मंगलवार, 26 मई 2015

सुर-१४६ : "उसी से ठंडा... उसी से गरम... फिर भी न समझे हम... !!!"

कभी-कभी
जिस आवाज़ से
मन बेजार हो जाता हैं
.....
खोकर उसे ही  
वो फिर एक बार
उसे पाने बेकल हो जाता हैं ॥
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 मित्रों...,

‘जोहेब’ अब भी ‘रुबीना’ से बेइन्तेहाँ मुहब्बत करता था लेकिन... उसकी बच्चों जैसे हरकतें जिसकी वजह से उसने उसे पसंद किया था समय गुजरने के साथ ही उसे बुरी लगने लगी थी पर, वो थी कि न तो समझने को ही तैयार थी... न ही बदलने को ही और वो भी तो उसे छोड़ने के ख्याल मात्र से अधमरा-सा हो जाता... वो जब पास होती तो वो एकदम चिडचिडा जाता पर, जब वो दूर होती तो उसे याद कर कर के उसका बुरा हाल हो जाता... उसने एक बार गुस्से में उसे छोड़ दिया पर, उन दिनों उसने हर एक पल उसको अपने करीब महसूस किया और जब लगा कि उसके साथ जीने से ज्यादा बुरा उसे खोकर जीना हैं तो उसने अपनी गलती मान उसे फिर से अपनी जिंदगी का हिस्सा बना लिया लेकिन ज्यादा कुछ बदला नहीं... ऐसे में उसे समझ नहीं आ रहा था कि वो किस तरह इस उलझन से बाहर आ सकता हैं... ???

यूँ तो हम सभी जानते हैं कि किसी भी चीज़ की अहमियत उसे खोने के बाद ही पता चलती हैं लेकिन उसे दुबारा पाना हमेशा तो मुमकिन नहीं होता हैं न... क्योंकि यदि उसे पुनः हासिल करना हमारे इख़्तियार में होता तो हम हर संभव कोशिश कर उसे पा लेते लेकिन अमूमन ऐसा होता नहीं तब ऐसे हालातों में सिवाय पछताने के और कुछ भी हमारे हाथ में नहीं होता... पर, एक अजीब सी स्थिति से भी हम अक्सर दो-चार होते हैं जब हमें किसी की उपस्थिति अच्छी भी लगती हैं तो कहीं वही हमारी परेशानी का सबब भी बन जाती हैं... इस तरह के अजीबों-गरीब हालात में हमें समझ ही नहीं आता कि आखिर हम करें क्या ??? क्योंकि हम भीतर कहीं ये जानते हैं कि इसके बिना जीना दुश्वार होगा लेकिन उन पलों में तो साथ जीना भी मुश्किल लगता... उफ़... एक बेहद उलझन भरी स्थिति होती हैं वो जब किसी का होना और न होना दोनों ही हमारे लिये जीने-मरने का प्रश्न बन जाता हैं बिल्कुल उसी तरह जैसी कि ‘अजगर’ और ‘नेवले’ की वो जानलेवा असमंजस भरी स्थिति जिसमें कि उसे उगलना या निगलना दोनों ही जिंदगी का सवाल बन जाता हैं

हर इंसान की अपनी एक अलहदा शख्सियत और फ़ितरत होती तभी तो हम उसे पसंद करते लेकिन साथ-साथ रहने पर वही बातें जो पसंदगी का सबब थी एकाएक नापसंदगी बन जाती... यूँ तो कहते कि बात करने से हर मसले का हल निकल जाता लेकिन कभी-कभी जितना अधिक इन बातों को सुलझाने का प्रयास किया जाता वो उतनी ही हमें अपनी गिरफ्त में ले लेती क्योंकि हर कोई खुद को सही समझता... आज के जमाने में तो वैसे भी सबका अहं बहुत अधिक बढ़ा हुआ हैं क्योंकि हर कोई पढ़ा-लिखा और हुनरमंद हैं तो वो आसानी से दूसरे की काबिलियत को स्वीकार नहीं कर पाता... जो समझदार हैं हम उनकी बात नहीं कर रहे क्योंकि वो एक-दूसरे के सच्चे हमसफ़र बनकर उनको सहयोग करते पर, जो कमअक्ल हैं या कहें कि खुद को अगले से अधिक योग्य समझते वो किसी भी तरह अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं हो पाते... तब वे अनचाहे ही अलग होकर अपनी उस मुसीबत को उस समय तो दूर कर लेते लेकिन कुछ ही समय बाद ही उनको ये अहसास होता कि जो हुआ वो नहीं होना था लेकिन तभी जेहन के किसी कोने में ये ख्याल भी कौंध जाता कि दुबारा उठाया गया कदम कहीं उसे फिर उसी अज़ाब में तो नहीं डाल देगा... ???

इस तरह की दुविधापूर्ण स्थितियों में अक्सर हम वही फ़ैसला लेते हैं जो कम तकलीफदायक होता हैं पर, कहीं न कहीं हम ये भी जानते हैं कि इसके बाद भी हम पूरी तरह तनावरहित नहीं होने वाले हैं... दिल के किसी कोने में उसकी कमी तो बनी रहेगी जो हमें ताउम्र सालेगी फिर भी हम सीने पर एक चट्टान रख लेते जो हमारे दर्द को उभरने न दे... जीना भी सीख ही लेते किसी तरह उसके बिना पर, तन्हाई में ‘चुपके-चुपके रात दिन आंसू बहाना याद हैं’ सुनते हुये उस जुदाई के गम को पाले रहते... लेकिन किसी भी तरह उसे दूर करने की कोशिश नहीं करते क्योंकि वो हमें अधिक कठिन लगता... जबकि ये सोचना चाहिये कि अपने निर्णय से हम एक साथ कितने जीवन को प्रभावित कर देते जिसका खामियाज़ा हमें अकेले नहीं हमारे साथ जुड़े लोगों भी भुगतना पड़ता हैं... शायद ये नियति हैं कि लम्हों की खता सदियों की सज़ा में तब्दील होकर एक तारीख में दर्ज हो जाती हैं... फिर जिसके आते ही वो याद भी दबे पांव चली आती... काश... वो जाने वाले को भी साथ ले आ पाती... :( :( :( !!!
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२६ मई २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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