शुक्रवार, 1 मई 2015

सुर-१२१ : "हम सब मजदूर... मेहनत से चूर...!!!"

नाम एक
रूप अनेक हैं मेरे...

कभी दर्जी
कभी धोबी
कभी मोची

कभी जुलाहा
कभी कुम्हार
कभी किसान

कभी मनहारी
कभी रसोइया
कभी राजगीर

कभी बर्तनवाला
कभी रिक्शावाला
कभी सब्जीवाला

ऐ इंसान...
मुझसे ही बनते
हर एक छोटे-बड़े काम तेरे
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मित्रों...,

एक बार फिर ‘मई’ माह का आगाज़ हुआ और हम सबको ‘मजदूर’ की याद आ गयी हर किसी को ऐसा लगता लेकिन ये हकीकत नहीं हैं कि हम सिर्फ आज के ही दिन या केवल एक ही दिन उसे याद कर अपने कर्तव्य से मुक्त हो जाते बल्कि हम तो हर दिन, हर पल ही उसको याद करते क्योंकि वो ही तो हैं जिसके बिना हमारा गुज़ारा नहीं होता और थोड़ा हो या कम हो या फिर चाहे जानेबूझकर या अनजाने में हो हम सबको ही उसकी मदद की जरूरत पड़ती हैं और हमारे पास जो कुछ भी सामान हैं या जो कुछ भी हम इस्तेमाल करते हैं भले ही हमें लगता हो कि हमने उसे क्रय कर उसका मोल चुका दिया लेकिन इससे उस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता कि प्राकृतिक संपदा के अलावा हम जो भी वस्तु अपने उपयोग में लाते हैं वो दरअसल किसी न किसी के द्वारा निर्मित की जाती और जो इसे बनाता वो एक अदना श्रमिक नहीं बल्कि अच्छा-ख़ासा हुनरमंद शिल्पकार होता हैं जो अपने हाथों से कभी हमारे लिये कोई उपकरण तो कभी कोई आभूषण या कोई घर / मकान / महल / अट्टालिका / ईमारत या फिर जूते-चप्पल या बर्तन-भांडे, वस्त्र-परिधान, फर्नीचर या वाहन या फिर कोई मूर्ति आदि तराशता जिससे हमारा ही नहीं हमारे आवास का भी श्रृंगार होता तभी तो हम किसी भी तरह उसका अहसान नहीं उतार सकते चाहे उसका मूल्य ही क्यों न दे चुके हो वो पारिश्रमिक कभी भी उसकी मेहनत का वास्तविक मूल्यांकन नहीं कर सकता हैं

इसलिये हम सब आज के दिन अपने मन में उसके प्रति छुपी हुई अपनी भावनाओं का इज़हार करते जो सचमुच उसके सृजन की ही तरह मौलिक होती तथा यदि उसमें कहीं कोई बनावट या कृत्रिमता नहीं हैं तो वो अपने आप उस तक पहुँच जाती क्योंकि शब्द और भाव खुशबू की तरह हवा के माध्यम से हर तरफ़ प्रसारित होते हैं जो उसके परिश्रम की तरह ही अनमोल होते और यही उसकी मेहनत की सही मजदूरी हैं जो हम इस तरह उसे दे सकते हैं और हम सब भी यदि अपने आप पर नज़र डाले तो पता चलेगा कि हम केवल उसकी बनाई गयी चीजों का उपभोग करने वाले कोई सौदागर नहीं बल्कि उसके हकदार भी हैं क्योंकि हम भी तो किसी स्तर उसके समान ही एक मजदूर ही तो हैं जो दिन-रात उसकी तरह हाड़-तोड़ न सही पर अथक परिश्रम तो कर ही रहे हैं अतः हमें उनको अपने से छोटा समझना हमारी गलती होती हैं और यदि हम इस भेदभाव से निज़ात पा ले तो यही उसके प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी जो हम किसी भी रूप में उसे दे सकते हैं जब भी जहाँ भी हमारी उससे मुलाकात हो तो हमारी नजरों में उसके प्रति हिक़ारत या निकृष्टता का नहीं बल्कि उसके कर्म और आला दर्जे के हूनर के अनुसार सम्मान का भाव हो बस, इतना ही तो चाहिये हर किसी को जो हम रूपये-पैसों की चमक के आगे उसे देना भूल जाते हैं और इस गुमान में रहते कि हमने उसके श्रम की कीमत अदा कर दी जबकि किसी बेशकीमती शय का मूल्य तो उसी की तरह ही अनमोल ही होना चाहिये न और हम इस तरह उसे बहुमूल्य बना सकते हैं तो अब जब-जब भी किसी मेहनतकश से टकराये जैसा कि होना निश्चित ही हैं क्योंकि हर पल तो उससे पाला पड़ता चाहे रिक्शावाला हो या ठेलेवाला या कुली तो हम इतना ही कर ले... और इस तरह ‘मजदूर दिवस’ को सार्थकता प्रदान कर दे... :) :) :) !!!       
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०१ मई २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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