मंगलवार, 5 मई 2015

सुर-१२५ : "फ़िल्मी गीतों को करते आबाद... संगीत सम्राट नौशाद...!!!"

कह रही
फ़िल्मी दुनिया
आवाज़ दे कहाँ हैं....
.....
अब गूंजता
चारों ही तरफ
बेसुरा संगीत यहाँ हैं...
.....
सूना संसार
तेरी संगत बिना 
तू रहता अब वहाँ हैं...
.....
यादें हैं शेष
तेरी हर धुन पूछती   
बता वो कौन-सा जहाँ हैं....!!!
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मित्रों...,

‘संगीत’ लय-ताल और साजों का ऐसा सुमधुर ताना-बाना जिससे अपना आप भी मधुर लगने लगता हैं और जो न हो कोई धून या आवाज़ आस-पास तो फिर जीवन में सूनापन लगता हैं तभी तो लोग कहते ‘मनमोहक संगीत’ तो हर मर्ज की दवा हैं सच... शायद, सभी ने महसूस किया हो कैसा भी हो मन का मिज़ाज यदि हम सुन ले कोई सुरीला तराना तो अहिस्ता-अहिस्ता उसकी मिठास जेहन पर तारी होने लगती हैं और एक पल बाद ही तन-मन तरोताज़ा महसूस करने लगता जिससे वो हर फ़िक्र, हर परेशानी को भूलकर दूसरे ही पल तनावरहित हो जाता इसलिये तो जितना महत्व उसे गाने वाले गायक-गायिकाओं का होता उतना ही उसे सुर-ताल में पिरोने वाले संगीतकार का भी होता ऐसे में जब हम बात करें अपने हिंदुस्तानी फ़िल्मी संगीत की तो जो नाम हमारी याददाश्त में उभरते हैं उनमें बेमिसाल संगीत के जादूगर बल्कि शहंशाह कहना अधिक उपयुक्त होगा ‘नौशाद साहब’ के एक से बढ़कर एक गाने कानों में गूंजने लगते हैं और हम ही क्या हमारे पूर्वज भी उनके बनाये दिल को छू लेने वाले नगमों को सुनकर ही तो न सिर्फ़ अपना गम भूल जाते थे बल्कि उनकी भी अनगिनत स्मृतियाँ उससे जुडी हुई हैं पता नहीं लेकिन न जाने क्यों जिस वक़्त के गीत-संगीत को सुनकर हम सब बड़े होते अनजाने ही उनसे हमारी कीमती यादें भी अपने आप ही जुड़ जाती और फिर जब-जब उसे सुनते वे सब पुनः हमें गुदगुदा जाती और इस तरह वो अनमोल गीत-संगीत हमारे जीवन का हिस्सा बन जाते । हमने भी अपने बचपन में रेडियो पर या टेप-रिकॉर्डर पर जो गाने सुने उनमें से अधिकतर ‘नौशाद अली’ के रचे हुये थे जो आज इतने बरसों बाद भी अपनी उसी खनक के साथ उसी तरह आज के जमाने के कानफोडू संगीत के मध्य अपनी मधुर उपस्थिति के साथ विराजमान हैं जो स्वतः ही उस संगीतकार की महानतम कला का परिचायक हैं जिसने बड़ी ही मेहनत और प्यार से ऐसी खुबसूरत दिलकश धून बनाई कि आज जब वे हमारे साथ नहीं हैं तो हम उन्हें सुनकर उनकी अनुपस्थिति पर मलाल करते कि काश, वे होते तो न जाने क्या रचते और कभी उनके शुक्रगुज़ार होते जो वे हमारे लिये इतना बेशकीमती गीत-संगीत का खज़ाना छोड़ गये कि हम कभी तो उनको सुनकर अपनी तन्हाइयों को महकाते तो कभी किसी ख्याल में डूब जाते या फिर कभी हंसी-ख़ुशी से उसे गुनगुनाते अपनी महफ़िल सजाते ।

२५ दिसंबर १९१९ को ‘नौशाद अली’ का जनम नवाबों के शहर ‘लखनऊ’ में हुआ जहाँ की तहजीब और मीठी जबान के तो लोग कायल हैं ही फिजाओं में भी संगीत घुला हुआ हैं तभी तो शायद, बचपन से ही उनको साज़ और संगीत से अलहदा लगाव था जिसकी वजह से वो उसे सीखने की ललक में लगे रहते और इसकी तलाश में वे अपने गृहनगर में स्थित वाद्य-यंत्रों की दुकान के आस-पास चक्कर लगाते थे तब उनका ये रुझान देखकर एक दुकान वाले ने उनको उन यंत्रों की साफ़-सफ़ाई के लिये काम पर रख लिया अँधा क्या चाहे दो आँख जो उनको बिन मांगे ही मिल गयी तो बस, जिन साजों को अब तक दूर-दूर से देखकर तरसते थे अब न सिर्फ उन्हें करीब से देखने का सुनहरा अवसर मिल गया बल्कि कभी-कभी मौका मिलने पर उनकी  हाथ की उँगलियाँ उनकी सफाई के साथ-साथ उनको बजाने का काम भी करने लगती जो समय के साथ पक्का होता गया और उनके रियाज़ से दूकानदार ने खुश होकर हारमोनियम की सौगात दे दी ताकि वो सही तरह से उस पर अपनी संगीत साधना कर सके लेकिन घरवालों की उनका ये शौक रास नहीं आता था अतः वो उस पर पाबंदियां लगने लगे लेकिन उन पर तो ख़ुदा की नेमत थी तो कोई उनके कदम किस तरह रोकते इसलिये मेट्रिक तक पढ़-लिखकर वे ‘मुंबई’ रवाना हो गये । केवल सोलह साल की नाज़ुक उम्र १९३५ में वे मुंबई आ गये क्योंकि इसी स्वप्न नगरी में उनके सपनों को भी ताबीर मिलने वाली थी  यहाँ आकर उन्होंने ‘दादर’ के ‘ब्रॉडवे सिनेमाघर’ के सामने स्थित फुटपाथ पर रहते हुये अपनी आँखों में एक ख़्वाब सजाया कि एक दिन इसी टाकिज में उनके संगीत से सजी कोई फिल्म जरुर प्रदर्शित होगी और पुरे सत्रह साल बाद उनका वो स्वपन पूर्ण हुआ जब उनकी सुप्रसिद्ध मीठे-मीठे तरानों से सजी 'बैजू बावरा' उसी सिनेमा घर में लगी तब ‘नौशाद’ ने बड़े ही भावपूर्ण लहजे में कहा---“इस सड़क को पार करने में मुझे सत्रह साल लग गये..” साथ ही यही यही वो भाग्यशाली फिल्म भी साबित हुई जिसने उनको संगीत की दुनिया का पहला ‘फ़िल्मफेयर अवार्ड’ भी दिलाया ।

इसके बाद तो उनको ‘संगीत सम्राट’ का तमगा हासिल हो गया और उन्होंने लगातार एक के बाद एक सुपरहिट संगीत की फिल्मों की लाइन ही लगा दी उनकी बत्तीस फिल्मों में से २३ फिल्मों ने सिल्वर, गोल्डन और डायमंड जुबली मनाई 'मुग़ल-ए-आजम', ‘पाकीज़ा’, ‘कोहिनूर’, ‘शाहजहाँ’, ‘बाबुल’, ‘आन’, ‘अफ़साना', ‘दीदार’, ‘बैजू बावरा', 'अनमोल घड़ी', 'शारदा', 'आन', 'संजोग' आदि कई फ़िल्में न केवल उनके बनाये संगीत की वजह से हिट हुई बल्कि उन्होंने हिंदी सिनेमा के इतिहास में एक अलग अध्याय लिख डाला अपनी प्रथम फ़िल्म ‘प्रेम नगर’ में संगीत देने के बाद सन १९४० से २००६ तक उन्होंने संगीत दिया  क्योंकि वे कहते थे 'मुझे आज भी ऐसा लगता है कि अभी तक न मेरी संगीत की तालीम पूरी हुई है और न ही मैं अच्छा संगीत दे सका।' और अपने इस गम के साथ आज ही के दिन याने कि ५ मई २००६ को वे हम सबको छोड़कर चले गये पर ६४ साल तक इस फ़िल्मी दुनिया में अपने हुनर का कमाल दिखाते रहे लेकिन इतने लंबे अंतराल के बाद भी उन्होंने केवल ६७ फ़िल्मों में ही संगीत दिया जो जाहिर करता हैं कि उन्होंने कभी भी अपनी साधना से कोई समझौता नहीं किया न उसे सिर्फ़ कमाई का जरिया माना जैसा कि आजकल के फिल्म संगीतकार करते बल्कि उन्होंने तो गुणवत्ता पर ही अपना ध्यान केंद्रित किया इसलिये उनका संगीत कालजयी बन गया । इसके अतिरिक्त उन्होंने समय-समय पर नये वाद्य यंत्रों के अलावा नई-नई आवाजों को भी अवसर दिया ‘सुरैया’, अमीरबाई कर्नाटकी’, ‘निर्मलादेवी’, ‘उमा देवी यानी टुनटुन’, ‘मुकेश’,’मो. रफ़ी’ और अनेकानेक प्रयोग भी किये तभी तो अंदाज़ में ‘राज कपूर’ के लिये मो. रफ़ी और दिलीप कुमार के लिये मुकेश की आवाज़ का इस्तेमाल किया जिसकी बदौलत उन्होंने संगीत में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिये ‘फालके अवॉर्ड’, ‘लता अलंकरण’, ’पद्म भूषण’, ‘अमीर खुसरो पुरस्कार’, ‘संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार’ और ‘महाराष्ट्र गौरव पुरस्कार’ जैसे अनगिनत ख़िताब अपने नाम किये ।

फिल्म ‘रतन’ जो सचमुच हिंदी सिनेमा का अनमोल रतन हैं के गानों की प्रसिद्धि का अहसास केवल उन्हें ही होगा जिन्होंने इसे और इससे जुडी कहानियों को भी सुना हैं कि किस तरह हर किसी की जुबान पर ‘अंखिया मिला के जिया भरमा के चले नहीं जाना हो... चले नहीं जाना’, ‘सावन के बादलों उनसे ये जा कहो... घन घोर घटाओ मत झूम के आओ’ जैसे गीत होते थे और उस वक़्त शायद हर किसी के होंठ पर जो तराना होता वो उन्ही के साज़ से निकला होता तभी तो आज तलक वो जादू उसी तरह बरकरार हैं... और हर मुरीद पूछता... ‘आवाज़ दे कहाँ हैं... दुनिया में मेरी जवां हैं’... पर, जवाब में उन्हीं का कोई गीत बज उठता... जो हमें अपनी आगोश में ले लेता... :) :) :) !!!    
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०५ मई २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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