शुक्रवार, 15 मई 2015

सुर-१३५ : "विश्व परिवार दिवस... देता एकता का संदेश...!!!"

अगर,
जिंदगी हैं तो
रिश्ते हैं, नाते हैं
‘घर’ और ‘परिवार’ हैं
...
जिसे संजोने
और बचाने के लिये
उसकी महत्ता बताता
‘विश्व परिवार दिवस’ हैं...
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मित्रों...,

'भारत' वो देश हैं जहाँ पर 'वसुधैव कुटुम्बकम' की अवधारणा को चरितार्थ किया जाता हैं लेकिन अब ये एक उक्ति मात्र बनकर रह गया हैं जिसके मायने कहीं खो गये हैं क्योंकि अब समूचे विश्व को एक परिवार समझना तो बहुत दूर व्यक्ति ख़ुद के परिवार को ही पराया समझता हैं यहाँ तो पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण की ऐसी दौड़ चल रही कि व्यक्ति अपने रीति-रिवाज़, सभ्यता-संस्कृति ही नहीं बल्कि अपनी जड़ों अपने घर-परिवार से भी दूर होता जा रहा जबकि वहां के लोग हमारे यहाँ के संस्कारों में छिपी सत्यता को जानने के बाद अब उसे अपनाने लगे हैं और ब्रम्हचर्य, जप, पूजा, ध्यान, योग आदि की महत्ता को जानकर उसका प्रचार-प्रसार कर रहे हैं तो हम लोग उनके जैसा बनने की होड़ में अपनी पहचान भी खोते जा रहे हैं यदि ऐसा न होता तो आज परिधान या भाषा में जिस तरह का चलन दिखाई दे रहा हैं वो हमें भ्रमित न करता कि हम वाकई अपने ही देश में हैं या कहीं विदेश में आ गये जहाँ लोग अपनी आंचलिक मीठी बोली तो दूर अपने 'मातृभाषा' या 'राष्ट्रभाषा' तक बोलना भूल गये ऐसे में अब उन्हें भी ये याद दिलाने के जरुरत हैं कि जिस तरह पश्चिम सब कुछ भोगकर अंधियारी गलियों से निकलकर पूरब में शांति एवं जीवन दर्शन ढूँढ रहा हैं उसी तरह एक दिन हमें भी वापस जहाज के पंछी की भांति पुनः अपनी डाल पर वापस आना होगा तो क्यों न हम अब ही इस सत्य को जान ले जिसे सारा विश्व न सिर्फ़ जान चुका हैं बल्कि उसका अनुकरण भी कर रहा हैं अभी हम जिस तरह की जीवन शैली की नकल कर खुद को अत्याधुनिक साबित कर रहे हैं वो इससे उबरकर हमारे धर्मग्रन्थों और पूर्वजों के सदियों पुराने ज्ञान के खजाने से अपने लिये अनमोल रतन तलाश रहा हैं जबकि हम कंकर को चमकीले हीरे-मोती समझ फिर एक बार फिर ठग लिये जाने वाले हैं तब उन्होंने हमें 'सोने की चिड़ियाँ' जानकर हमारी धन-संपत्ति को लूटा था और बदले में हमें अपनी भड़काऊ संस्कृति का झुनझुना पकड़कर मानसिक गुलाम बनाकर चले गये थे पर, अब वो हमारे आध्यात्मिक और गहन चिंतन-मनन से लिखे गये सूत्रों में शांति और लंबे जीवन का रहस्य ढूंढ रहे हैं तो हम उनके द्वारा ठुकराये गये कोला, पेप्सी, पास्ता, चाउमीन और डिस्को, रॉक, साल्सा आदि में मगन हो रहे हैं जो उन दो सौ बरसों की अधीनता से भी अधिक घातक सिद्ध होने वाला हैं क्योंकि उन्होंने इसकी निस्सारता जान ली हैं तभी तो अब वो लोग तरह-तरह के दिवस मनाकर सारी दुनिया को नये सन्देश दे रहे हैं कि जीवन की वास्तविकता किसी नशे में नहीं बल्कि उसके मायने को ग्रहण करने में हैं यदि ऐसा न होता तो समूचे जगत को परिवार की अहमियत बताने के लिए हर साल १५ मई को 'अंतर्राष्ट्रीय परिवार दिवस' न मनाया जाता

हम तो उस भूमि से जुड़े हैं जहाँ परायों को भी अपना समझा जाता हैं जहाँ एक से अनेक होकर परिवार का निर्माण कर उसका पालन-पोषण किया जाता हैं अपने पड़ोसी को भी परिवार का ही हिस्सा समझा जाता हैं बल्कि पहले तो गाँव-देहात में पूरे गाँव को ही एक घर-परिवार समझा जाता था जहाँ सब मिलकर एक दुसरे के सुख-दुःख में हंसते-रोते थे एक के घर यदि कोई गमी हो जाये तो दुसरे के हलक से निवाला नहीं उतरता था किसी के घर कोई बीमार हो तो तीमारदारी करने कोई भी हाज़िर हो जाता यहाँ तक कि खाना-पीना तक ले आता और दुर्भाग्य से किसी के माता-पिता न रहे तो उसे कोई अनाथ नहीं कहता बल्कि सब मिलकर उसे पाल लेते थे हर घर से ही कोई न कोई व्यवस्था हो जाती थी और अब देखो तो अगल को बगल की खबर ही नहीं हैं यहाँ तक कि हमारे विशाल 'सयुंक्त परिवार' तो 'एकल परिवार' में टूटे ही बल्कि उससे बने 'हम दो हमारे दो' की 'स्माल फॅमिली' में भी हर कमरे में भी लोग एक दुसरे से अपरिचित रहते हैं केवल साथ रहने की औपचारिकता का निर्वाह करते और जैसे ही व्यक्ति अपने पैरों पर खड़े होकर कमाने लगता तो अपना अलग परिवार बना लेता जैसा कि पश्चिम में बड़ा आम हैं और उनकी देखा-देखी अपनाये जा रहे नये ट्रेंड ‘लिव-इन’ की अग्नि में तो कुछ भी न शेष रहने की संभावना हैं क्योंकि ये उनकी सभ्यता हैं लेकिन हमारे यहाँ तो बड़े-बड़े कुटुंब का चलन था जहाँ न सिर्फ़ अनेक लोग वरन अनेक रिश्ते भी एक साथ साँस लेते थे हर रश्ते का बाकायदा एक नाम और उसकी कुछ जिम्मेदारियां भी होती थी जो अब ‘अंकल-आंटी’ और ‘कजिंस’ के बेसुरे राग में कहीं गुम हो गयी और आदमी अपने आप में सिमटकर अकेला रह गया लेकिन अफ़सोस कि उसे खबर तब ही होती जब वो किसी मुश्किल में या तन्हाई में होता और अब तो ‘मोबाइल’ और ‘कंप्यूट’र जैसे ‘गेजेट्स’ ने साथ-साथ रहने वाले लोगों के बीच ही इतनी दूरियां पैदा कर दी कि यदि अब भी न हम संभले और जागरूक बने तो फिर एक दिन हमारे यहाँ भी उन देशों की तरह लोगों को इंटरनेट / स्मार्टफोन की लत से निजात दिलाने प्रशिक्षण और सेमिनार किये जायेंगे कहने का मतलब कि वे तो जाग गये और इन भोग-विलास से आगे बढ़ गये लेकिन हम तो अब इस 'चक्रव्यूह' में घुसे हैं और शुरुआत बड़ी रोचक लग रही हैं अतः 'अभिमन्यु' की तरह निकलने का मार्ग न जाना तो इसी में घुटकर मर जाना हैं अतः इन दिवस का औचित्य मात्र इतना हैं कि केवल इनको मनाने की औपचारिकता पूर्ण कर इसे बिसरा देने की जगह इनके महत्व को जाने जिसकी वजह से वैश्विक रूप में इन्हें प्रारंभ किया गया ताकि सारा विश्व ये जान सके कि जिस 'परिवार' में हम रहते हैं जो हमें सुरक्षा के अलावा हमारा लालन-पालन कर हमें इतना सक्षम बनाता कि एक दिन हम अपनी स्वतंत्र पहचान और एक पृथक परिवार बन सकें तो इसका मतलब ये कतई नहीं कि जिससे हम निकले हैं उन माता-पिता को भूल जाये और महज 'मातृ-पितृ दिवस' मना उनका सम्मान कर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाये बल्कि हम कहीं भी रहें पर, सदा उनका स्मरण करें यदि उनसे ज्यादा दूर हैं तो रोज न सही लेकिन इस विशेष दिन में तो उनके साथ समय बिता सकते हैं या केवल फोन पर 'विश' कर दिया कोई 'गिफ्ट' ऑनलाइन आर्डर कर दिया हमारा काम खत्म हो गया

हमारे यहाँ किसी भी ऐसे दिवस के आगमन पर उसका बड़ा मजाक बनाया जाता लेकिन हमें समझना होगा कि हर तरह की आधुनिकता, हर तरह की सुविधायें, हर तरह की आज़ादी और हर तरह के शौक को पूरा कर अब यदि पश्चिम इस तरह की बातें कर रहा हैं तो वो केवल दिखावा नहीं बल्कि अनुभव से निकला परिणाम हैं जिसने उसे अहसास कराया कि जिस तरह की शैली उसने अपनाई हुई हैं वो अंतत उसे 'एकांत' और 'अवसाद' की और ले जाने के सिवाय और कुछ नहीं देती तभी तो अब वो 'विश्वगुरु भारत' से उन सिद्धांतों को ले रहा हैं जिसने उसे हर अभाव ,हर संकट, हर मुश्किल और इतनी लंबी गुलामी के बाद भी मिटने नहीं दिया... और एक हम हैं कि उनके खोखले आदर्शों में खुद की छवि गढ़ने का प्रयास कर रहे हैं जिसकी बेहूदा नक़ल में एक दिन हम अपनी ही वास्तविक सूरत भूल जायेंगे जबकि वे लोग अपने असली स्वरूप को बदले बिना ही हमारे संस्कृति में से ज्ञान की विरासत को चुपचाप चुराकर ले जा रहे हैं... हम यहाँ ‘पॉप सांग’ गाकर हुल्लड़ कर रहे हैं तो वे लोग ‘हनुमान चालीसा’ पढ़ रहे हैं.... हम यहाँ सिगरेट का धुंआ उड़ाने में व्यस्त हैं तो वे वहां ‘गायत्री मंत्र’ पढ़कर हवन कर रहे हैं... हम यहाँ ‘जिम’ जाकर सिक्स पैक या जीरो फिगर बना रहे हैं तो वे वहां ध्यान-योग कर उम्र बढ़ा रहे हैं... हम यहाँ कुर्सी टेबल पर बैठकर ‘कैंडल लाइट डिनर’ कर रहे हैं तो वे जमीन पर पालथी मारकर अपने हाथ से भोजन कर रहे हैं... याने कि उन्होंने हमारी तरह अपने आप को बदले बिना ही हमारी रवायतों का अनुकरण करना शुरू कर दिया हैं... और हम अधकचरे से हुये जा रहे हैं त्रिशंकु की भांति अधर में लटके हैं अतः ऐसे में इन दिनों को सिर्फ़ मनाये नहीं चिंतन भी करें कि आख़िर इसकी वजह क्या हैं... क्यों ऐसी जरूरत महसूस हुई इसलिये न कि जब कोई चीज़ खत्म होने लगती तो उसे बचाने की मुहिम शुरू की जाती हैं तो फिर क्यों न हम अभी से ही सजग हो जाये या फिर तब ही होंगे जब सब कुछ केवल चित्रों में ही सिमटकर रह जायेगा... ये न हो इसलिये तो ये दिन हैं तो फिर क्यों न हम इसे <3 से महसूस करें शायद, तभी तो इसके प्रतीक चिन्ह के रूप में एक गोले के अंदर ‘दिल’ और ‘घर’ को रखा गया हैं जो ये बताता हैं कि प्रेम के सुरक्षा चक्र में रिश्ते और घर सुरक्षित होते हैं... तो इसे टूटने न दे... सभी को ‘अंतर्राष्ट्रीय परिवार दिवस' की हार्दिक शुभकामनायें... :) :) :) !!!
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१५ मई २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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