बुधवार, 20 मई 2015

सुर-१४० : "पुस्तक समीक्षा---०१ : इश्क़ तुम्हें हो जायेगा...!!!"


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मित्रों...,

'अनुलता राज नायर' का जादू जब छायेगा...
................................'इश्क़ तुम्हें हो जायेगा' !!!
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 यूँ तो मुझे बहुत पहले ही ये काम कर देना था लेकिन शायद, कुछ काम और उनका वक़्त पहले से ही तय होता हैं और लाख कोशिश करने पर भी वो तब नहीं होता जब हम चाहते हैं बल्कि तभी होता जब उसे होना चाहिये... शायद, इसलिये एक लंबे समय से किताब हाथ में होने के और उसे पढने के बावजूद भी उसके बारे में लिखना न हो पाया जबकि उसे पढने के बाद ही मैंने हमेशा की तरह ही उसके चुनिंदा अंश और उसके बारे में अपनी राय लिखकर किताब के साथ ही रख दी थी पर मुहूर्त तो आज ही का था सो ये आप सबके समक्ष पहले से ही किस तरह आ जाता... तो आज ही पेश कर कर रही हूँ इसे---

जब भी मैंने 'फेसबुक' की इस आभासी दुनिया में इस किताब का शीर्षक पढ़ा अनायास ही मेरे जेहन में गज़ल सम्राट जगजीत सिंह और उनकी शरीके हयात 'चित्राजी' की आवाज़ में गाई ये मशहूर गज़ल "मेरे जैसे बन जाओगे... जब इश्क़ तुम्हे हो जायेगा..." बजने लगती और इसे पढ़ने की आतुरता भी बढ़ने लगती तो मैंने ये किताब पिछले साल ही मंगा ली थी... और इसे पढने के बाद मुझे लगा कि शायद, प्रेमिल अहसासों से भरी उनकी इस काव्यमय प्रस्तुति के लिये ये नाम न सिर्फ़ उपयुक्त हैं बल्कि इसके हर्फ़-हर्फ़ का कोमल अहसास उस तरन्नुम की तरह ही अपनी मधुर तान की गिरफ़्त में ले लेता... खैर, वजह चाहे जो भी हो इस किताब का गुलाबी आवरण और उस पर गुलाबी शब्दों से ही अंकित 'इश्क़ तुम्हें हो जायेगा' चुंबक के समान ही अपनी और खिंचता हैं उस पर 'अनुलता राज नायर' का आकर्षक व्यक्तित्व भी इसे पढ़ने के लिये प्रेरित करता हैं कि जिन नाज़ुक संवेदनाओं और 'शारदा माँ' की अनुकंपा ने उनको ये नूर बख्शा हैं उसका शाब्दिक चित्रण किस तरह का होगा... फिर जब हम किताब खोलकर 'अनुलता' की कलम से निकली अलग-अलग मनोभावों को दर्शाती इन एक से बढ़कर एक रचनाओं को पढ़ते हैं तो एकदम से भावनाओं के किसी विशाल सागर में गोते लगाना शुरू कर देते फिर शेष रहते हैं तो केवल 'शब्द' जो धीरे-धीरे गलकर हमारे भीतर प्रवाहित होने लगते हैं और हम उसमें बहुत गहरे तक डूब जाते हैं

हर इक कविता को पढ़ने के बाद सांसों की रवानगी धीमी होती हैं और हम वहीँ पर थम जाते हैं हमारी उँगलियाँ भी पृष्ठ पलटना भूल जाती हैं... निगाहें उन्हीं शब्दों पर ठहर जाती हैं और अचानक दिमाग के किसी कोने में बंद उसी तरह के अहसास से मिलती-जुलती कोई स्मृति मन के पटल पर उभर आती हैं कि जिसे हमने भी तो ठीक इसी तरह इतनी ही शिद्दत से अनुभव तो किया था पर, अफ़सोस इस तरह अभिव्यक्त न कर पाये... ये हुनर सबको तो नहीं आता न... दरअसल किसी कलमकार की यहीं तो खूबी होती जो उसे जनमानस में स्थापित कर देती कि वे अपने आस-पास होने वाली छोटी-बड़ी घटनाओं / दृश्यों के सिर्फ़ एक मूक दर्शक नहीं बल्कि गंभीर विश्लेषक होते अतः जो भी देखते-सुनते वो उनके अंदर कहीं किसी बीज की तरह पनपने लगता और जिस दिन वो अंकुरित होता तो वे उसे किसी कविता या कहानी में ढालकर एक आकर दे सबके साथ साँझा कर लेते और पढ़ने वाले सीधे ही उससे जुडाव महसूस करते क्योंकि कुछ मानवीय अहसास ऐसे हैं जो सभी के जीवन में कभी न कभी सबके ही साथ होते पर, चंद उसे 'गूंगे के गुड' की तरह आत्मसात कर लेते तो चंद उसे अपनी व्यक्तिगत डायरी में लिख ताले में बंद कर देते और कुछ ऐसे होते जो उसे सारी दुनिया के सामने प्रकाशित कर देते... फिर जब इसे पढ़कर हमें कुछ अपना-सा लगता तो हम उसके मुरीद बन जाते... यहीं तो एक 'लेखक' और 'पाठक' में मुख्य अंतर हैं कि हर 'लेखक' तो 'पाठक' हो सकता हैं लेकिन हर 'पाठक' 'लेखक' नहीं हो सकता... क्योंकि सब कहाँ उस अनुभूति को उसी तरह लिख पाने की काबिलियत रखते हैं तभी तो हमारा मानना हैं कि, "जिनके सर पर ज्ञान की देवी वीणावादिनी का वरद हस्त होता केवल वही कला का मर्मज्ञ बन सफ़ल होता"

जैसे ही आप इसके आवरण पृष्ठ के आकर्षण से मुक्त होकर शुरूआती पन्नों को हटाते हैं तो सामने ही इस 'शीर्षक' और किताब को लिखने का मंतव्य सार्थक करती ये पंक्तियाँ नज़र आती हैं---

"मेरे ख़्वाब मेरी हक़ीकत मेरा हाले दिल
मेरी डायरी के पन्ने
जब जिंदगी में एहसासे-सुकूं था
तब लिखी गयी कोई कविता
जब कभी दिल परेशां हुआ
तब भी लिख डाली कोई एक सिली-सी नज़्म
ठहरे वक़्त में चलती रही क़लम
इश्क़ और दर्द की रोशनाई से
स्याह हुये पन्ने अब आपकी नज़र
और एक छोटा-सा वादा
कि पढ़ना मुझे तन्हाइयों में
इश्क़ तुम्हें हो जाएगा"

जिसमें वो अपने पढ़ने वाले से ज्यादा कुछ नहीं बस, एक छुटकू-सा वादा ही तो मांगती हैं कि... 'पढ़ना मुझे तन्हाइयों में... इश्क़ तुम्हें हो जायेगा'... वाकई किसी भी संवेदनशील जज्बात से अंतर्मन को भिगोने के लिये एकांत निहायत जरूरी हैं जिसमें सिर्फ़ आप हो और वो जज्बात... तो फिर जब आप उसे पढ़ते हैं तो महज रस्म अदायगी नहीं होती बल्कि शब्दों के जादू से जो रिफ्लेक्शन होता हैं उससे आपके भीतर भी वैसी ही भावना जाग जाती हैं... सिर्फ़ किताब ही नहीं अपितु कोई भी मर्मस्पर्शी फिल्म या दृश्य हमारे भीतर बिल्कुल यही असर पैदा करता हैं बशर्तें जब आप खुद को उससे जोड़ देते हैं ।

जब मैंने ये पंक्तियाँ पढ़ी तो मैंने भी मन ही मन 'अनुलता' से यही एक वादा किया और निभाया भी... तो जानते हैं क्या हुआ... फिर अनायास ही मैंने एक-एक हर्फ़ के साथ खुद  को जुड़ता हुआ पाया... कभी मेरे लबों पर हल्की-सी मुस्कान खेल गयी तो कभी आँखों में नमी तैर गयी और कभी तो यूँ भी हुआ कि में ही खो गयी और फिर खुद को पा भी गयी... और जब शब्दों से आँख-मिचौली खेलते-खेलते अंतिम सफे पर पहुंची तो उसे बंद कर सीने से लगाकर सो गयी... जब अंतर में उठे जज्बों ने खुद को ज़ाहिर करना चाहा तो कलम उठाकर इसे लिखना शुरू कर दिया... हर बेटी के लिये उसके पिता सबसे ख़ास उसके करीबी सबसे प्यारे और आदर्श होते हैं तो 'अनु' भी इससे अछूती नहीं हैं इसलिये उन्होंने अपनी ये किताब अपने पापा की समर्पित की हैं... जिसके तीसरे सफे पर हर ही ये बयाँ दर्ज हैं कि...'पापा ये आपके लिये' और 'अनुलता' मेरी ये ‘शब्दांजलि’ आपके लिये ।

किताब में कुल ८८ कवितायेँ हैं जिनमें जीवन में आने वाले हर छोटे-बड़े अहसास को बड़े ही सुंदर ढंग से काव्य रूप में प्रस्तुत किया हैं जहाँ शब्दों के साथ ही हर एक रचना को स्वतः ही अर्थ भी मिल जाता हैं... उनकी सभी कविताओं के 'शीर्षक' को एक साथ एक धागे में पिरोकर यूँ शब्दमाला गूंथी हमने---

'अनु'
की
'रूह' से
निकले 'अंगूरी बादल'
तोड़ते 'चुप्पी'
और हर ‘कसम’
जिनमें हैं 'उदासियाँ'                
पर, वो जो हैं न 'पनीली उदासी'
उठाती हैं 'एक सवाल'
जिंदगी की 'स्वेटर' उधेड़कर
‘दुखों के बीज' से उगी 'स्मृतियाँ'
जो 'अमलतास की डाली' पर
अपनी 'विरासत' के चंद ‘शब्द’ से 
मेरे 'नज़्म' का 'राग-विराग'
'हैंडल विथ केयर' के टैग के साथ
'दुआ' देती हैं 'मेरी नज़्म' को
और 'मेरे कमरे का मौसम' बताता हैं
'प्रेम में होने का अर्थ'
जहाँ पर 'प्रेम का रसायन'
चाहता हैं फिर से 'दुआ-एक और'
जिसमें हो 'स्पर्श' भरी 'निगाह'
'रिश्ते' से उपजी 'इच्छाएं'  
वो हर ‘एहसास’
जिनसे कठिन 'धुप' में चलकर
संघर्षों का ‘पुल' बनाया
अपना 'साया' भी सबसे छुपाया
फिर भी बरसे न 'बदरा'
किया बहुत 'इंतजार'
'उम्र' लिखती रही देह पर
'प्रेम का विज्ञान'
माथे की ‘बिंदी’ पोंछकर
‘गुज़र’ गया वो इक 'ख्याल'
पर, 'प्रेम का गणित'
'प्रेम का भौतिक शास्त्र'
किसी तरह न समझ आया
और... 'प्रेम की प्रकृति' जांचने का 'बीज'
'तलाश' करती रही 
'अँधेरा' फांकती 'जिंदगी'
जबकि 'धड़कन' भी 'इन दिनों'
'मौत’ का पैगाम लगती
क्योंकि 'इब्तेदा मोहब्बत की'
बन चुकी थी 'इंतेहा मोहब्बत की'
फिर भी 'मोहब्बत अब भी हैं' शमां सी रोशन
भभकती हैं 'लौ'
रेत पर लिखती 'गुज़ारिश' उँगलियाँ
‘यकीन' नहीं आता पर...
‘ख्वाहिश’ बेच रहा 'सपनों का सौदागर'
नहीं जानता कि ले लिया 'जोग'
न रही 'सिंदूर' की कामना
'औरत की आकांक्षा' भी तो
'नदी' बनकर बह गयी
नहीं चाहिये थी उसे सागर की 'गुलामी'
'नाकाम इश्क़' का ये अंजाम
कि ‘चिड़िया’ की तरह
करती रहूँ 'प्रतीक्षा'
देखती रहूँ 'यादों के पदचिन्ह'
मायूस चबाती रहूँ 'कच्ची मुंगफलियाँ'
अब होकर ‘बेनकाब’
क्या कहती हैं 'सुनो बरखा'
'तारों की घर वापसी’ होती नहीं
‘अजनबी’ का ‘डेड एंड’ आता नहीं
उसकी ‘महामुक्ति’
'एक ख़्वाब जलता हुआ' बन गयी
उनका ये ‘रूपांतरण’ 
उनकी ‘चुभन’ ये 'पनीली आँखें' खामोश सहती है
पर, ‘तलाश कविता की’ करता रहता हैं
अब भी ‘एक ख़्वाब थका सा’
जल रही ‘चिता’ में ‘तुम्हारे बिना’ ज़िंदगी
नहीं रही ‘रिहाई’ की तलाश
‘बंधक’ बनकर ही ‘यात्रा’ पूरी करना हैं
जो भी किया अर्जित   
‘पापा, ये आपके लिये’ लिखा हैं
महज़ ‘प्रेम कविता’ नहीं ‘याद गुजरी हुई’ 
जो अब बन गयी ‘झील’ ठहरी हुई

हर कविता अपने आप में एकदम मुकम्मल झरने सी कल-कल बहती हुई शीतलता का अहसास देती, शब्दों का सटीक चयन, सहज-सरल भाषा शैली, भावप्रधान विषय, विविध बहुरंगी अहसास का अलहदा अंदाज़ सब कुछ इतना कसा हुआ कि आप कहीं भी बोरियत महसूस नहीं करेंगे बल्कि इतनी कम कीमत में इसे पाकर सोचने पर मजबूर होंगे कि जब इतने में कुछ भी मिलना आसां न रहा तब आपको इंद्रधनुषी अहसासों से भरा ये गुलाबी दस्तावेज मिल रहा हैं... आज तो यदि आप सपरिवार मल्टीप्लेक्स में एक मूवी भी देखने जाये तो हजारों रूपये खर्च कर के गारंटी नहीं कि मनोरंजन होगा ही पर, यहाँ तो घर बैठे ही उससे भी कम समय और खर्च में कई फिल्मों का मज़ा न सिर्फ ले सकते हैं बल्कि उसे जब भी जी चाहे जितनी भी बार चाहे दोबारा हासिल भी कर सकते हैं क्योंकि जब इसे आपने एक बार खरीद ही लिया तो हमेशा के लिये ये किताब आपकी हो गयी फिर जितना भी और जब-जब भी जी चाहे पढ़े... इस बात की फुल गारंटी कि इसे खरीदना कहीं से भी आपके लिये घाटे का सौदा नहीं बल्कि सहेजकर रखे जाने वाली एक अनुपम कृति हैं... ‘हिंद युग्म’ वाले भी बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने ‘अनुलता राज नायर’ पर भरोसा जताया और हमें ये नायाब सौगात मिली

अंत में ‘अनुलताजी’ से एक गुज़ारिश कि बड़ी देर से इसे प्रेषित करने हेतु क्षमाप्रार्थी हूँ पर, तन्हाई में पढ़ने का वादा भी तो निभाना था तो जरा-सी देर लगनी भी स्वाभाविक थी क्योंकि आजकल वही एक चीज़ तो हैं जो बड़ी मुश्किल से मिलती तो हमने आपकी खातिर इसे जुटाया... जगजीत सिंह जी की ही गई हुई एक गजल ‘प्यार का पहला खत लिखने में वक़्त तो लगता हैं...’ से अपनी बात खत्म करना चाहूंगी... शुभकामनाओं सहित... <3 <3 <3 !!!
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२० मई २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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