मंगलवार, 22 सितंबर 2015

सुर-२६४ : "लघुकथा : मोबाइल संस्कृति...!!!"

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मित्रों...,



शीना, तुमसे कितनी बार कहा कि यूँ देर रात तक घर के बाहर रहना ठीक नहीं और अपने परिधान को तो देखो क्या ये हमारी संस्कृति के अनुरूप हैं तुम आजकल के बच्चे हाथ में ‘मोबाइल’ लिये रात-रात भर जाग न जाने किस तरह की जीवन शैली अपना रहे हो जिसमें अपनी भारतीय संस्कृति के साथ-साथ पहचान भी खोते जा रहे हो

उफ़... दादी आपकी ये हर वक्त की रोकटोक पुरातन घिसे-पिटे रीति-रिवाज का बेवक्त राग समझ नहीं आता जब भी मैं देर रात अपने दोस्तों के साथ पार्टी कर लौटूं आपका ये लेक्चर शुरू हो जाता आप समझती क्यों नहीं ये कंप्यूटर युग हैं यहाँ तो रोज लोग फेशन के साथ चलते हर दुसरे दिन नई तकनीक नये गेजेट्स आ जाते तो पुराना जो दस दिन पहले ही लेटेस्ट था उसे फेंक नया ले लेते और आप चाहती हम टेलीफोन से चिपके रहे दोस्तों को संदेश भेजने खत लिखे... और जो नया हैं उसे छोड़ दे... बडबडा कर ‘शीना’ अपने कमरे में जा ही रही थी कि पीछे से दादी की आवाज़ आई... तुम जिस दिन अतीत और व्यतीत का फर्क समझ जाओगी उस दिन ये समझोगी कि हमारी संस्कृति हमारी पहचान हैं कोई मोबाइल नहीं जो रोज बदलता रहता ये तो सोच-विचार और आचरण में झलकता तभी तो तेरे दादा धोती कुर्ता पहनकर ‘मोबाइल’ हाथ में लेकर चलते और ‘लैपटॉप’ पर भी काम करते पर, तूने कभी इसका मर्म न समझा उटपटांग कपड़े पहने बिना भी हम मॉडर्न हो सकते है बेटी, आधुनिकता विचारों का बदलाव हैं मात्र कपड़ों का नहीं ।
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२२ सितंबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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