मंगलवार, 12 मई 2015

सुर-१३२ : "बनी सबकी हमदर्द... दया की प्रतिमूर्ति वो नर्स...!!!"

लिये लैंप
अपने हाथों में
खोजती रहती मरीज
फिर खुद अपने हाथों लगाती  
जख्मों पर स्नेहिल मरहम
दूर करती उनके हर गम
वो कोई और नहीं थी...
.....
एक इंसान ही थी
जो सेवा कर बन गयी
हर रोगी की दवा, उसकी हमदर्द
जिसे कहते हैं हम सब 'नर्स'
रखी नींव 'नोबल नर्सिंग सेवा' की
देकर गयी मानवता का अद्भुत संदेश
तभी प्यार से मनाते उनका जन्मदिवस
जो कहलाता 'अंतर्राष्ट्रीय नर्स दिवस'
हो गयी सदा के लिये अमर...
सेवा की मूर्ति 'फ्लोरेंस नाइटिंगेल' !!!  
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मित्रों...,

किसी-किसी के भीतर जन्म से ही अपार वेदना और संपूर्ण मानवता के प्रति अति संवेदनशीलता होती हैं तभी तो वे जब भी कोई भी हृदयविदारक दृश्य देखते तो न सिर्फ़ उनकी आत्मा द्रवित हो जाती बल्कि वो तत्क्षण उसके लिये कुछ करने को तत्पर हो जाते दूसरों की तरह केवल सहनुभूति के चंद अल्फाज़ कहकर अपना फर्ज़ पूरा नहीं कर लेते और यही वो लोग होते जो इतिहास के पन्नों में अपना नाम सुनहरे अक्षरों से दर्ज करवा जाते क्योंकि इनका त्याग समर्पण और किये गये कार्य सबसे अलहदा होते जिसे कि ये हर विषम परिस्थिति को सहकर भी करते रहते ताकि देश और दुनिया में अमन-चैन बना रहे जबकि ऐसे ही न जाने कितने दिल को झकझोरते दृश्य और खबरें हम सब रोज पढ़ते लेकिन दो शब्दों में अपनी बात कहकर और सरकार के सर पर सारा ठीकरा फोड़कर या ‘अच्छे दिन आ गये’ का जुमला बोलकर कर्तव्य मुक्त हो जाते क्योंकि हमारा यही मानना हैं कि हम अकेले क्या कर सकते हैं पूरे ‘सिस्टम’ से तो लड नहीं सकते सबसे बड़े आश्चर्य की बात कि ये सब बातें हम उस युग में करते जब हम हर तरह की सुविधाओं के बीच बैठे हैं और सब कुछ हमारी उँगलियों में उपलब्ध हैं किसी भी काम के लिये कहीं जाने की जरूरत नहीं सब कुछ आदेश करने पर तुरंत हाज़िर इतनी उच्च तकनीक आ गयी कि अब मशीनों से बहुत कुछ किया जाना संभव हो सका लेकिन हम जिनकी अमर जीवन गाथा पढ़ते वो तो हर तरह के साधनों ही नहीं मामूली सी बिजली, पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं से भी वंचित थे लेकिन उनके हौंसलों और जज्बे में कहीं भी कोई कमी नहीं आई तभी वो तो अथक अनवरत परिश्रम करते रहे इसलिये जब कभी किसी ऐसे बलिदानी के पुण्य स्मरण का दिन आता तो बरबस ही उसके ख्याल और संघर्ष को याद कर न सिर्फ़ आँखें बल्कि भीतर भी कुछ नम हो जाता कि ये किस तरह का युग आ गया जहाँ सिर्फ़ बातें ही बातें रह गयी जज्बात तो सभी मर रहें धीरे-धीरे लेकिन फिर भी जब कभी कहीं से कोई आपदा या विपदा की खबर आती और सब एकजुट होकर उनके लिये न सिर्फ़ दुआ में बल्कि सेवा के लिये भी हाथ आगे कर देते तो लगता कि नहीं... अभी भी मानवता जिंदा हैं और उसी के भरोसे ही तो प्रभु भी इस सृष्टि को अब तक बचाकर रखा हैं वरना ‘कलयुग’ कोई आज तो आया नहीं पर... लगता उसका अंत अभी दूर हैं क्योंकि भले ही लगे सब मस्ती में चूर हैं पर... किन्हीं दर्दीले पलों में सब आते नज़र जोश से भरपूर हैं लेकिन न जाने क्यों अपने अनमोल समय को गंवाते फ़िज़ूल हैं ऐसे में उन कथाओं को फिर से दोहराना जरुर हैं... जिसने जुड़े हमारी संवेदनाओं के सूत्र हैं    

बात थोड़ी पुरानी जरुर हैं लेकिन अत्यंत महत्वपूर्ण और स्मरणीय हैं कि आज से लगभग दो सौ बरस पूर्व १२ मई १८२० को एक अत्यंत उच्च कुलीन ब्रिटिश परिवार में ‘फ़्लोरेन्स नाइटिंगेल’ का जन्म हुआ परंतु पैदाइश से ही उन्हें विलासिता से भरे उस वैभवपूर्ण ब्रिटिश जीवन के प्रति किसी भी तरह का कोई मोह नहीं था क्योंकि उनके अंतर्मन में तो पीड़ित मानवता के प्रति दया का सागर हिलोरें ले रहा था और उसके लिये कुछ करने का मन था तभी तो इतने धनवान परिवार में रहने के बावज़ूद भी वे रोगग्रस्त और परेशान लोगों के लिये कुछ करने का भाव रखती थी जिसके लिये उन्हें अपने परिजनों का गुस्सा भी झेलना पड़ा क्योंकि उस कालखंड में नर्सिंग के कार्य को सम्मानजनक दृष्टि से नहीं देखा जाता था और न ही इस कार्य के लिये किसी तरह का प्रशिक्षण उपलब्ध था तो ऐसे में यदि किसी बड़े खानदान की कन्या ऐसा मार्ग चुनने की ख्वाहिश रखे और अपना तमाम जीवन उनको समर्पित करने का व्रत ले ले तो हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि उस वक़्त उन्हें घर-समाज से किस तरह के आक्रोश का सामना करना पड़ा होगा लेकिन जिन्हें अपने ध्येय का पता होता हैं और जिनके लिये परोपकार ही सर्वोच्च धर्म होता हैं वे किसी भी विरोध की परवाह नहीं करते शायद भगवान भी उनका साथ देता हैं तभी तो वो हर प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करते हुये अपने लक्ष्य को प्राप्त कर के ही रहते हैं ‘फ्लोरेंस’ ने १८४० में इंग्लैंड में पड़ने वाले भयंकर अकाल के समय के दर्दनाक दिल को चीरने वाले दृश्य देखे तो वे अकाल पीडितों की उस दयनीय स्थिति को देखकर अत्यधिक बेचैन हो गई और उसी क्षण उन्होंने अपने जीवन का मार्ग सुनिश्चित कर लिया तथा अपने एक पारिवारिक मित्र ‘डॉ. फाउलर’ से उन्होंने नर्स बनने की अपनी आंतरिक इच्छा प्रकट की जिसे सुनकर उनके परिजनों और मित्रों में खलबली मच गई पर, इतने प्रबल विरोध के बावजूद ‘फ्लोरेंस’ ने अपना दृढ़ इच्छाशक्ति को अडिग रखा और बड़ी हिम्मर से विभिन्न देशों में अस्पतालों की स्थिति के बारे में किसी तरह से जानकारी जुटाई फिर अपने शयनकक्ष में मोमबत्ती जलाकर उसका अध्ययन किया जब उनके परिवार वालों ने उनका ये समर्पण और रुझान देखा तो अंततः वे मान ही गये और उन्होंने खुद ही उसे ‘कैन्सर्वर्थ संस्थान’ में नर्सिंग की ट्रेनिंग के लिये भेज दिया और इस तरह उनके सपनों को परवाज़ मिली जहाँ से उनकी मंजिल तक पहुँचने की संकल्पित यात्रा का शुभारम्भ हो गया

उसी समय १८५४ में ‘क्रीमिया’ के युद्ध में जब असंख्य लोग मारे गये और दर्द से करह रहे थे तब उन्होंने बिना अपनी जान की परवाह किये उधर का रुख किया और उस वक़्त वे दिन-रात न देख केवल लोगों की सिसकियाँ सुन उसका इलाज़ करती, उनकी तकलीफ से भरी दर्दयुक्त चीख पर उनके कान लगे रहते और वे अपने हाथ में एक लैंप लिये घायलों एवं रोगियों को तलाशती उनके जख्मों को सहलाती उन पर बड़े ही प्रेम से मरहम लगाती उनकी इस अनूठी कार्य क्षमता के कारण उन्हें ‘लेडी विद द लैंप’ की उपाधि से सम्मानित किया गया क्योंकि जब सब चिकित्सक चले जाते तब वह रात के गहन अंधेरे में मोमबत्ती जलाकर घायलों की सेवा के लिए उपस्थित हो जाती । उनसे पहले कभी भी किसी भी महिला ने बीमार घायलो के उपचार पर न तो इतना ध्यान दिया न ही इस कदर जी जान से उनके सुश्रुषा की परंतु ‘फ्लोरेंस’ ने तो सदा के लिये इस क्षेत्र में अपना नाम तो रोशन कर ही लिया साथ-साथ अन्य लोगों के लिये भी इस द्वार को खोल दिया क्योंकि जिस तरह से उन्होंने ‘क्रीमिया’ के युद्ध के समय रात-रात भर जाग कर एक लालटेन के सहारे इन घायल सैनिको की बहुत सेवा की थी उनकी प्रेरणा से ही नर्सिंग क्षेत्र मे महिलाओं को आने की प्रेरणा मिली थी इस तरह से इस पेशे को सम्मान दिलाने का श्रेय ब्रिटेन की ‘फ्लोरेंस नाइटिंगेल’ को ही जाता है

कहते हैं कि ‘क्रीमियन युद्ध’ में फ्लोरेंस को लैंप वाली महिला” (The Lady with a Lamp) का उपनाम १८५४ ‘द टाइम्स’ अखबार में छपी इस खबर के आधार पर मिला था---

वह तो साक्षात् देवदूत है दुर्गन्ध और चीखपुकार से भरे इन अस्थाई अस्पतालों में वह एक दालान से दूसरे दालान में जाती है और हर मरीज की भावमुद्रा उसके प्रति आभार और स्नेह के कारण द्रवित हो जाती है रात में जब सभी चिकित्सक और स्टाफ अपने-अपने कमरों में आराम से सो रहे होते हैं तब वह अपने हाथ में एक लैंप लेकर हर बिस्तर तक जाती है और मरीजों की ज़रूरतों का ध्यान रखती है  

इसके बाद उन्होंने इस कार्य को व्यापक रूप देने हेतु तथा महिलाओं को इस कार्य में प्रशिक्षित करने के नेक काज के साथ १८५९ में ‘सेंट थॉमस अस्पताल’ में ‘नाइटिंगेल प्रक्षिक्षण विद्यालय’ की स्थापना की चूँकि नर्सिग के अतिरिक्त उनकी रूचि लेखन में भी थी तो इसी बीच उन्होंने ‘नोट्स ऑन नर्सिग’ नाम से उपयोगी जानकारी से भरी एक अभूतपूर्व पुस्तक भी लिखी इस तरह से उन्होंने अपने जीवन का बाकी समय ‘नर्सिग’ कार्य को बढ़ाने व इसे अत्याधुनिक रूप देने में ही बिता दिया इस कारण उनको ‘आधुनिक नर्सिग’ की जन्मदात्री  माना जाता है और उनके इस उल्लेखनीय कार्यों के लिये १८६९ में उन्हें ‘महारानी विक्टोरिया’ ने ‘रॉयल रेड क्रॉस’ जैसे महानतम पुरस्कार से भी सम्मानित किया ये भी कहा जाता हैं कि युद्ध में घायलों की सेवा सुश्रूषा के दौरान मिले गंभीर संक्रमण ने उन्हें जकड़ लिया था अतः ९० वर्ष की आयु में १३ अगस्त, १९१० को उनका निधन हो गया । १९६५ से आज तक प्रति वर्ष ‘इंटरनेशनल काउंसिल ऑफ नर्सेज’ द्वारा दया व सेवा की प्रतिमूर्ति एवं ‘नोबल नर्सिंग सेवा’ की शुरूआत करने वाली 'फ्लोरेंस नाइटइंगेल' का जन्म दिवस १२ मई दुनिया भर में ‘अन्‍तर्राष्‍ट्रीय नर्स दिवस’ के रूप में मनाया जाता है । नर्सों की सराहनीय सेवा को मान्‍यता प्रदान करने के लिये ‘भारत सरकार’ के ‘परिवार एवं कल्‍याण मंत्रालय’ ने भी ‘राष्‍ट्रीय फ्लोरेंस नाइटिंगल पुरस्‍कार’ की शुरुआत की और प्रत्‍येक वर्ष आज के ही दिन ये प्रदान किये जाते हैं जो कि माननीय राष्ट्रपति द्वारा दिये जाते हैं जिसके अंतर्गत पचास हज़ार रुपए नकद, एक प्रशस्ति पत्र और मेडल दिया जाता है... जो बताता हैं कि जब कोई व्यक्ति मानवता को ही अपना धर्म मान लेता और उसकी सेवा में अपना संपूर्ण जीवन त्याग देता हैं तो फिर सिर्फ़ उसके देश में ही नहीं संपूर्ण ब्रम्हांड में उसके सत्कर्मों का यश गूंजता हैं... और नर्सिंग के कार्यक्षेत्र में जुड़ने वाली हर एक सिस्टर ‘फ्लोरेंस’ के नाम पर ली जाने वाली नाइटिंगेल प्लेज’ से अपने काम-काज का आगाज़ करती हैं जो सदैव उनकी याद दिलाती रहेगी... जो कहती थी कि---“मेरी सफ़लता का राज यही हैं कि मैंने कभी किसी बहाने का सहारा नहीं लिया”... और हम इनसे बाहर ही नहीं निकल पाते तभी तो जहाँ हैं वहीँ रह जाते... और कोई हर अभाव से जूझते हुये भी अपना नाम कर जाते... ऐसी सभी नर्सों और उनकी एकनिष्ठ सुश्रूषा को मन से नमन... जो लगाती जख्मों पर मरहम... :) :) :) !!!
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१२ मई २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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