बुधवार, 23 सितंबर 2015

सुर-२६५ : "काव्यकथा - दुःख से उपजे सुख...!!!"


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मित्रों...,



दुःख तो हर किसी के जीवन में हैं लेकिन गणितीय फार्मूले की तरह दो दुखी अपने दुःख को आपस में मिलाकर सुखी भी हो सकते हैं केवल नजरिया ही तो बदलना हैं जैसे कि इस माँ ने बदला---

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देते हुये
गरीब बच्चे को
भीख में सूखी बासी रोटी
बांझपन की आग में जलती
वो झल्लाकर बोली,
जाने कैसी हैं इसकी माँ
पैदा कर के छोड़ गयी
अपने कलेजे के टुकड़े को
सडकों पर रोने अपने दुखड़े ?

सुनकर उसकी ये बात
उस मासूम का भर आया दिल
रोककर अपनी रुलाई
उसने धीमे स्वर में कहा,
मैं क्या जानूं क्या होती हैं माँ ?
मैंने तो सडकों पे आँख खोली
सुनी ही नहीं माँ की बोली...

अचानक ही ममता का
एक सैलाब आया...
और उस अभागे को साथ अपने
बहाकर बहुत दूर ले गया
ऐसी जगह जहाँ था
सपनों का खुबसूरत संसार
निसंतान को मिल गया वरदान
बच्चे को उसकी खोयी माँ
भर गया दोनों का खालीपन
न रहा कोई गम का निशान ।।
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इस तरह एक अनाथ को ‘माँ’ मिल गयी तो एक बेऔलाद को संतान और दोनों एक दूसरे से मिल पूर्ण हो गये बस, एक पल ने दोनों का जीवन संवार दिया... काश, सभी इस तरह से खुद को बदल सके तो ये दुनिया जन्नत बन जाये... :) :) :) !!!
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२३ सितंबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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