गुरुवार, 10 सितंबर 2015

सुर-२५२ : "भटकती आत्मा... चाहती सिर्फ़ परमात्मा...!!!"

ताउम्र जीते रहे
समझ जिंदगी को
बस, अपनी मिल्कियत 
भूल गये कि ये तो देन हैं
उपरवाले की और...
जिसने दी हैं
वही वापिस भी लेगा एक दिन
याद आया उस रोज
जब बचे जीवन के चंद रोज
तो बैठ गये उसके दरबार में झुका शीश
जिसे उठाकर कभी तका न आसमां
अब जब वही जाना हैं तो
मांगते माफ़ी अपने सभी गुनाहों की
जो बन के दीवार बीच में 
रोकते रहे कदमों को जाने से उसकी तरफ
लेकिन जाना नहीं कि जिस दिन
उसका बुलावा आयेगा तो
फिर कोई भी दरो-दीवार या बंधन
हमारी राह न रोक पायेगा ॥
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मित्रों...,

सोचते हैं सभी कभी न कभी कि ईश्वर सिर्फ़, उसकी ही नहीं सुनता बाकी सब पर उसकी बड़ी रहमत हैं जबकि अपनी फितरत से ही हम ने उसके और अपने दरम्यां दूरियां बना ली हैं जब वक़्त था, जोश था, जीने की चाहत और दिल में ख्वाहिशों का भंडार तो भटकते रहे न जाने कहाँ-कहाँ अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने कभी जो गये भी उसके घर तो माँगा बस, वही जिसे पाने का मन करता था ये सोचा ही नहीं कि गर, एक बार भी थोड़ा रुककर अपने आप को संभालकर झाँका होता अंतर में तो पता होता कि इन फ़िज़ूल बातों ने ही तो उसके और हमारे मध्य एक मोटा पर्दा डाल रखा जिसकी वजह से वो अदृश्य नजर नहीं आता और जिस दिन ये गिरता तो अपना आप ही बड़ा लज्जित नजर आता जिसने हमारी आँखों पर भी पर्दा डाल रखा था जिसे चाहते तो हम हटा सकते थे और ऐसा कई बार अवसर भी आया जब आवरण के नीचे से उसका झीना-सा दृश्य दिखाई भी दिया पर, फिर से अपने आपको मोह-माया के जंजाल में फंसाकर उसे बिसरा कर आगे बढ़ गये और इस तरह उसके वजूद से नजर बचाते-बचाते जीते रहे जिंदगी भर लेकिन कोई अपने साये से कब तक भाग सकता हैं अपनी अंतरात्मा को कब तक चुप कर सकता हैं... उसके अस्तित्व को कब तक नकार सकता हैं जिससे उसका अपना वजूद बना हैं जिसे केवल अपनी काया, अपनी संपदा समझकर इतराते रहे जबकि वो तो उसकी बनाई कृति हैं जिसे बनाने के पीछे उसका कोई ख़ास मकसद हैं पर, हम तो उस सृजन की पृष्ठभूमि में बनी कलाकारी की खुबसूरती पर मुग्ध होकर ये भूल गये कि हमें भरमाने को ही ये सुंदर-सुंदर फंदे बनाये गये हैं और जिसने अपने आपको इसमें फंसने से बचा लिया वही उस तक पहुँच सकता हैं वरना, तो जो फंसा वो भले ही खुद को खुशकिस्मत समझे कि उसे कल्पनालोक का मायावी जगत मिल गया पर, हकीकत का पता तो तब चलता हैं जब इस आभासी दुनिया की क्षणभंगुरता का अहसास सही मायनों में होता हैं जो भ्रम के सभी तिलस्मो को तोड़कर उस साक्षात् आत्मा का दीदार करवाता हैं जिससे हमारा जन्म हुआ हैं तब केवल एक ही फरियाद लबों पर आती हैं कि जो भी अब तक किया उसे माफ़ कर वो हमें अब दुबारा इस तरह से दलदल में न गिराये जहाँ से निकलते-निकलते फिर एक जन्म गुजर जाये । 

अंत का निकट आना ही हम सबकी बंद होती आँखों को खोलने का एक सबसे बड़ा जरिया हैं... जीवन भर हम बाहरी रूप से खुली हुई अपनी आँखों को ही दर्शन का एकमात्र माध्यम मानते हैं जो अंतर के चक्षु से एकदम भिन्न होते हैं जिनको कभी खोलने का न तो किसी के भी पास समय होता हैं और न ही वो ऐसा चाहता हैं तभी तो भागता रहता अपने ही आप से लेकिन जिस दिन ये अंदर के नयन खुलते हैं उस दिन साड़ी दौड़-भाग खत्म और जीवन का ठहराव आ जाता जहाँ आदमी सिर्फ अपने साथ अकेला होता और अपनी आत्मा को परमात्मा से मिलने के लिये उसी तरह से निर्मल बनाने का प्रयास करता जैसी कि उसे प्रदान की गयी थी ये भी सबके साथ नहीं होता केवल वे जो अपनी अंतरात्मा को मारने से बच गये या जिनकी अंतरात्मा ही मरने से बच गयी... बाकी तो जन्मों-जन्मों तक इस तलाश में ग्रहों की भातीं घूमते रहते... फिर क्यों न हम अपने आपको शुरू से ही इस तरह से तैयार करे कि आखिरी पड़ाव में पहुंचकर पछतावा न हो और बेदाग स्वच्छ विकाररहित होकर अपने प्रभु का साक्षत्कार करें... तब ही मानव देह सार्थकता को प्राप्त हो सकती हैं क्या नहीं... :) :) :) ???   
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०९ सितंबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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