मंगलवार, 28 अगस्त 2018

सुर-२०१८-२३८ : #जब_न_मिले_घर_में_सनेह #तब_कहाँ_जाकर_ढूंढें_दिल_का_चैन



आवत ही हरषै नहीं नैनन नहीं सनेह।
तुलसी तहां न जाइये कंचन बरसे मेह।।

तुलसी दास जी कहते हैं कि जिस स्थान पर लोग आपके जाने से प्रसन्न न होवें और जहाँ लोगो कि आँखों में आपके लिए प्रेम अथवा स्नेह ना हो ऐसे स्थान पर भले ही धन की कितनी भी वर्षा ही क्यूँ ना हो रही हो आपको वहां नहीं जाना चाहिए ।

यदि वो अपना ही घर हो तब क्या करना चाहिए?

इस प्रश्न से उलझ रही थी आज अपने ही घर के दरवाजे पर खड़ी ‘इशिता’ जिसका आना न तो उसके पति और न ही उसके ससुराल में ही किसी को पसंद था क्योंकि, वो उन्हें उनके खानदान का वारिस देने में असमर्थ थी तो आये दिन ताने सुनाये जाते या उसके पति ‘मिहिर’ की दूसरी शादी की धमकी दी जाती ऐसे में उसे समझ में न आता कि वो क्या करे जबकि, उसने और मिहिर ने अपनी मर्जी से लव मैरिज की जिसकी वजह से उसे अपने परिवार से नाता तोड़ना पड़ा और जिसकी खातिर उसने ये सब किया आज वही पराया बन गया कभी जो उसके अपने परिवारों वाले से ज्यादा उसका सगा था तभी तो वो उन्हें छोड़ इसके साथ चली आई थी

शुरुआत में तो सब ठीक रहा उसके ससुराल वालों ने भी उसे थोड़े ना-नुकूर के बाद अपना लिया चाहे वो उसकी नौकरी की वजह से हो या अपने बेटे पर, जब उन्हें पता चला कि वो माँ नहीं बन सकती तो यही अपनापन न जाने कहाँ चला गया धीरे-धीरे मुखोटों का उतरना चालू हुआ तो भी उसने झेल लिया पर, जिस दिन ‘मिहिर’ ने उसकी जगह अपने घरवालों का साथ दिया तो वो सह न पाई फिर तो जब वो उसके प्यार का दामन छोड़कर पूरी तरह उनके पाले में चला गया तब उसे अहसास हुआ कि वो अकेली रह गयी है
      
यूँ तो उसके पास उसकी आत्मनिर्भरता और आर्थिक स्वतंत्रता भी थी मगर, अपनों के बिना सब बेमानी थे क्योंकि, अकेले तो उसे नींद तक नहीं आती फिर किसी स्वादिष्ट पकवान में स्वाद या किसी मनमोहक दृश्य में उसे किस तरह से आनंद आता इसलिये वो मन मारकर ये सब सह रही थी फिर भी रोज-रोज ये सब अब बर्दाश्त के बाहर होने लगा था ऐसे में आज ऑफिस से घर आकर बंद दरवाजे पर खड़ी उसे समझ न आ रहा था कि वो अपना घर और अपनों को छोड़कर किधर जाये क्या जो बचपन में किताबों में पढ़ा उस पर अमल करे और जिस घर में उसके आने से कोई खुश नहीं या किसी की आँखों में स्नेह नहीं उसे सदा-सदा के लिये छोड़ दे या फिर ख़ामोश यही पड़ी रहे

तभी अंतरात्मा में कोई किरण कौंधी जिसकी रोशनी में उसे वो वाक्य नजर आया जो कभी उसने अपनी डायरी के पन्नों में लिखा था हालाँकि, वो मायके में ही रह गयी पर, इबारत दिल में छप गयी थी शायद, तभी तो साफ़-साफ़ पढ़ पाई वो “जीवन में जब मजबूरी या आत्म-सम्मान में से किसी को चुनना हो तो फैसले की इस घड़ी में आत्म-सम्मान को ही प्राथमिकता देनी चाहिये” तो फिर उसने आगे बढ़े कदमों को पीछे मोड़ लिया

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२८ अगस्त २०१८

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