रविवार, 17 मई 2015

सुर-१३७ : "बनो फ़रिश्ते से मासूम... कर लो छिपी दुनिया के दर्शन...!!!"

आदमी
के भीतर भी
छिपी रहती हैं
दुनिया कई
जिसमें बसते हैं
उसके...
ख़्वाब, ख्याल, अरमां
जिन्हें न कर सका
वो अभिव्यक्त
और...
न समझ ही पाया 
मिलने वाला
दोस्त या
अजनबी कोई
पर...
निर्मल आत्मा
पारदर्शी मन वाला
पहुँच जाता हर कहीं
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मित्रों...,

‘प्रणीता’ से मिलने वाला हर कोई उसके बाहरी सौंदर्य से इस कदर प्रभावित हो जाता कि उसके आगे उसकी सारी बुद्धिमता, पढ़ाई, डिग्री, ज्ञान की बातें, अद्भुत कार्यक्षमता और अद्वितीय हुनर सब धरे के धरे रह जाते क्योंकि सबका मानना था कि उसने अपनी जिंदगी में जो भी शोहरत या मकाम हासिल किया हैं उसमें उसकी अपनी किसी बौद्धिक योग्यता का नहीं बल्कि अनुपम खुबसूरती का हाथ था हर किसी का कहना था कि रब ने उसे बनाते समय कोई कोताही नहीं बरती बल्कि आला दर्जे की मिटटी से उसे बड़े प्यार से अपने हाथों से बनाकर सजाया संवारा था इसलिये तो उसे देखने वाला सब कुछ भूल जाता उसे कुछ दिखाई देता तो सिर्फ उसका परी चेहरा और बड़ी-बड़ी हिरणी जैसी आँखें जिसमें सामने वाला खो ही जाता फिर उसे सुध-बुध ही न रहती किसी भी बात की और उनकी ये हालत देखकर उसे बड़ी कोफ़्त होती पर, अब तो जैसे उसे उसकी आदत हो गयी थी उसने भी इसी तरह की मानसिकता वाले लोगों के बीच रहकर खुद को उनके अनुसार ढाल लिया था अतः वो भी महज औपचारिकता का दिखावा करती क्योंकि वो जानती थी कि इनकी धारणाओं को किसी बात से नहीं बल्कि अपने काम से तोड़ा जा सकता हैं और उसे विश्वास था कि एक न एक दिन तो सभी इस सच्चाई से वाकिफ़ होंगे कि उसकी सुंदरता केवल प्राकृतिक हैं जिसका उसकी काबिलियत से कोई लेना देना नहीं जिसे उसने अपनी अथक मेहनत और साधना से स्वयं अर्जित किया हैं यदि आज वो उसी प्राइवेट स्कूल में प्रिंसिपल बनकर उसे चला रही हैं जहाँ से उसने अपने कैरियर की शुरुआत की तो उसमें उसके अथक परिश्रम का योगदान हैं लेकिन सबको लगता उसे तो कुछ करने की जरूरत नहीं बस, उसे तो मुस्कुराकर बात करना पड़ता और अगला खुद आगे बढ़कर उसका काम कर देता हैं

लोगों की इस तरह की लगातार बातों ने अनायास ही उस पर ख़ामोशी की चादर डाल दी और उसने अपने मन की बात सबसे कहना बंद कर दिया जो केवल उसके दिल के तहखाने में बंद थी जिस तक केवल वो अबोध मासूम विद्यार्थी ही पहुँच सके जिन्होंने उनसे पढ़ा था और उनकी उस बौद्धिकता के कायल थे जिसकी वजह से उनको कभी भी किसी प्रश्न के जवाब के लिये परेशां नहीं होना पड़ा न ही अपने भविष्य की चिंता करनी पड़ी क्योंकि उनकी प्यारी मैडम सिर्फ उनको किताबी ज्ञान ही नहीं देती बल्कि हर तरह की खबरों से सजग रखती ताकि वो किसी भी क्षेत्र में किसी से पीछे न रहें तभी तो उनके पढ़ाये अधिकांश छात्र-छात्रायें आज विदेशों तक पहुंच चुके थे जब वे उनको सफ़लता के साथ अपनी मंजिल तक पहुंचते देखती तो फिर किसी बात का मलाल न रहता कि भले ही अधिकांश लोग उसके प्रति उस तरह की सोच रखते हैं पर, उसकी असल पूंजी तो वही हैं जिसके लिये वे भी तो कितना परेशान रही थी अतः वे सबको ये संदेश देती कि भले ही कितनी ऊँचाई पर पहुँच जाओ लेकिन अपने अंदर की मासूमियत को कभी खत्म न होने देना इस पर किसी तरह का स्वार्थ का रंग न चढ़ने देना जिससे कि किसी को उसके उपरी आवरण से नहीं बल्कि उसके अंदर छूपी प्रतिभा से उसका आकलन कर सको यही उनके जीवन भर के अनुभव का सार था कि लोग अक्सर किसी के अंदर की उस दुनिया को नहीं देख पाते जहाँ वो अपने असली स्वरुप में रहता बल्कि वो तो बाहरी चकाचौंध में ही खो जाते जिससे कि कभी-कभी किसी का व्यक्तित्व पूर्ण रूप से संवर नहीं पाता या उसे खुद को दबाकर रखना पड़ता क्योंकि कोई उसे समझने की कूवत ही नहीं रखता इसलिये किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर या दुनिया के पूर्व निर्धारित चश्में की जगह अपनी पवित्र पारदर्शी आत्मा से लोगों को देखने का हूनर सीखो... तब तुम लोग उस निर्दोष अबोध बालपन को भी सहेज पाओगे जो अब विलुप्ति की कगार पर हैं... ये सिर्फ ‘प्रणीता’ का ही नहीं उन सबका भी दर्द हैं जिनके बारे में लोग भ्रामक जानकारी प्रचारित कर देते हैं कि य़ार, सब बकवास असलियत कुछ और हैं और बाक़ी लोग भी बिना सोचे-समझे उसके प्रचारक बन जाते और इस तरह उस व्यक्ति की सबके द्वारा बनाई गयी गलत छवि बन जाती... और असली सूरत उस मुखौटे के पीछे कहीं दबी रह जाती... तो अपनी आँखों को फ़रिश्ते सी पाक़ बना लो... दूसरों की नहीं अपनी आँखों से देखो... अपनी मूरत खुद गढ़ों... तब हर किसी की उस गुप्त दुनिया के दर्शन कर पाओगे... :) :) :) !!!     
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१७ मई २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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