शुक्रवार, 29 मई 2015

सुर-१४९ : "स्वाभाविक अभिनय से भरपूर... पृथ्वीराज कपूर...!!!"


कल
आज
और कल...
‘कपूर खानदान’
आज भी बरक़रार
‘पृथ्वीराज कपूर’ ने रखी
अभिनय की जो नींव
वो पीढ़ी दर पीढ़ी
होती जा रही और मजबूत...
आज भी कहलाते हैं युगपुरुष    
‘पृथ्वीराज कपूर’ 
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मित्रों...,

‘कपूर खानदान’ हिंदी सिनेमा का एकमात्र खानदान हैं जिसकी लागतार पांच पीढियां अभिनय के क्षेत्र में आज तक सक्रिय हैं और यदि इन्हें बॉलीवुड का पर्याय भी कहा जाये तो अतिशयोक्ति न होगी क्योंकि ये परिवार अपनी पूरी आन-बान-शान के साथ इसी के दम पर अपना अपना परचम फ़हरा रहा हैं जिसकी नींव लगभग हिंदी सिनेमा की स्थापना के साथ-साथ ही रख दी गयी थी यूँ तो हम सभी ये बात अच्छी तरह से जानते हैं कि ‘दादा साहब फाल्के’ हिंदी सिनेमा के जनक कहलाते हैं क्योंकि उन्होंने ही हिंदुस्तान में चलचित्रों का निर्माण शुरू किया लेकिन यदि हम ये कहे कि इस में अपने अभिनय से जान डालने वाला यदि कोई हैं तो वो हैं ‘पृथ्वीराज कपूर जी’ जिन्होंने इसे उसकी बाल्यावस्था में ही इस तरह से अपने पूर्ण समर्पण और त्याग के साथ चार दशक तक इस तरह संवारा कि आज भी उनका द्वारा रोपा गया अभिनय का बीज एक विशाल वट वृक्ष में तब्दील होकर समस्त बॉलीवुड को अपनी छत्रछाया में समेटा हैं तो ये कोई अतिश्योक्ति न होगी । ०३ नवंबर१९०६ को पिता दीवान ‘बशेस्वरनाथ कपूर’ के यहाँ जन्मे जो कि ‘पुलिस विभाग’ में ‘सब इंस्पेक्टर’ के रूप में काम करते थे और ‘पृथ्वी’ ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा ‘लायलपुर’ और ‘लाहौर’ (पाकिस्तान) में रहकर पूरी की इसके बाद ही उनके पिता का स्थानांतरण ‘पेशावर’ में हो गया तो फिर उन्होंने अपनी आगे की पढ़ाई ‘पेशावर’ के ‘एडवर्ड कॉलेज’ से करने के साथ-साथ ही क़ानून की पढ़ाई भी की लेकिन बीच मे उनका रूझान थियेटर की ओर होने की वजह से एकाएक उन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़कर १९२८ में ही सपनों की नगरी मुंबई जाने के फैसला कर  लिया और पास में पैसे नहीं थे तो अपनी चाची से मदद लेकर पहुंच गये अपने सपनों को साकार करने और ऐसे पहुंचे कि इतिहास ही रच दिया जिस तरह से उन्होंने कदम दर कदम अपनी मंजिल को अपने करीब किया उसकी वजह से तो वे मिसाल बन गये वे यहाँ आकर उन्होंने ‘इंपैरियल फ़िल्म कंपनी’ से अपने काम का आगाज़ किया जिसकी वजह से उन्हें १९३० में 'सिनेमा गर्लनाम की एक फिल्म में काम करने का अवसर मिल गया पर इसके अलावा ‘एंडरसन’ की थिएटर कंपनी के नाटक शेक्सपियर में भी अभिनय किया और इन सभी कामों ने उनके अंदर के कलाकार को जगा दिया और अनवरत प्रयासों से आख़िरकार १९३१ में प्रदर्शित होने वाली भारत की प्रथम बोलती फ़िल्म ‘आलम आरा’ में सहायक अभिनेता के रूप में काम करने का मौक़ा मिला गया इस तरह उनके फ़िल्मी कैरियर की शानदार शुरुआत हो गयी थी 

इसके बाद वे ‘कोलकाता’ के मशहूर ‘न्यू थिएटर’ के साथ जुड गये और ‘न्यू थिएटर’ की कई फ़िल्मों मे अभिनय किया जिनमें ‘मंजिल''प्रेसिडेंटऔर इसके बाद ही वर्ष १९३७ में आने वाली ‘विद्यापति’ ने उनको पूर्ण रूप से स्थापित कर दिया इसमें उनके काम को हर किसी ने पसंद किया और फिर इसके बाद वर्ष १९४१ में आने वाली ‘सोहराब मोदी’ की ‘सिकंदर’ फिल्म में उन्होंने इस तरह से उस किरदार को पर्दे पर जीवंत किया कि अब तो वे सफलता के शीर्ष पर जा पहुंचे । इसके बाद ही उन्होंने वर्ष १९४४ में ‘पृथ्वी थिएटर’ की आधारशिला रखी जो आज भी उतनी मजबूती से सर उठाकर खड़ी हैं जहाँ पर उन्होंने अनेक प्रयोग किये एवं उस जगह की सभी नाट्य प्रस्तुतियों में सामजिक जागरूकता के अतिरिक्त देशभक्ति, मानवीयता, धर्म-अध्यात्म आदि का संदेश देने वाली नाटिका होती थी और ये उस समय के सभी अन्य थियेटरों से एकदम अलग था और वे लोग जो कि सिनेमा के रुपहले पर्दे के दीवाने हो चुके थे पुनः थियेटर की पसंद करने लगे थे  कहते हैं कि सोलह वर्ष में पृथ्वी थिएटर के 2662 शो हुए जिनमें ‘पृथ्वीराज’ ने लगभग सभी शो में मुख्य किरदार निभाते हुए ही फ़िल्मी पर्दे पर भी विविध बहुरंगी किरदार को साकार किया और इस तरह दोनों माध्यमों में संतुलन बनाये रखा और वे ‘पृथ्वी थिएटर’ के प्रति इस क़दर समर्पित थे कि तबीयत ख़राब होने के बावजूद भी वह हर शो में हिस्सा लिया करते थे। यहाँ तक कि ऐसा भी पढ़ने को मिलता हैं कि एक बार तत्कालीन प्रधानमंत्री ‘जवाहर लाल नेहरू’ ने उनसे विदेश में जा रहे सांस्कृतिक प्रतिनिधिमंडल का प्रतिनिधित्व करने की पेशकश कीलेकिन पृथ्वीराज ने नेहरू जी से यह कह उनकी पेशकश नामंजूर कर दी कि वह थिएटर के काम को छोड़कर वह विदेश नहीं जा सकते इस कदर बेपनाह लगाक था उनको अभिनय और थियेटर से जिनसे कई प्रतिभाओं को उभरने का सुनहरा मौका ही नहीं मंच भी प्रदान किया और आज भी कर रहा हैं 

मेरे ख्याल से ऐतिहासिक फिल्म ‘मुगल-ए-आज़म’ में अभिनीत उनके मुगल सम्राट ‘अकबर’ के चरित्र को तो आज की पीढ़ी ने भी देखा होगा और इस तरह से वो भी उनके नाम और काम से परिचित होगी और उनके पुत्र की ही कालजयी ‘आवारा’ एवं पोते की ‘कल आज और कल’ में भी लोग आज भी उन्हें उसी तरह जिंदादिली से काम करते देखते हैं जो अपने आप में ये बात दर्शाती हैं कि व्यक्ति का कर्म उसे सदियों तक जिंदा रखता हैं उसके जाने के बाद भी केवल उसके माध्यम से ही उसका वजूद बरक़रार रहता हैं इसके अलावा उनका आला खानदान जो अब भी कार्यरत हैं उनके नाम को आगे लेकर जा रहा हैं उनके पुत्र, पोते, पड़पोते और पड़पोतियाँ भी तो अपने परदादा को भूले नहीं जिन्होंने उनके लिए इस स्वपन नगरी के द्वार खोले... अभिनय सम्राट ‘पृथ्वीराज’ को देश के सर्वोच्च फ़िल्म सम्मान ‘दादा साहब फाल्के’ के अलावा ‘पद्म भूषण’ तथा कई अन्य पुरस्कारों से भी नवाजा गया साथ ही  उन्हें ‘राज्यसभा’ के लिए भी नामित किया गया था... ताउम्र सहज-सरल स्वाभाविक अभिनय से वे खुद एक जीती-जागती पाठशाला बन गये थे जो कि आज ही के दिन याने कि २९ मई १९७२ को हम सबको अपनी यादों के साथ छोडकर चले गये.. आज उनकी पुण्यतिथि पर यही हैं उनको हमारी शब्दांजलि... :) :) :) !!!
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२९ मई २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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