रविवार, 13 सितंबर 2015

सुर-२५५ : "एकालाप... विचार विहीन प्रेम...!!!"

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मित्रों...,



रात के दो बज रहे थे और ‘सयाली’ अपने कमरे में तन्हां बैठी कुछ सोचती हुई कभी हंसती तो कभी उसकी आँखें छलछला जाती और कभी जोर-से बड़बड़ाने लगती क्योंकि अब कोई उसकी बात को समझ ही नहीं पाता था जिसके कारण उसने अपने आपको सबसे काट लिया था अब वो खुद ही बोलती और खुद ही सुनती थी... आज भी अकेले-अकेले कुछ बुदबुदा रही थी....

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ऐसा क्यूँ होता हैं कि
जिसके जीवन में प्यार नहीं
वही उसे सबसे ज्यादा गहराई से
महसूस करता हैं ।

...यूँ ही रात की तन्हाई में उपजा एक ख्याल
जोंक की तरह खून चूसता रहता
उहूँ कमबख्त...
जिनके पास प्यार की दौलत हैं
वो भला क्यों इन फ़िज़ूल के सवालों से उलझे
उन्हें तो फुर्सत नहीं कि उसके सिवा कुछ सोचे
ये तो हम जैसे एकाकी लोगों की खुराक हैं ।

विचित्र किन्तु सत्य...
जहाँ प्रेम हैं
वहां विचार नहीं
जहाँ विचार हैं
प्रेम नदारद
शायद,
दोनों एक साथ नहीं रह सकते
जो प्यार करेगा
वो भला काहे उसकी कमी महसूस करेगा और
जो अकेला हो वो भला
किस तरह उस अहसास को पा सकेगा
सिर्फ कल्पना मात्र से
और सिवा उसके
कुछ हैं भी तो नहीं पास मेरे...
मैं और मेरी तन्हाई की बकबक...
जिसे सुनने वाला भी मेरे अलावा कोई नहीं
क्या किस्मत हैं ?

यार...रश्क न करो
इतनी भी अच्छी नहीं
जब गुजरेगी न तो खैर मनाओगे...
हा.... हा.... हा....
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अचानक उसकी आवाज़ तेज हो गयी और उसकी हंसी से उसके पडोस में रहने वाली श्रीमती की आँख खुल गयी तो वो सोचने लगी इसकी इन्हीं हरकतों के कारण कोई इससे दोस्ती नहीं करता न ही इसके साथ रहना चाहता... उफ़.. हमारी मजबूरी हैं वरना हम भी इस जगह से अब तक चले गये होते... और उधर ‘सयाली’ अपने में ही गुम ये भूल कि ये दुनिया के सोने का समय हैं हंसती ही जा रही थी...

‘प्रेम’...
और
‘विचार’...
गजब लड़की हो तुम
एकदम पागल निरी पागल...
कुछ भी सोचती रहती हो  
हा... हा... हा...  :) :) :) !!!
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१३ सितंबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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