शुक्रवार, 18 सितंबर 2015

सुर-२६० : "शिवाजी सावंत का शाहकार... रच गया इतिहास...!!!"


जब लेखन
स्याही से नहीं
लहू से लिखा जाता हैं
कलम की जगह
हृदय का प्रयोग किया जाता हैं
तब किताब के पृष्ठों पर
अक्षर नहीं जज्बात उभरते हैं
जो कालजयी बनकर
अभूतपूर्व इतिहास रचते हैं
कुछ ऐसा ही हुआ
जब ‘शिवाजी सावंत’ ने लिखा
भगवान सूर्य नारायण के वरदान
कवच-कुंडल धारी ‘कर्ण’ का कथानक
जो बना अविस्मरणीय ‘मृत्युंजय’
और आज भी साहित्य जगत में होती
सदा उस ‘लेखन’ और ‘लेखक’ की जय-जय हैं
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मित्रों...,

बाल्यकाल की अवस्था भोली-भाली और मासूम सिर्फ़ इसलिये नहीं कही जाती कि उस उम्र में परिपक्वता नहीं होती बल्कि इसलिये कि कोरे कागज-सा मन और गीली मिट्टी-सी काया हर बात से अनभिज्ञ और सीखने की लगन से भरी होती हैं तो ऐसे में उस पर जो भी रंग चढ़ जाये या उसे जिस भी आकार ढाल दिया जाये वो बड़ी आसानी से उसी रंगत-संगत में बदल जाती हैं तभी तो    चौदह बरस की नाज़ुक अवस्था में एक किशोर ने स्कूल के मंच पर अपने सहपाठियों के साथ एक नाटक खेला जिसमें उसने स्वयं तो भगवान् ‘कृष्ण’ की भूमिका निभायी लेकिन उस लड़के के मन में ‘कर्ण’ आकर ऐसे विराजे कि फिर मन के आसन से उठने का नाम ही न लें क्योंकि ‘महाभारत’ प्रसंग में असहाय अवस्था में जबकि उनके रथ का पहिया धंसा हुआ था उनको मारने का निर्णय लेना उनके कोमल हृदय को बेध गया और फिर उस किस्से के खत्म होते ही नाटककार और नाटक के  सब अभिनेता तो अपने-अपने रास्ते लगे पर, उस संवेदनशील भावुक हृदय पर उसका वो प्रभाव पड़ा कि सोते-जागते केवल उनका ही चित्रण अंतर पटल पर घूमता रहा और मन की उपजाऊ जमीन पर सृजन का जो बीज पड़ा तो धीरे-धीरे ‘कर्ण’ के चरित्र से संबंधित साहित्य पढ़ते-पढ़ते अंकुर फूट गया जिसने उनके लेखक हृदय को इस तरह से पुष्पित-पल्लवित किया कि उससे ‘मृत्युंजय’ जैसे एक महानतम अमर ग्रंथ का जनम हुआ जो ‘कल्पवृक्ष’ की तरह साहित्य जगत को अपनी छत्र-छाया से पोषित करता गया और आज भी शायद ही कोई साहित्य प्रेमी हो जो इस उपन्यास से अपरिचित हो क्योंकि इसके बिना तो हर पाठक की साधना ही अधूरी हैं ये तो वो ‘गंगोत्री’ हैं जिसमें डुबकी मारकर ही कोई कलमकार साहित्य की वैतरणी को पार करता हैं ।

वो किशोर जिस पर एक किरदार का ऐसा प्रभाव पड़ा वही तो ‘शिवाजी सावंत’ के नाम से मशहूर हुआ जो ३१ अगस्त, १९४० को आजरा, ज़िला कोल्हापुर (महाराष्ट्र) में पैदा हुआ था और लेखन जिसकी रगों में बसा हुआ था तभी तो बचपन से उनकी लिखने में रूचि थी और इन्होंने शुरुआत तो काव्य लिखने से की किन्तु अंततः उनका जनम जिस काज के लिये हुआ था वो स्वतः ही उस दिशा में बढ़ गये और पद्य का स्थान अपने आप ही गद्य ने ले लिया और फिर आया जीवन का वो घुमावदार मोड़ जिसने उनके अस्थिर जीवन को एकाएक उस राह पर लाकर खड़ा कर दिया जहाँ से उनको अपनी मंजिल तक पहुंचना ही था और इस तरह ‘कर्ण’ के चरित्र ने उन पर ऐसी छाप छोड़ी कि फिर सब कुछ फीका पड़ गया और इस तरह अनेक वर्षों के चिन्तन-मनन के उपरान्त सिर्फ़ २७  वर्ष की आयु में ही उन्होंने ‘दानवीर कर्ण’ को नायक बनाकर अपना प्रथम मराठी उपन्यास ‘मृत्युंजय’ लिखा जिसने लोकप्रियता का एक न्य कीर्तिमान बना दिया जिसका अनुवाद अंग्रेज़ी एवं हिन्दी सहित  गुजराती, राजस्थानी, कन्नड़, तेलुगु, मलयालम, बांग्ला आदि अनेक भाषाओं में भी हो चुका है । फिर  युगपुरुष ‘श्रीकृष्ण’ के जीवन को आधार बनाकर एक अन्य उपन्यास 'युगंधर' लिखा जिसे पढ़कर लोगों को ‘कृष्ण’ के बारे में सभी जानकारियां अत्यंत सहज-सरल भाषा में उपलब्ध हुई ।

शिवाजी सावंत का निधन आज ही के दिन १८ सितंबर, २००२ को मडगाँव (गोवा) में देहावसान हुआ.. आज उनकी ही पुण्यतिथि पर मन से नमन... वे भले ही आज हमारे मध्य नहीं हैं लेकिन उनका सृजन सदैव इस धरा पर उनके नाम को अमिट रखेगा और जब-जब भी किसी से उसकी प्रिय साहित्यिक कृतियों के बारे में पूछा जायेगा तो उसमें सबसे पहली पंक्ति में ‘मृत्युंजय’ का नाम आयेगा... ये होता हैं सच्चा लेखन जो किसी भी भाषा में हो सबको अपनी और आकर्षित कर लेता हैं तभी तो हम हिंदी भाषी भी मराठी में लिखे उस ग्रन्थ का उतने ही मनोयोग से पाठ करते हैं और आँखों से आंसू स्वतः ही झरते हैं... जो लिखने वाले की कलम के प्रति सम्मान दर्शाते हैं... :) :) :) !!!
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१८ सितंबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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