रविवार, 6 सितंबर 2015

सुर-२४९ : "काव्यकथा --- रहगुज़र...!!!"

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मित्रों...,


‘चलते-चलते यूँ ही कोई मिल गया था... सरे राह चलते-चलते...’ गीत सुनते-सुनते न जाने क्यूँ मन को ये अहसास हुआ कि मैं सरे राह निकली भी नहीं पर सारी राहें मुझसे ही होकर गुजरती रही जिन पर चलकर न जाने कितने मुसाफ़िर गुजर गये... तो अचानक ये ख्याल मन में उमड़ गया---              

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मैं कोई
रहगुज़र नहीं थी
पर, गुजरते रहे सब
होकर मुझसे
लेकिन किसी ने भी
दो पल से अधिक ठहरना
गंवारा न किया
और मैं ताउम्र बिछी रही
सड़क की मानिंद
देखती रही लोगों को
मुझे रौंद मुंह फेर जाते हुये
आखिर, इससे इतर
एक 'तवायफ़' की जिंदगी
भला और क्या हो सकती थी ।।
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वाकई... भले ही कोई कुछ भी नाम दे हमें पर हकीकत में एक ‘सडक’ से भी बदतर जिंदगी हैं हमारी जिसकी किस्मत में कोई सुधार की भी संभावना नहीं... बस, यूँ ही मिट जाना हैं एक दिन जब न बचे वो चलने लायक फिर कोई ताकता भी नहीं इस तरफ़... फिर भी सारी तोहमतें हमारे ही सर पर आती कि हमने लोगों को बिगाड़ा जबकि सारे बिगड़े हुये लोगों ने हमें कहीं का न छोड़ा मगर, तकदीर के सर पर ही सारा ठीकरा फुटा... तो फिर क्यों करें किसी से कोई गिला... यही नसीब हैं यही कहानी हमारी... किसी ने समझी मजबूरी हमारी... और लब पर यही तराना... ये चराग बुझ रहें हैं... मेरे साथ जलते-जलते... यूँ ही कोई मिल गया था... :) :) :) !!!  
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०६ सितंबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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