शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

सुर-२५३ : "सपनों का राजकुमार... न होता सबका साकार...!!!"

क्यों टांक दिये
ऐसे सपने आँखों में
जो कभी पूरे नहीं होते
जिनका हकीकत से कोई
वास्ता नहीं होता ?

क्यों नहीं बताया कि
‘राजा’ या ‘महल’
सिर्फ़ कहानी में होते हैं ??

क्यों न कभी भी
सच से सामना करना सिखाया
हमसे भ्रम में जिलाया
और शब्दों का झूठा जाल फैलाया ???


क्यों न बोला,
ओ मेरी बिटिया...
भले ही हम कहें कि
‘राजा की आयेगी बारात’
पर, तू न मानना हमारी बात

माना कि.
मासूमियत नहीं जानती
‘सच’ और ‘झूठ’ का भेद
फिर भी...
काश, एक बार ही सही
इतना तो जताया होता कि 
जाते ही नादान भोलापन
भूल देना ये बातें
जो थी महज़ लड़कपन
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मित्रों...,

‘नंदिनी’ अपनी नन्ही बिटिया को ‘एंजेला’ को न सिर्फ़ प्यार से ‘राजकुमारी’ बुलाती थी बल्कि हमेशा उसे राजा-रानी और परियों की जादू से भरी कहानियां भी सुनाती थी जिसके कारण उसके मन में सुंदर कल्पनाओं का एक खुबसूरत-सा परीलोक ही बस गया था और वो हमेशा न सिर्फ़ उनकी बातें करती बल्कि अपने छोटे-छोटे नाज़ुक हाथों से उन कोमल ख्यालों के बडे ही प्यारे-प्यारे मासूमियत से लबरेज चित्र बनाकर उनको अपने ख्वाबों के अलहदा रंगों से सजती और फिर उनमें अपनी तोतली जबान से शब्दों के अहसास भर जीवंत भी कर देती थी उसकी बनाई अधिकांश तस्वीरों में एक ‘राजकुमारी’ होती जिसकी शादी किसी ‘राजकुमार’ से होती और ये सब करते-करते उसके भीतर अपने आप ही एक सजीले सलोने सपनों के सौदागर की एक छवि बन गयी थी जिससे सब अंजान थे क्योंकि वो उपर से नजर जो नहीं आती थी पर, उसने तो उसे बडे ही एहतियात से सहेज कर रखा था जो वक़्त के साथ और भी साफ़ होती गयी जबकि उपरी तौर उस पर धीरे-धीरे तो दुनिया के कई रंग चढ़ गये लेकिन जिस गहरे रंग से उसने वो अक्स उकेरा था वो कभी-भी फीका नहीं पड़ा बल्कि उम्र के साथ और भी गहराता गया और जब उसके उस सपनों को हकीकत में साकार होने का समय आया तो उसे लगा जैसे वो सचमुच कोई ‘परी’ बन गयी हैं और उसके पंख उग आये हैं जिनसे उड़कर वो अपने उस चाँद को छू लेगी जो अब तक दूर से उसे ललचा रहा था जिसे पाने की लालसा उसे उस समय से थी जब से उसने अपनी माँ से ‘सिंड्रेला’ की कहानी सुनी थी जिसे उसके राजकुमार ने खुद ढूँढा था तो फिर ये तो खुद ‘एंजेला’ हैं जिसके लिये कोई फ़रिश्ता जरुर बनाया गया होगा जो उसे सोते से जगाकर उसके सभी स्वपनों को सच्चाई के उजले रंगों से रंगकर उन्हें सच कर देगा

अपनी पलकों को बंद कर वो उसका हाथ पकड़कर अपने घर को छोड़कर उसके साथ परदेस चली गयी लेकिन जब उस ‘ड्रीमलैंड’ में जाकर उसे अपने ‘राजकुमार’ में वैसी कोई भी बात नजर नहीं आई जैसी कि उसने सोच रखी थी तो उसके भीतर बने उस मजबूत स्वपनलोक की खिड़की का एक शीशा चटाक से टूट गया और फिर तो हर दिन कोई शीशा टूटता जिसने उसके अंदर किरचें ही किरचें फैला दी जिन पर चलकर उसका पूरा वजूद ही लहुलुहान हो गया था फिर भी शायद, आस का कोई एक सिरा शेष रह गया था जो उसे उस टूटे-फूटे आशियाने में जख्मी होने पर भी जिंदा रखता था पर, जिस दिन उसके उस ‘राजकुमार’ ने वो आख़िरी डोर भी तोड़ दी तो फिर उसके उस कल्पना जगत के ध्वस्त होते ही वो एक बेजान लाश-सी बन गयी जिसके अंदर उन टुकड़ों से उपजे अनगिनत सवाल थे जिसके जवाब किसी के पास नहीं थे कि क्यों उसको बचपन से ही ऐसे सपने दिखाये जो असल जिंदगी का हिस्सा नहीं थे ? क्यों नहीं खेल-खिलोनों की खिलंदड बातों को उस समय ही केवल खेल नहीं बताया गया ?? क्यों नहीं बचपन की यादें और बातें धुंधली नहीं होती और क्यों हर माँ अपनी बेटी को अपना वही ख्वाब विरासत में सौंप देती हैं जो गर, उसका पूरा नहीं हुआ तो फिर उसके अंश का किस तरह हो सकता हैं आख़िर जड़ों से ही तो  शाखायें बनती हैं और जिस जड़ में फफूंद लगी हो भला उसकी टहनियों में किस तरह से नूतन कपोल फूटेगी लेकिन फिर भी उसने तय किया कि जो भी हुआ सो हुआ पर, वो तो अपने उस दर्द को अपने ही साथ ले जायेगी अपनी बेटी को या उसके नजदीक आने वाली किसी भी बच्ची को उस पीड़ा के सागर में गोते लगाने के लिये न छोड़ जायेगी बल्कि उन्हें उससे पार निकलने के लिये हौंसलों की पतवार थमाकर जायेगी ताकि कहीं तो उस रोग का खात्मा हो... इन कोरी ख्याली बातों को विराम लगे... और इस एक ठोस इरादे ने फिर से उसके अंदर जीवन का मंत्र फूंक दिया और होंठ फिर से मुस्कुराना सीख गये... :) :) :) !!!      
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१० सितंबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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