रविवार, 10 मई 2015

सुर-१३० : "मेरा आदि और अंत होता जहां... वो हैं मेरी माँ...!!!"

लगता
बड़ा निरर्थक
मनाना ‘मातृ-दिवस’
जब अपने मात-पिता को
संतान ही भेज देती ‘वृद्धाश्रम’
.....
हो गये
अब हम सब
बड़े ही आधुनिक
ओढ़ ली पश्चिमी सभ्यता
और धीरे-धीरे भूल गये
ये नहीं हमारे देश की सत्यता ॥
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मित्रों...,

एक ‘गर्भनाल’ जोड़े रखती ‘माँ’ और ‘शिशु’ को एक दूसरे से जिससे कोख़ के भीतर उस भ्रूण का पालन-पोषण होता जिसकी वजह से ही वो धीरे-धीरे नौ महीने की अवधि में एक सूक्ष्म अशरीरी आत्मा से एक शरीर, लिंग और जीवन ग्रहण करता उस समय होने वाली अनुभूतियों को सिर्फ एक माँ ही महसूस कर सकती जो भी इस अनुभव से गुज़र चुकी हैं और इसे शब्दों में अभिव्यक्त कर पाना मेरे ख्याल से नामुमकिन हैं लेकिन हम एक कल्पना तो कर ही सकते हैं कि किस तरह वो संतान जिसका भौतिक जगत में कोई वज़ूद नहीं केवल शून्य में वायुमंडल में तरंगों के बीच जैसे असंख्य कण विचरण करते हैं वो भी अदृश्य रूप से इतने बड़े अंतरिक्ष में न जाने कहाँ भटकता रहता फिर जब कोई माँ उसका आवाहन करती तो सभी तितर-बितर अंश एक साथ देह के उस छोटे से अँधेरे हिस्से में आकर जमा होना शुरू हो जाते जिसका अनुभव माँ हर बीतते क्षण के साथ करती फिर जब वो उसके भीतर एक आकृति धारण कर उसे हौले से लात मारती तो वो ख़ुशी से पागल हो जाती ये सिर्फ और सिर्फ़ माँ के ही बस की बात हैं कि वो अपने अंदर भी अपने बच्चों की शैतानियाँ बिना उफ़ किये सहन करती तो उसकी पैदाइश के बाद भी ख़ामोशी से उसके सभी उत्पातों को अपने बड़े से दिल में जब्त कर रख लेती फिर चाहे उसकी वही संतान जिसे जन्म देने के लिये वो अपार वेदना के पलों से भी गुज़री उसे उसी तरह फिर एक बार लतिया कर या धोखे देकर  ही सही घर से ही क्यों न निकाल दे पर, वो अपने होंठ से उसे दुआ ही देती क्योंकि उसे तो उसके पैदा होने से पहले उसकी उस उन सभी तरह की बदमाशियों को सहन करने की आदत पड़ चुकी होती हैं फिर किस तरह वो उसके लिये बुरा कह या सोच सकती हैं उसने ही तो अपने शरीर से उसको निर्मित किया... वो कोई और नहीं उसके ही व्यक्तित्त्व का ही तो विस्तार होता जो कभी-कभी सारी शिक्षाओं और सुविधाओं में पलकर किसी लालच में आकर तो कभी सभी तरह के अभाव में पलने के बावज़ूद किसी और वजह से ही सही उसे अपने से ही अलग कर देता हैं और आजकल तो पश्चिमी संस्कृति के अनुयायी बन चुकी हमारी युवा पीढ़ी उनकी ही तरह अपने माता-पिता को किसी ‘वृद्धाश्रम’ न... न... ‘ओल्ड ऐज होम’ भिजवाकर न सिर्फ अपने अपने समस्त दायित्वों बल्कि मातृ-पितृ ऋण से भी मुक्त हो जाती जबकि प्राचीन काल में यही संतति अपने माता-पिता को भगवान के समतुल्य मानकर उनकी सेवा को ही अपना धर्म समझती थी पर, धीरे-धीरे न जाने कब उसके मस्तिष्क की शिराओं में ये जहर घुल गया और हमारे यहाँ भी विदेशों की भांति इस तरह के घरों का निर्माण होने लगा जहाँ बूढ़े हो जाने के बाद लोग बिल्कुल उसी तरह अपने माँ-बाप को छोड़ जाते जिस तरह की अनुपयोगी हो जाने के बाद हम अपने घर से किसी सामान को निकाल फेंक देते हैं

कम से कम एक बार ही सही हर एक संतान को ये जरुर विचार करना चाहिये कि वो केवल अपने पालकों का कोई स्वपन या उनकी कोई मनोकामना नहीं या उनके द्वारा जन्म दिये जाना उनकी कोई गलती नहीं कि जिसकी कि वो आजीवन उसकी फरमाइशें पूरी करते हुये भरपाई ही करते रहे जैसा कि अमूमन आजकल के बच्चों के मुंह से यदाकदा सुनने मिलता रहता कि हम कोई अपनी मर्जी से इस दुनिया में नहीं आये आप लोगों ने ही हमें पैदा किया तो हमारी हर इच्छायें भी आपको ही पूरी करनी होगी... चाहे कोई संपन्न परिवार हो या विपन्न सभी अपने बूते से बढ़कर अपने बच्चों का लालन-पालन करते लेकिन कोई भाग्यशाली ही होते जिनको अपने जाये से अपने बुढ़ापे में उस प्रेम और देखभाल का एक अंश ही सही मिल पाये जितनी कि उन्होंने अपने समय में उसके लिये की थी क्योंकि अब बच्चे समझते हैं कि ये तो उनका फर्ज़ हैं पैदा किया तो पालना तो पड़ेगा ही पर ये भूल जाते कि उनका भी तो कोई कर्तव्य होगा या फिर वो केवल अपने जन्म से अपने माता-पिता को धन्य करने की कीमत ताउम्र वसूलने के लिये ही इस धरती पर आये हैं ईश्वर ने जगत और कुदरत को बनाने के बाद उसकी बागडोर भले ही अपने हाथों में रखी लेकिन उसे गतिमान बनाये रखने की जिम्मेदारी ‘प्रकृति’ और ‘पुरुष’ के हवाले कर दी कि वो अब स्वयं अपने ही समान संतान को जन्म देकर इस सृष्टि का विस्तार करें तभी तो उन दोनों से शुरू हुआ ये सिलसिला अब इस मुकाम पर आ गया कि जहाँ कभी किसी शीर्ष पर ‘जन्मदात्री’ को सृष्टि रचयिता ‘भगवान’ के समतुल्य माना गया वहीँ अब सिर्फ़ इस बात को दिन विशेष आने पर सभी के द्वारा दोहराया जरुर जाता लेकिन इसके मर्म को लोग अपने अंतस में ग्रहण करना भूल गये वर्ना उन्हें ये याद नहीं दिलाना पड़ता कि जननी वाकई रचयिता हैं जिसने अपनी देह से उसे गढ़ा हैं और वो जो आज अपने विशाल व्यक्तित्व पर इतरा रहा हैं वो उसकी माँ की ही देन हैं जिसे वो सब कुछ देकर भी उसका मोल किसी भी तरह नहीं चुका सकता क्योंकि उसी ने तो उसे अशरीरी से शरीर बनाया वरना वो तो असंख्य कणों के रूप में ब्रम्हांड में भटक रहा था जिसे उसने अपनी कल्पना से एक रूप दिया और जिस दिन हर कोई छोटी-सी ये बात जान जायेगा कि कि गर्भ में उसे नौ महीने तक रखना कोई रवायत नहीं न ही सिर्फ़ माँ की अपनी ख़ुशी होती बल्कि इसमें होने वाली तकलीफों का अंदाज़ा लगाना हैं तो नौ महीने न सही नौ घंटे ही एक बोझ को अपने जिस्म में ढ़ोकर देखें एक घंटे में ही उकता जायेंगे जबकि माँ तो उसे कोई बोझा नहीं बल्कि तोहफ़ा समझकर बड़े ही आराम से राजी-ख़ुशी उसे लिये-लिये न सिर्फ़ घर-बाहर संभालती बल्कि हर एक काम भी अथक अनवरत बड़े ही जोश-खरोश से करती रहती हैं जो एक ‘माँ’ के सिवाय दूसरा कोई कर नहीं सकता हैं

अक्सर यही ख्याल मन में आता कि किस तरह शुरुआत में सिर्फ़ एक रज्जू से माँ और उसकी संतान आपस में जुड़े होते और एक दूसरे से कितने निकट का यूँ कहें कि सीधा-सीधा  आत्मा का संबंध होता... तभी तो वो आत्मज/आत्मजा कहलाते... ‘माँ’ की हर सोच, हर मनोस्थिति से किस कदर वाकिफ़ होती वो नन्ही-सी जान जो एक अंधियारी कंदरा-सी कोख़ में तनिक भी न घबराती बल्कि एकदम बेफ़िक्र अपनी जननी पर निर्भर करती फिर जब उसका वो सफ़र पूरा होता तो उस डोर को तोड़कर वो उस कोख़ से निकलकर एक और एकदम सुरक्षित जगह माँ की गोद में आ जाती पर, यहाँ भी सांसों से सांसों के तार जुड़े रहते... माँ अमृत पान करा उसे जीवन दान देती रहती जिससे कि धीरे-धीरे बढ़ते हुये उसके कदम जमीन छूने लगते और वो सीमित दायरा थोड़ा-सा विस्तृत हो जाता अब वो गोद से नीचे उतर यहाँ-वहाँ घुमने लगती लेकिन माँ के इर्द-गिर्द ही उसकी सारी दुनिया होती फिर जब कदम जमने लगते और चलते-चलते दौड़ना-भागना भी सीख जाते तो उसकी दुनिया में दूसरे लोग भी समाने लगते और वो नजदीकी का रिश्ता यूँ अपने आप ही दूरियों में बंटने लगता जो एक दिन सिर्फ़ एक नाज़ुक तंतुओं से एक दूजे को जोड़ा हुआ था अब अचानक किसी कटी पतंग की तरह उसकी ही संतान उससे  जमीन-आसमान जितने फ़ासले पर पहुँच जाती... ख़ुद उसकी संतान को अहसास नहीं होता कि वो कहाँ-कहाँ से पहुँच गया... कभी एक अँधेरे कोने में जहाँ पैर फ़ैलाने तक की जगह नहीं था वो अपनी जन्मदात्री से कितना गहरे तक जुड़ा था और अब अपने पैरों पर खड़ा इस विशाल दुनिया में चमक-दमक के बीच कहीं खो सा गया... जिसने वो सभी यादें विस्मृत करा दी कि वो खुद भी इसी काया का अंश हैं जो आज भले ही अपने पैरों पर खड़े होने में सक्षम नहीं या अपना काम भी खुद नहीं कर पाती लेकिन कभी इसने ही उसकी खातिर अपने जीवन को एक पूजारन की तरह उसे बड़ा करने की तपस्या के लिये होम कर दिया जिसका उसे कोई मुआवज़ा नहीं चाहिये बस इतना कि... बच्चे उसके आँखों के सामने बने रहे, उससे सुबह-शाम उसका हाल-चाल ही पूछ ले उसे अपने से विलग न करें... कोई बहुत बड़ी चाहना तो नहीं... शायद... जिसने ये जान लिया उसके लिये तो हर दिन ‘मातृ-दिवस’ हैं... और जो न जाने वो साल में एक दिन इसे मनाते रहें... माँ को बधाई देकर इसी दिन उसकी सेवा कर अपने आप पर गर्व करते रहें... कोई बुराई नहीं... माँ तो अपने बच्चों से हर हाल में हर वक़्त ख़ुश हैं... बिना मांगे ही आशीष देती रहती... उसकी बलाये लेती... उसे हर बुरी नज़र से बचाती... आख़िर... वो माँ जो हैं... केवल ‘माँ’...  :) :) :) !!!
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१० मई २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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