रविवार, 24 मई 2015

सुर-१४४ : "नींद क्यों रात भर नहीं आती...???"

सब
कुछ हैं पास
पर, न होता कभी
सुकूं का
वो अलहदा अहसास
जो मिटा दे प्यास
और... जगा दे
मन में जीने की नई आस
काश, मिल जाये
नींद लाने का कोई पुराना राग़
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मित्रों...,

जितनी भी सुविधायें बढ़ रही हैं इंसान का चैन-सुकून उतना ही खोता जा रहा हैं तभी तो जब कभी जीने के लिये इतने अधिक सामान, सुविधा भोगने के इतने ज्यादा साधन न थे आदमी इतना परेशान भी न था... पर, अब तो दो पल की बेफ़िक्री और चंद घंटे की तनावरहित नींद के लिये तरसता हैं क्योंकि इन सब यंत्रों और मशीनों ने उसके काम तो आसान कर दिये और खुद के लिये बहुत सारा वक़्त भी मुहैया करा दिया लेकिन फिर भी उसको सोने का वो राहत भरा वातावरण और ताजगी भरी सुबह तलाशने से भी नहीं मिलती... अब तो सारा कमरा तमाम आधुनिक इलेक्ट्रोनिक आइटम्स टेलीविजन, ए.सी., मोबाइल, वाटर कूलर से लदा-फदा रहता यहाँ तक कि बिस्तर पर भी छोटा-मोटा कोई गेजेट पड़ा ही रहता जिनसे आदमी को मनोरंजन और सुविधा भोगने के लिये तो कितना क्या मिल जाता ये तो पता नहीं पर, उनसे निकलने वाली जहरीली तरंगों से उस छोटे-से कमरे में दमघोटू परिवेश जरुर निर्मित हो जाता... यहाँ तक कि अब तो कमरे में ही टॉयलेट भी बने रहे कहने का मतलब कि आज के समय में इंसान अधिक आरामपरस्त हो गया हैं उतना पहले कभी नहीं था फिर भी शिकायतें ही कि खत्म होने का नाम ही नहीं लेती... अभी भी उसे संतोष नहीं इससे अधिक की चाहना हैं

उसे हमेशा लगता कि यदि फलां चीज़ में ये बटन या ये विकल्प और होता तो ज्यादा अच्छा होता और बस, वो इसी फ़िक्र में लगा रहता कि किस तरह से अपने लिये इससे भी बेहतर हर तरह की सुविधा से युक्त किसी अत्यधिक शक्तिशाली यंत्र का अविष्कार कर ले कि जो कुछ उसे अभी भी हाथों से करना पड़ता हैं वो भी न करना पड़े.... लेकिन इतना सब होने के बाद भी हर कोई ये सोचने पर मजबूर हो जाता कि वो खुद को उतना तरोताज़ा महसूस नहीं कर रहा याने कि इन सब चीजों ने उसे हर तरह का आराम तो दिया लेकिन बदले में उससे उसकी सेहत, उसका स्वस्थ्य मनोरंजन और उसके अपनों के साथ मिलने वाली ख़ुशी से महरूम कर दिया... क्योंकि शोर इतना अधिक बढ़ा चुका हैं कि वो रगों में समा गया हैं  इसलिये सोने के बाद भी दिमाग में न जाने कितने तरह के विचार या जो भी देखा-सुना सारा दिन वही घूमता रहता और सुबह उठने उसे उस ताजगी का एहसास नहीं होता जो कि एक पक्षी को होता हैं क्योंकि वे अब भी उसी प्राकृतिक वातावरण में प्राकृतिक घड़ी के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहे हैं जबकि हम कृत्रिम वस्तुओं के बीच रहते हुये अपनी घड़ी को अपने हिसाब से चलाते और आजकल तो अधिकांश लोग देर रात जागते जिसका असर उनकी अनमोल देह पर पड़ता पर, समझ में देर से ही आती... अमूमन सब कुछ खोने के बाद ऐसे में जरूरी हैं कि हम थोड़ा-सा ही सही अपने लिये वक़्त निकाले जिसमें कुदरत के नजदीक जाये और खुद से भी मुलाकात करें और इस अवधि में हर तरह की बनावट से दूर रहें... तो दो पल में ही उस अनमोल नेमत को पा जायेंगे जिससे दूर होते जा रहे हैं... सोने के लिये मखमल के गद्दे या नरम तकिया ही काफ़ी नहीं... जेहनी तौर भी वो तो नर्म होना पड़ेगा... तभी तो वो खोया हुआ सुकून मिलेगा... :) :) :) !!!
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२४ मई २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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