गुरुवार, 17 सितंबर 2015

सुर-२५८ : "हरतालिका तीज का व्रत... देता मनचाहा जीवन साथी सतत...!!!"

प्रिय को पाने की
अद्भुत लगन
प्रिया को बना गई
अलबेली जोगन
जिसके लिये किया
सांसों का हवन
हो गयी वो साधिका
प्रेम में मगन
महसूस न हुई कभी
एक पल थकन
राह में आई मुश्किलें
पर, न हुई भटकन
तभी तो एक दिन उसने
पाया मनचाहा जीवन
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मित्रों...,

प्रजापति दक्ष की कन्या ‘सती’ के रूप में जनम लेकर माँ शक्ति को बीच राह में ही देह त्याग अपने प्रियतम का साथ छोड़कर जाना पड़ा लेकिन प्रेमिल आत्मा को तो अपने उसी जन्मों-जन्म के साथी की अतृप्त चाहत थी तो अगले जनम में वे पर्वतराज हिमालय की पुत्री ‘पार्वती’ के रूप में पैदा हुई और भगवान ‘शंकर’ को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए हिमालय में गंगा के तट पर रह कोमल बाल अवस्था से ही अनेक कष्ट सहती हुई अन्न का त्याग कर दिया और केवल सूखे पत्तों को खाकर रहने लगी फिर धोरे-धीरे उसे भी छोड़ सिर्फ़ हवा का सेवन करते दिन काटते हुये अधोमुखी होकर घोर तप करने लगी जिसे देखकर उनके पिता को बड़ा कष्ट हुआ ।

तभी एक दिन उनको रह दिखाने के उद्देश्य से महर्षि ‘नारद’ का आगमन हुआ जो कि भगवान ‘विष्णु’ की तरफ से ‘पार्वतीजी’ के विवाह का प्रस्ताव लेकर आये थे  जिसे उनके पिता ने ख़ुशी-ख़ुशी  स्वीकार कर लिया और जब उनकी मां ने पार्वती को ये  बात बतलाई तो वे अत्यत दुखी हो गई और जोर-जोर से करुण विलाप करने लगी तो एक सखी के पूछने पर उन्होंने बताया कि वे तो महादेव को मन से अपना पति मान चुकी हैं और सिर्फ़ भोलेनाथ से ही विवाह करेंगी जबकि उनके पिता उनका विवाह भगवान् ‘विष्णु’ से करना चाहते हैं तब सहेली की बात मान माता ‘पार्वती’ एक घने वन में चली गई और वहां एक गुफा में जाकर भगवान शिव की आराधना में लीन हो गई।

धीरे-धीरे कठिन साधना करते दिन पर दिन गुजरते गये तब भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को हस्त नक्षत्र युक्त दिवस में कोमलांगी ‘पार्वती’ ने रेत से ‘शिवलिंग’ का निर्माण कर  भोलेनाथ की स्तुति में लीन हो सारी रात्रि जागरण किया तो माता की इस कठोर तपस्या से होकर भगवान शिव का आसन डोल गया और उन्होंने उन्हें दर्शन देकर उनकी इच्छानुसार उनको अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया ।

इस प्रकार अपने जिस जीवन साथी को एक जनम में खो दिया था जगत जननी ने तो उसी को फिर से पाने अगले जनम में उन्होंने अनेक बरस तक किया कठोर तप और राह की हर बाधा एवं प्रलोभन को अपने अटल संकल्प से हराकर और खुद को हर तरह से हर कसौटी पर कसकर आख़िरकार अपने मन में बसी उस छवि को पा ही लिया पर्वतराज ‘हिमालय’ की उस दृढ़ निश्चयी पुत्री ‘पार्वती’ ने तो  उनकी इस कथा ने हर एक कन्या के नाजुक मन पर ऐसा प्रभाव डाला कि अपने मनचाहे वर को पाने उसने यही मार्ग अपनाया और तब से ही ‘हरतालिका तीज’ का कठिन व्रत प्रचलन में आया और  हर एक धर्मिक नारी ने सनातन हिंदु धर्म की इस गौरवशाली प्राचीन परंपरा को निभाया फिर बनकर माँ अपनी बेटी के हाथ में पवित्र रीति-रिवाज की इस अटूट डोर को थमाया जिसने धर्म के परचम को आज तक रखा लहराया और मन में हो लगन अपने प्रिय को पाने की तो फिर किसी भी तरह की मुश्किल या कठिनाई आये मार्ग में रोक नहीं सकती बढ़ने से आगे, पाने से अपनी मंजिल को यही इस प्रेम गाथा ने हम सबको बताया... आधुनिकता की दौड़ में तकनीक के साथ चलते-चलते कोई भूल न जाये जगत माता-पिता ‘शिव-पार्वती’ के अमरप्रेम की इस आध्यात्मिक कहानी को इसलिये इसे पुनः दोहराया... कहो कुछ याद आया... :) :) :) !!!          
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१६ सितंबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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