शनिवार, 23 मई 2015

सुर-१४३ : "लघुकथा : प्यार का मंदिर...!!!"

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मित्रों...,


लड़के ने लड़की से कहा कि मेरे घर के लोग किसी भी तरह दूसरे धर्म की लड़की को अपनी बहू बनाने तैयार नहीं इसलिये हमे आज और अभी ही इस रिश्ते को खत्म करना होगा क्योंकि मेरे दादाजी बीमार हैं और वो चाहते हैं कि मैं जल्द से जल्द उनके दोस्त की बेटी से शादी कर लूँ

उसकी बात सुनकर लड़की खामोश रही बस, उसका हाथ पकड़कर उसे अपने साथ कहीं ले गयी पर, उस जगह पर पहुंचते ही लड़का कुछ हिचकिचाकर बोला---तुमसे कितनी बार कहा कि ये हमारे धर्म में गुनाह हैं तो लड़की तपाक से बोली---‘और प्यार...???”

तुम समझती क्यों नहीं कि ‘इश्क’ और ‘मज़हब’ दो अलहदा बातें हैं... ‘इश्क़’ का कोई ‘मज़हब’ नहीं होता और ‘मज़हब’ सबसे ‘इश्क़’ नहीं करता सिवाय उसे मानने वालों के

लड़की ने बड़ी नरमी से कहा, मैं तुम्हें जहाँ लाई हूँ... उनका धर्म भी सिर्फ ‘प्रेम’ हैं... सच कहूँ तो वो प्रेम के देवता हैं और ये प्रेम का मंदिर... ये जो सामने मूर्तियाँ दिखाई दे रही हैं ये ‘राधा-कृष्ण’ की हैं और मैं इनको मानती हूँ इसलिये तो मैंने तुम्हारा धर्म जानते हुये भी तुमसे प्यार किया तो आज तुम्हें यहाँ लाने का मकसद यही हैं कि तुम्हें बता सकूं कि यदि तुमने भी मेरी तरह प्रेम को ही अपना मज़हब माना होता तो आज हमें अलग न होना पड़ता

और... ये कहकर वो उसका हाथ छोड़कर मंदिर के अंदर चली गयी... लड़का कुछ देर सकपकाया-सा खड़ा रहा फिर जूते उतारकर अंदर जाकर उसके बगल में बैठ गया

सामने ‘राधा-कृष्ण’ मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे ।          
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२३ मई २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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