बुधवार, 6 मई 2015

सुर-१२६ : "देवर्षि नारद जयंती... हर्षोल्लास से मनती...!!!"

ज्ञानवान 
संदेशवाहक
परामर्शदाता
सर्वविद्याज्ञाता
संपूर्ण कला विशारद
अजर अमर ‘देवर्षि नारद’
-----------------------------------●●●

___//\\___ 

मित्रों...,

आज जिस तरह मीडिया पल-पल में देश-विदेश की खबर का न सिर्फ़ आँखों देखा हाल सुनाता हैं बल्कि उसका सीधा प्रसारण भी करता हैं यही कार्य देवलोक में सृष्टि रचयिता ब्रम्हाजी के एक मानस पुत्र 'नारद' जी के द्वारा बिना किसी यंत्र-तंत्र या किसी विशेष दल के साथ काम करते हुये बल्कि अकेले ही किया जाता हैं जो मन की गति से ही कहीं पर भी पहुंचने की अद्भुत क्षमता रखते हैं और इस तरह वे 'देवलोक' ओर 'भूलोक' के बीच संदेशवाहक का कार्य करते थे । अब यदि हम 'नारद' को सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ 'लोक संचारक' या पत्रकार भी कहें तो कुछ भी अतिश्योक्ति नहीं होगी लेकिन 'महर्षि नारद' का संवाद हमेशा लोकहित में रहता था इसलिये नारद को 'देवऋषि' की संज्ञा दी गई साथ ही उनका ये कार्य केवल देवताओं तक ही सीमित नहीं था वह तो दानवों और मनुष्यों के भी मित्र बनकर उनका मार्गदर्शन करते थे और कहीं भी कोई गुप्त बात या मंत्रणा चल रही हो तो उन्हें बिना किसी गुप्तचर के या सीसीटीवी कैमरा के ही खबर हो जाती और वे शीघ्र न केवल वहां पहुँच जाते बल्कि अपनी चतुराई से स्थिति का पूरा जायज़ा भी ले लेते और जिस तक वो संदेश पहुँचाना अनिवार्य लगता वहां तक अपने आप चले जाते और फिर उसमें बातों का तड़का लगाते हुये उसे अगले को सुना देते फिर उसके प्रतिक्रिया देखने वहां रुकते नहीं बल्कि आगे बढ़ जाते क्योंकि उन्हें तो अनवरत अविराम चलते रहने का वरदान या अभिशाप जो भी कहे मिला हुआ हैं तो वे कहीं भी किसी भी जगह स्थिर नहीं रह सकते क्योंकि पुराणों में वर्णित कथा के अनुसार 'भगवान नृसिंह' के अवतरण की पृष्ठभूमि में भी 'देवर्षि नारद' की महत्वपूर्ण भुमिका हैं और जैसे कि हम सभी जानते हैं कि 'बालक प्रहलाद' की दृढ़ भक्ति से भगवान विष्णु ने ‘नृसिंह रूप’ लिया था परंतु उस नन्हे बालक को इस पथ की और अग्रसर करने वाले और उसके कोमल मन में ईश्वर के प्रति अपार अविचल आस्था भरने वाले यही ‘नारद मुनि’ थे क्योंकि जब 'भक्त प्रहलाद' गर्भ में थे तो उसी समय उनकी माता 'कयाधू' को देवर्षि नारद ने भक्ति और ज्ञान का उपदेश दिया जिससे 'प्रहलाद' का सशक्त चरित्र गठन हुआ और इसी तरह जब नन्हा बालक 'ध्रुव' पिता के तिरस्कार से व्यथित होकर वन की और तपस्या करने चले तो उस समय भी 'देवर्षि नारद' ने ही उन्हे ‘भगवान वासुदेव’ का मंत्र देते हुये उपासना की विधि बतायी इस तरह उन्होंने हर एक मानव या दानव को न सिर्फ़ भक्ति और उपासना का मार्ग दिखाया बल्कि उस पर चलने का तरीका भी विस्तारपूर्वक बताया जब उन्होंने दक्ष प्रजापति के पुत्रों में भी विरक्ति का भाव उत्पन्न कर दिया तो वे बड़े दु:खी हुए और उन्होने फिर 'शावलश्व' नामक एक सहस्त्र पुत्र उत्पन्न किये परन्तु अपने स्वभावनुसार 'देवर्षि नारद' ने उन्हे भी भगवत सेवा की और उन्मुख कर दिया जिससे क्रुध होकर दक्ष प्रजापति ने अजातशत्रु देवर्षि नारद को शाप दे दिया कि तुम लोक लोकांतरों में भटकते ही रहोगें तब ‘देवर्षि नारद’ इस अभिशाप को वरदान समझ ग्रहण कर लिया फिर तबसे ही ये वो जन के कल्याण एवं धर्म की रक्षा के लिये तीनों लोकों में भ्रमण कर रहे है

लोक-परलोक के समस्त प्राणियों के अलावा देवताओं व दानवों के मध्य सूचनाओं का अदान-प्रदान करने वाले ‘नारद मुनि’ केवल एक सूचना प्रसारण मंत्री नहीं बल्कि सभी के लिये एक कुशल मनोवैज्ञानिक होने के साथ-साथ बेहतरीन परामर्शदाता भी थे जिनकी सलाह हर कोई मानता था तभी तो हर कोई उनका इंतजार करता कि कब वे आये और माहौल को अपनी खबरों से महकाये जिससे सभी को अन्य लोकों की भी खबर हो जाये इस तरह ये एक बेतार के तार याने कि आज के जमाने के अंतर्जाल से भी अधिक तीव्र गति से सुरक्षित रूप से जानकारियों को यहाँ से वहां तक करते थे । देवर्षि नारद मुनि को महज एक संदेशवाहक कहना या मानना हमारी गलती हैं क्योंकि वे तो इसके सिवा बहुत सारी कलाओं में भी दक्ष थे फिर चाहे वो संगीत विधा हो या फिर पुराणों/उपनिषदों का सूक्ष्म ज्ञान और बुद्धिमान तो इतने कि सभी विद्याओं में महारत हासिल कर ली थी तभी तो संगीत या कला के क्षेत्र में कार्यरत लोगों को उनकी जयंती के शुभ अवसर पर विशेष रूप से उनका ध्यान कर कलम एवं वाद्य यंत्र का अवश्य पूजन करना चाहिये क्योंकि ये माना जाता हैं कि वे सभी विद्याओं के ज्ञाता हैं इसलिये तो सभी वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण, महाभारत, स्मृतियाँ आदि में किसी न किसी जगह पर उनका उल्लेख मिलता ही है हमारे यहाँ उनकी जिस तरह की छवि निर्मित की गयी उसने अधिकाशं लोगों को भ्रमित कर रखा हैं कि नारदमुनि का काम तो इधर की उधर करना और लोगों के बीच झगड़ा करवाना हैं जो कि उनकी वास्तविक छवि को धूमिल करता हैं तथा कुछ अल्प बुद्धि लोगों ने उनको कलह प्रिय देवता के रूप में भी प्रस्तुत किया है जिसकी वजह से ये तक भी देखने में आता हैं कि यूँ तो हमारे यहाँ अपने बच्चों के नाम भगवान के नाम पर रखने की प्रचलित मान्यता हैं फिर भी कोई अपनी संतान का नाम उनके नाम पर ‘नारद’ नहीं रखना चाहता क्योंकि ‘नारद’ का अर्थ है कभी न स्थिर रहने वाला और इधर से उधर भटकने वाला शायद ‘नारद’ की इसी छवि के कारण लोग अपने बच्चों का नाम ‘नारद’ नहीं रखते लेकिन यह यदि हम गहराई में जाकर उसके गूढार्थ को समझने का चिंतन करें तो पाते हैं कि जब-जब भी वो कहीं पर भी इस तरह नज़र आते हैं तो असल में उनका उद्देश्य लोक मंगलकारी ही होता हैं क्योंकि उन्होंने जब भी जो कुछ भी किया वो किसी ख़ास लक्ष्य की प्राप्ति हेतु और संपूर्ण विश्व के हित में किया ।

हर वर्ष ‘ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष द्वितीय’ को ‘नारद जयंती’ मनाई जाती है तथा पौराणिक कथाओं के अनुसार इसी दिन ‘नारद मुनि’ का अवतरण हुआ था और आज के दिन उनका विशेष पूजन कलाकारों एवं सभी के लिए लाभप्रद माना जाता है और हम इनके हाथों में जो वीणा देखते हैं जिससे वे अथक अनवरत नारायण जप करते हैं वो 'महती' के नाम से जानी जाती  है और उन्होंने कठोर साधना व तपस्या से ‘ब्रह्मर्षि’ का पद प्राप्त किया है जिसकी वजह से हर एक युग में, हर एक लोक में, हर किसी वर्ग में उनका निरंतर आना-जाना रहा हैं और भगवान के भक्तों में तो उनको सर्वश्रेष्ठ माना गया हैं इसलिये तो इन्हें भगवान का ‘मन’ कहा गया है जो चंचल होता एक पल न रुकता तो आज उनकी जयंती के शुभ अवसर पर सभी को ढेर सारी शुभकामनायें... :) :) :) !!!
______________________________________________________
०६ मई २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
--------------●------------●

कोई टिप्पणी नहीं: