शुक्रवार, 22 मई 2015

सुर-१४२ : "राजा राम मोहन रॉय ने सिखाई... आधुनिकता की पट्टी पढाई...!!!"

अनेक
कुप्रथाओं में
जकड़ी थी ‘संस्कृति’
तोड़ दी वो सभी जंजीरें 
बनाया देश को
आधुनिक हर तरह से
किया उसका पुनर्जागरण
तभी तो वो कहलाये...
‘आधुनिक समाज के अग्रदूत’
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मित्रों...,

आज हम इक्कीसवीं सदी के साथ कदमताल करते हुये अत्याधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करते हुये अंतरिक्ष में भी पहुँच चुके हैं लेकिन इसके बावज़ूद भी कहने में तनिक संकोच नहीं होता कि हम अपनी पुरातन कुरीतियों और अंधविश्वास की जकड़न से बहुत अधिक आज़ाद नहीं हुये हैं वो भी तब जबकि सभी शिक्षित और हर तरह के यंत्रों के साथ अपटूडेट हैं लेकिन आज आधुनिकता के नाम पर जिस तरह से केवल बाहरी पहनावे, पाश्चात्य संस्कृति के अनुकरण, पश्चिमी भाषा में गिटर-पिटर करने से ज्यादा आगे नहीं बढ़े हैं क्योंकि हमारे लिए यही ‘आधुनिक’ होने का पर्याय हैं लेकिन एक समय था जब हम किसी के रंग-ढंग का दिखावा करने की बजाय अपनी संस्कृति पर गर्व करते थे और इनमें जो भी खामियां थी इसे दूर कर अपने स्वदेश को अपनी स्वतंत्र पहचान खोये बिना अन्य देशों के साथ तरक्की की राह पर लाना चाहते थे तभी तो उस वक़्त सारा जोर केवल अपने उपर था कि हमारे वो कौन-से रीति-रिवाज या संस्कार हैं जो वर्तमान समय के अनुकूल नहीं हैं तो उनमें बदलाव लाकर अपने स्वरूप को नया जामा पहनाया जाये पर, अब जिसे देखो वो ही अपने आपको केवल मौखिक  रूप से भारतीय कहलाने में गर्व करने का दिखावा करता लेकिन उसकी किसी भी बात, खान-पान, परिधान से ये ज़ाहिर नहीं होता कि वो आखिर किस देश का बाशिंदा हैं हम समझने लगे हैं कि अल्ट्रा मॉडर्न ड्रेस पहनना, पाश्चात्य जुबान बोलना, आयातित सामान खरीदना, फ़ास्ट फ़ूड खाना और पॉप या रॉक सोंग गाना हमें ‘आधुनिक’ साबित करता हैं तभी तो अब सबका जोर इसी पर हैं जबकि आज से तीन सौ साल पहले के लोगों को ये इल्म हो गया था कि यदि हम अन्य देशों से तरक्की में पिछड़े हैं तो इसकी वजह ये नहीं हैं कि हम उनकी तरह कपड़े नहीं पहनते या उनकी तरह बोलते नहीं बल्कि इसलिये कि हमारे देश में बहुत सारी ऐसी प्रथायें हैं जिन्होंने हमें इस कदर रुढ़िवादी और कुंए का मेढ़क बना अपनी बेड़ियों में जकड़ लिया हैं कि हम उनसे आज़ाद नहीं हो पा रहे और जिसके कारण हम आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं तो जैसे ही उनको ये ज्ञान हुआ उन्होंने उन सारी कुरीतियों का पता लगाया और उन्हें खत्म करने का प्रयास किया ताकि हम इस कैद से आज़ाद होकर विकास की राह में आगे बढ़ सके तभी तो उस वक़्त लोगों ने प्रगति में बाधक मार्ग की इन सभी रुकावटों को दूर करने का अभियान चलाया और उनके इन कठिन परिश्रम का ही परिणाम हैं कि आज हम बहुत सी ऐसी रवायतों को बंद कर पाने में सफ़ल हुये हैं लेकिन अभी भी कुछ स्थानों पर ऐसा संभव नहीं हो पाया पर, हमने अपनी आज़ादी का गलत फायदा उठाते हुये किसी और ही दिशा में अपने कदमों को बढ़ा दिया हैं अतः ऐसे में तो ये बहुत जरूरी हो जाता हैं कि हम पीछे मुड़कर अपने उन सभी कर्मठ आधुनिक भारत की आधारशिला रखने वाली महान शख्सियतों का पुनरावलोकन करें जिससे कि ये जान पाये कि समय के अनुसार हमारी प्राथमिकता क्या होनी चाहिये ???   

हम सबने ही इतिहास में ऐसे ही एक आदर्श व्यक्तित्व का जीवन चरित पढ़ा हैं जिसे कि ‘भारतीय पुनर्जागरण का पिता’ या ‘भारतीय राष्ट्रवाद का प्रवर्तक’ या ‘नये युग का अग्रदूत’ या 'आधुनिक भारतीय समाज का जनक’ कहकर संबोधित किया जाता था वो थे ‘राजा राममोहन रॉय’ जो कि आज ही के दिन यानि कि २२ मई १७७२ ई. को मतलब कि आज से लगभग तीन सौ साल पहले ‘बंगाल’ के ‘मुर्शिदाबाद जिले’ के एक गाँव ‘राधा नगर’ में प्राचीन सभ्यता के पुरोधा ‘रमाकांत राय’ नाम के बंगाली ब्राह्मण परिवार में हुआ था और उन्होंने किशोरावस्था में ही अपनी भाभी के विधवा होने के बाद अपने परिजनों के द्वारा उनको ‘सती’ होने के लिये विवश करते देखा तो उनका कोमल हृदय करुणा से द्रवित हो गया और उसी वक़्त उन्होंने अपने समाज फैली हुई इस तरह की सभी रुढ़िवादी परंपराओं को जद से खत्म करने का मन में संकल्प ले लिया और इसके लिये अपनी कोशिशे भी प्रारंभ कर दी जिसकी वजह से उन्हें सबसे पहले अपनी परिवार वालों का ही विरोध झेलना पड़ा और उन्हें घर से ही निकाल दिया गया परंतु ये भी उनके हौंसलों को कमजोर न कर सका । ‘राजा राम मोहन राय’ के संपूर्ण जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि माना जाता हैं इस देश में ‘सती प्रथा’ जैसी अमानवीय प्रथा को समाप्त करना और इसके लिये उन्होंने अथक प्रयास किये अनेक आंदोलन चलाये कई लेख लिख्र लोगों को जागरूक बनाया जिससे कि स्त्री जाति को भी आगे बढने का अवसर प्राप्त हो यहाँ तक कि उन पर जान के हमले भी किये गये लेकिन इसके लिये उन्होंने अपनी जान की भी परवाह नहीं की अंततः तत्कालीन सरकार से मिलकर ‘लॉर्ड विलियम बैंण्टिक’ की मदद से १८२९ में इस कुप्रथा को ग़ैर-क़ानूनी एवं दंण्डनीय घोषित करवाने का शासनादेश जारी करा दिया और इस तरह सती प्रथा के मिटने से राजा राममोहन राय संसार के मानवतावादी सुधारकों की सर्वप्रथम पंक्ति में आ गये तथा सभी उनको समाज सुधारक के रूप में जानने लगे ।

हिन्दू समाज की कुरीतियों के घोर विरोधी होने के कारण १८२८ में उन्होंने 'ब्रह्म समाज' नामक एक नये प्रकार के समाज की स्थापना की इसके अतिरिक्त उनका ये भी मानना था कि यदि हम महिलाओं को शिक्षित करें तो समाज की स्थिति को और भी बेहतर किया जा सकता हैं अतः उन्होंने सरकार से मिलकर महिलाओं के लिए उच्च शिक्षा प्रवर्तन के विद्यालय स्थापित कराये इसके अतिरिक्त उन्होंने केशवचंद्र सेन, ईश्वरचंद्र विद्यासागर के साथ ऐंग्लो वैदिक स्कूलों एवं ‘हिन्दू कॉलेज’ की स्थापना में सहायता दी यह संस्था उन दिनों की सर्वाधिक आधुनिक संस्था थी तथा देश में प्रचलित बाल-विवाह, सती प्रथा, जातिवाद, कर्मकांड, पर्दा प्रथा आदि का उन्होंने भरपूर विरोध किया महिला जागृति एवं सशक्तीकरण के उनके प्रयास आज भी सराहे जाते हैं उन्होंने अपना पूरा जीवन भारत की सामाजिक बुराईयां दूर करने में बिता दिया। वे उस समय ही ‘आधुनिक शिक्षा’ के समर्थक थे इसलिये उन्होंने ‘गणित’ एवं ‘विज्ञान’ पर अनेक लेख तथा पुस्तकें लिखीं साथ ही १८२१ में उन्होंने 'यूनीटेरियन एसोसिएशन' की स्थापना की वे उस समय के सबसे बड़े प्राच्य भाषाओँ के ज्ञाताओं में से एक थे तथा उनको अपनी स्वदेशी भाषाओँ के अतिरिक्त अरबी, फ़ारसी, अंग्रेज़ी, ग्रीक, हिब्रू आदि विदेशी भाषाओं का बी पूर्ण ज्ञान था और उनका विश्वास था कि भारत की प्रगति केवल उदार शिक्षा के द्वारा ही हो सकती हैं तो इसके लिये उन्होंने  पाश्चात्य विद्या तथा ज्ञान की सभी शाखाओं में शिक्षण व्यवस्था की संकल्पना को बढ़ावा दिया जिसके लिये उन्होंने ऐसे लोगों का पूर्ण समर्थन किया जिनको अंग्रेज़ी भाषा तथा पश्चिमी विज्ञान की जानकारी थी और वे अपने प्रयत्नों में सफल भी हुये जिसके लिये उन्हें मुग़ल सम्राट की ओर से 'राजा' की उपाधि दी गयी।

वे बाल्यकाल से बड़े प्रतिभाशाली और विद्वान थे तथा जब लगभग १५ साल के रहे होंगे तब उन्होंने बंगला में एक छोटी सी पुस्तिका लिखी थी, जिसमें उन्होंने ‘मूर्तिपूजा’ का खंडन किया था क्योंकि उनका तर्क था कि वह वेदों में नहीं है अतः उसकी आवश्यकता नहीं हैं जिसके लिये नवयुवक राममोहन को अत्याधिक कष्टों का सामना करना पड़ा वे ‘एकेश्वरवादी’ हिंदू थे फिर भी उन्होंने जैन, इस्लाम, ईसाई आदि सभी धर्मों को जानने का प्रयास किया जिसके लिये उन्होंने उनके महत्त्वपूर्ण धर्मग्रंथों का मूल रूप में अध्ययन किया जिसने उनकी सभी धर्मों की पारस्परिक तुलना करने में सहायता की और सभी धर्मों के अध्ययन से वे इस परिणाम पर पंहुचे कि सभी धर्मों में अद्वैतवाद सम्बधी सिद्धांतों का प्रचलन है जिससे पता चलता हैं कि ‘विश्वधर्म’ की उनकी धारणा किन्हीं संश्लिष्ट सिद्धांतों पर आधारित नहीं थी अपितु विभिन्न धर्मों के गम्भीर ज्ञान पर ही आधारित थी । उन्होंने वेदों और उपनिषदों का बंगला अनुवाद भी किया तथा वेदान्त के ऊपर अंग्रेज़ी में लिखकर उन्होंने यूरोप तथा अमेरिका में भी बहुत ख्याति अर्जित की इस तरह हम देखते हैं कि ‘राजा राममोहन राय’ एक धार्मिक सुधारक तथा सत्य के अन्वेषक भी थे तभी तो हर धर्म के लोग उन्हें अपना समझते थे । उस समय ही उन्होंने ‘प्रेस की आजादी’ जैसे विभिन्न सामाजिक पहलुओं की तरफ भी जागरुकता पैदा की और समाचारपत्र नियमों के विरुद्ध प्रबल आन्दोलन चलाया उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय को एक स्मृति-पत्र दिया, जिसमें उन्होंने समाचार पत्रों की स्वतंत्रता के लाभों पर अपने विचार प्रकट किए थे समाचार पत्रों की स्वतंत्रता के लिए उनके द्वारा चलाये गये आन्दोलन के कारण ही १८३५ ई. में समाचार पत्रों की आज़ादी के लिए मार्ग बन सका ।

इस तरह अनवरत सामजिक, धार्मिक, जन-जागरण के कार्य करते हुए २७ सितम्बर, १८३३  को ‘इंग्लैंड’ में ‘राजा राममोहन राय’ की मृत्यु हो गई और ब्रिटेन के ब्रिस्टल नगर के आरनोस वेल क़ब्रिस्तान में राजा राममोहन राय की समाधि है तथा ‘ब्रिस्टल नगर’ में ही एक प्रमुख स्थान पर चमकीले काले पत्थर से बनी राजा राममोहन राय की लगभग दो मंजिला ऊँचाई की एक प्रतिमा भी स्थापित है, जिसमें में वे पुस्तकें हाथ में पकड़े खड़े हैं... तो इस तरह तीन सौ साल पहले एक ऐसा ‘सुपर हीरो’ हुआ जिसने अपने देश की कमियों को न सिर्फ जाना बल्कि उन्हें दूर करने में अपना जीवन खपा दिया... जिसकी बदौलत हम अनेक कुप्रथाओं से निजात पाकर खुली हवा में साँस ले सके और इस तरह उस जमाने में एक व्यक्ति ने हमें बताया कि आधुनिकता का मतलब सिर्फ लिबास बदलना नहीं बल्कि सोच बदलना हैं... अपने देश को विश्वमंच पर लाने के लिये अपने पैरों की अंधविश्वास की जंजीरें काटना हैं जो हमें असभ्य बनाती हैं... तो अब हमें फिर से आधुनिकता को समझने की जरूरत हैं और उसके लिये उतनी ही एकजुटता और अथक परिश्रम भी करना होगा... तब उन महापुरुषों का त्याग समर्पण सार्थक हो पायेगा... उम्मीद हैं कि हम इस बात को जल्द से जल्द समझ पायेंगे... :) :) :) !!
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२२ मई २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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