सोमवार, 27 अगस्त 2018

सुर-२०१८-३३७ : #कजलियां_नहीं_महज़_एक_देशज_पर्व #बुजुर्गों_की_वैज्ञानिक_सोच_जिस_पर_करो_गर्व




भारतीय सस्कृति और इसकी परम्परायें भले ही लोगों को आज अपनी संकीर्ण या अति-शिक्षित व आधुनिक मानसिकता की वजह से पुरातन व अनुपयोगी ही नहीं सिरे से ख़ारिज कर खत्म कर देने लायक लगती इसलिये जैसे ही हिंदू तीज-त्यौहार आता सब एक सिरे से सियार की तरह रेंकने लगते और तरह-तरह की खामियां निकाल तार्किकता की कसौटी पर उन्हें परखने लगते पर, ये भूल जाते कि हमारे ऋषि-मुनि व बुजुर्ग भले ही पढ़े-लिखे कम हो या बाहरी ज्ञान कम हो लेकिन, अनुभव में वो बेहद पके हुये उन्होंने अपना जीवन प्रकृति की प्रयोगशाला में गुज़ारा जहाँ नित नये-नये परीक्षण व होते बदलावों को बड़े नजदीक से न केवल देखा बल्कि, उनको समझने का प्रयास किया जिसके आधार पर फिर कोई निष्कर्ष निकाला और उसे आगे की पीढ़ी तक हस्तांतरित करने के लिये इसे किसी रीति-रिवाज या परंपरा में बदल दिया ताकि, ये आगे और आगे निर्बाध बढ़ती जाये

मगर, जैसे ही आगे की जनरेशन ने अपनी आँखों पर पश्चिम सभ्यता का ब्लू चश्मा लगाया उसे अपनी ही जड़े कमजोर नजर आने लगी, जबकि उन्हीं दूसरे देशों से सीखते तो समझते कि सभी अपनी प्राचीनतम धरोहरों को बचाने सतत प्रयासरत रहते और अपनी मातृभूमि पर शर्म नहीं गर्व करते जबकि, यहाँ तो आये दिन जिसे देखो उसे ही अपने देश पर लज्जा आती तब इन कुतर्की दिमागों में कहीं ये ख्याल नहीं आता कि देश कोई व्यक्ति या जीता-जागता इंसान नहीं बल्कि, एक ऐसा भूखंड जो हमारे अस्तित्व से मिलकर बना और हमारे कर्मों से ही जाना जाता जैसा हम करेगे वैसा ही उसका स्वरुप दिखाई देगा ऐसे में उसको गाली देना या बुरा कहना वास्तव में अपने आप को ही गलत कहना हैं हमने विकास के चरणों में अपनी उन सभी कुरीतियों व प्रथाओं को त्याग दिया जो वर्तमान में अर्थहीन थी मगर, जिनके पीछे गहन शोध व वैज्ञानिकता छिपी उन आंचलिक या राष्ट्रीय पर्वों से मुंह मोड़ना हमारी अज्ञानता कहलायेगी

जब आज से दस-बीस साल बाद कोई हमें ये बतायेगा कि हमने अपने इन रीति-रिवाजों को छोड़ दिया इसलिये ये पतन हो रहा तो हम वापस घुमकर लौटेंगे मगर, हो सकता तब तक उसे पुनर्जीवित करना संभव न हो तो जो शेष उसका सम्मान करें उसे दिल से अपनाये, मनाये जैसे कि आज भी बुन्देलखण्ड क्षेत्र का एक ऐसा ही स्थानीय पर्व ‘कजलियाँ या भुजरियाँ’ हैं जिसकी शुरुआत नागपंचमी के दूसरे दिन से होती जब लोग अपने खेतों से टोकरी में लाई मिट्टी में गेहूं बो देते और रक्षाबंधन तक उन्हें दूध, खाद व पानी देकर बड़े जतन से उनकी देखभाल करते उन्हें सूर्य की तेज रौशनी से दूर घर के भीतर रखते और रक्षाबंधन के दूसरे दिन गेहूं के इन नन्हे-नन्हे रोपों जिन्हें ‘कजलियां’ कहते के कोमल पत्‍ते तोडकर पहले देवताओं को समर्पित कर फिर छोटे उन्हें अपने हाथों में लकर सयानों के सामने प्रस्तुत करते तो वे बड़े दुलार से उन्हें उनके कानों के ऊपर लगा देते फिर उनके चरण छूकर आशीष और शगुन पाते यहाँ तक कि इसके आदान-प्रदान से आपसी मन-मुटाव व दुश्मनी भी खत्म की जा सकती हमारे पूर्वज बड़े समझदार थे इसलिये उन्होंने ये रिवाज बनाया जिससे कि यदि कभी रिश्तों में गिला-शिकवा आ भी जाये तो इस तरह के मिलन समारोहों के आयोजनों से उसे मिटाया जा सके और यदि किसी के घर में गमी हो तो इस दिन उसके घर जाकर उसके दुःख में सहभागी बन सके ऐसा लोकाचार या सौहार्द्र क्या पश्चिमी सभ्यता में सम्भव हैं ?

इसके अलावा इसके पीछे एक सुस्पष्ट वैज्ञानिक सोच जिसके जरिये इनके पकने पर ये अनुमान लगाया जाता कि इस बार फसल कैसी होगी क्योंकि, इनके द्वारा आगामी फसल के पूर्व बीजों का परीक्षण भी कर लिया जाता जिस तरह से ये पैदा होती उन्हें देखकर ये पता चलता कि किस घर के बीज स्वस्थ व रोगमुक्त हैं तो वे इसकी अदला-बदली कर अच्छी फसल प्राप्त कर लेते पर, हम तो तकनीकी युग में ये मानने लगे कि हमारे बुजुर्गों को तो अकल ही नहीं थी न जाने क्या-क्या त्यौहार बना दिये, न जाने कैसी-कैसी रस्में हमारे सर पर लादकर चले गये तो बस, अपने घटिया दिमाग से इनको समाप्त करने तरह-तरह के कुतर्क रचते रहते ऐसे में जो नासमझ वो इनके झांसे में आ जाते तो नुकसान तो देश का ही होता यदि हम अपने बुजुर्गों की बताई राह पर चले तो कोई नहीं जो हमें नीचा दिखा सके या हम पर शासन कर सके मगर, इसके लिये पहले विदेशी चश्मा आँख से उतारना पड़ेगा तब हम समझ पायेंगे कि देश कोई दुश्मन नहीं जिसके सर पर ठीकरा फोड़ मुक्त हो जाओ ये हमारा ही प्रतिबिंब जो जैसे हम होंगे वैसा ही उसका अक्स दिखाई देगा इसलिये खुद को बदलो, खुद को सुधारो देश स्वतः ही बदलेगा, सुधरेगा     

इस उम्मीद के साथ कि हम अपनी परम्पराओं का सम्मान करना सीखेंगे सबको कजलिया की शुभकामनायें और ईश्वर से ये प्रार्थना की आप सब कजलिया की तरह खुश और धन धान्य से भरपूर रहे... ☺ ☺ ☺ !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२७ अगस्त २०१८

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