूँ
चिड़ियों की चहचहाहट
देख सकती हूँ
पंक्षियों की उन्मुक्त उड़ान
लेकिन, चाहकर भी
बयाँ नहीं कर सकती
अपने दिल के ज़ज्बात
भर नहीं सकती ऊंची उड़ान
बस, एक परकटी चिड़िया हूँ मैं यहाँ ।
.....
घुंघरुओं की आवाज़
पांव मेरे थिरका देती
गीतों की स्वर लहरियां
लबों को थरथरा देती
लेकिन, कोशिश करने पर भी
कुछ कर पाने की चाह
अभिव्यक्त नही कर सकती
पग-पग पर बदिशें जो हैं यहाँ ।
..... 
पर्वतों पर चढ़ना
ऊंचाई से कूदना
हरी दूब पर लेटना
आसमान को छूना
पेड़ों की छाँव में सोना
सूरज से आँख मिलाना
पेड़ की डाल पर झुलना
बेखौफ़ सडकों पर घूमना
वो सब कुछ जिसकी मनाही हैं
मैं कर के देखना चाहती हूँ,
लेकिन, बस सोच सकती
कि कुछ भी करना तो मना हैं यहाँ ।
..... 
जब भी डालती हूँ मैं
ख़ुद पर एक नज़र तो लगता हैं कि
आज भी वैसी ही बेबश, लाचार और मजबूर हूँ
मगर, हिम्मत को तोलूं अपनी तो
खुद को कमजोर नहीं पाती हूँ
इसलिये अब इस दुनिया में
अपनी पहचान हासिल करना चाहती हूँ
अपने सब आधिकार पाना चाहती हूँ
जानती हूँ कि बड़ी देर इसमें लगेगी मगर,
मैं नाकाम हो सकती हूँ,
लेकिन, अब भी नाउम्मीद नहीं हूँ
क्योंकि, जिनसे निर्मित हुआ नर-पिशाच
आत्मविश्वास के उन्हीं कणों से मैं भी तो बनी हूँ 
महज़, कोमल या कमजोर नहीं हूँ ।।
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२१ अगस्त २०१८

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