गुरुवार, 24 सितंबर 2015

सुर-२६६ : "सड़क किसकी ???"

ये सारी
‘सड़क’ मेरी हैं
इसलिये
जो जी में आये
वही करूं...
घर बनाऊ
या फिर
चादर तान
सो जाऊं  
चाहे तो
जोर-जोर से
चिल्लाऊं
या शोर-गुल कर
हल्ला मचाऊं
कभी वहीँ
झांकी सजाऊं
तो कभी
भजन गाऊं
और जब
जरूरत हो तो
शामियाना लगवाऊं
पंगत खिलवाऊं
कोई यदि
रोकने आये तो
उसको मार भगाऊं
आखिर...
मैं भी तो
इस ‘लोकतंत्र’ का
एक शक्तिशाली ‘वोटर’ हूँ
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मित्रों...,

‘भारत’ देश की अनेक विशेषताओं में से एक ये हैं कि यहाँ रहने वाला हर एक नागरिक भले ही अपने कर्तव्यों का पालन करने में चूक जाये लेकिन अपने अधिकारों के प्रति सदैव सचेत रहता और चूँकि वो अपना सबसे कीमती ‘मत’ और अपनी आय का कुछ हिस्सा ‘कर’ के रूप में देकर सरकार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता तो उसके बदले में सभी सरकारी सुविधाओं एवं सरकारी वस्तुओं पर अपना पूर्ण अधिकार समझना उसका जायज़ हक बनता हैं जिसके कारण सरकार भी उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाती कि कहीं वो नाराज हो गया तो उसके नीचे से उसकी कुर्सी ही न चली जाये और सबसे बड़ी अंदर की बात तो ये हैं कि यदि आम नागरिक इसी मुगालते में खुश रहे कि इस तरह से वो सरकार का नुकसान कर रहा हैं तो इसमें तो उसका फायदा ही है क्योंकि कम से कम इस तोड़-फोड़ में व्यस्त आम जनता उनकी गलतियों की तरफ़ तो ध्यान नहीं देगी और इस तरह दोनों का ही काम चलता रहता... सही हैं, जब बच्चा मिटटी से खेल हंसता खिलखिलाता तो माता-पिता उसे उसमें मस्त देख अपने काम में लग जाते कुछ ऐसा ही नादानी भरा खेल ‘सरकार और ‘अवाम’ के बीच चलता रहता हैं   

अक्सर देखने में आता कि सरकारी धरोहर को हर कोई अपनी व्यक्तिगत अमानत समझता हैं तभी तो एक तो वो बिना टिकिट रेल-यात्रा तो करता ही साथ वहां की सामग्री भी अपने साथ ले आता इसी तरह जिस दफ्तर या विभाग में काम करता तो वहां की हर एक वस्तु या सामान को अपना मान घर पर ही रख लेना बड़ी आम बात हैं ऐसे में जो यहाँ से वहाँ तक खुलेआम ‘सड़क’ बिछी हुई हैं उसे वो किस तरह से अपना न समझे आखिर, वो तो उसके घर के सामने से जाती भी हैं तो फिर घर में होने वाले हर समारोह के लिए उसे दालान की तरह इस्तेमाल करना उसका हक़ हैं फिर चाहे किसी को कितनी भी परेशानी क्यों न उठाना पड़े उसे कोई सरोकार नहीं वो तो अपना कार्यक्रम वहां कर के ही रहेगा अगला चाहे पैदल जाये या फिर चाहे उसे कोसता रहे उसके कानों में जूं तक नहीं रेंगती उसे तो अपने सिवाय कोई नजर नहीं आता तभी तो हर कोई अपने किसी भी आयोजन के लिये मंच इसी सडक पर बनाता हैं और जबी उसका घर बनता तो उसकी सामग्री रेट, गिट्टी, ईट सब वो इसी ‘सडक’ पर रखवाता जिसकी वजह से कोई गिरे-पड़े या मरे उसे क्या ? उसे तो ये पता हैं कि उसके मकान के आस-पास का ये हिस्सा केवल उसका अपना हैं

कभी कोई यहीं पर लाउड स्पीकर लगवा कथा करवाता मिल जायेगा तो कभी किसी की शादी का पंडाल लगा दिख जायेगा तो कभी कोई झांकी सज जायेगी तो किसी को कहीं रहने जगह न मिले तो वो यही अपना आशियाना बना लेगा और कभी-कभी तो कोई भीड़ को जमा कर जादू या करतब दिखता हुआ नजर आयेगा तो कभी कोई कुछ बेचता हुआ राह रोक लेगा याने कि किसी को भी कुछ भी प्रदर्शित करना हैं और उसके पास अपना कोई ‘मंच नहीं तो फ़िक्र की कोई बात नहीं लंबी-चौड़ी ‘सडक’ तो हैं न मजे से उसे इस्तेमाल करो गर, कोई रोकने-टोकने आये तो उसे मुंहतोड़ जवाब देकर शर्मिंदा कर दो और फिर भी न माने तो वही झगड़ा शुरू कर दूसरों के हंसी का पात्र बन जाओ कहने का मतलब कि ये वो क्षेत्र हैं जिस पर कहने को तो किसी का कोई हक नहीं लेकिन मानो तो ये सबकी अपनी हैं और आये दिन हर कोई इस बात को दर्शने से जरा भी न हिचकता तभी तो इस जगह पर नित नया मजमा लगता... ‘सड़क’ बनाने वाला भी सोचता कि चलो अपना काम तो चलता जो यहाँ रहने वाला तोड़-फोड़ करता रहता... हमारे यहाँ ये सड़क चलने से ज्यादा ठहरने के काम आती तभी तो सबकी ‘संपति’ कहलाती फिर कोई क्यों न पेश करें इस पर अपनी दावेदारी जिससे चलती उसकी दुकानदारी... आखिर वही तो हैं उसका सच्चा अधिकारी... :) :) :) !!!       
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२४ सितंबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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