गुरुवार, 3 सितंबर 2015

सुर-२४३ : "लघुकथा : भ्रम' !!!

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मित्रों...,


आपके पास न तो अपनी पत्नी और न ही अपने घर के लिये कोई समय हैं जबकि अपने दोस्त ‘अनिल’ को ही देखो अपनी बीबी का कितना ख्याल रखता हैं उसकी हर बात मानता हैं यहाँ तक कि खुद को ‘पत्निव्रता’ भी कहता हैं, ‘समर’ को ऑफिस से आते ही फ्रेश होकर तुरंत कहीं जाते देख ‘अक्षरा’ बोल पड़ी
  
ये बात सुनते ही जैसे कोई ज्वालामुखी फट पड़ा ‘समर’ जब चीखकर  बोला, ‘पतिव्रता’ का विलोम भी कहीं होता हैं क्या... बेवकूफ स्त्री... पति से कहती हैं ‘पत्निव्रता’ बनो... मजाक भी नहीं समझती... ये सब कहने की बातें हैं कोई अपनी पत्नि का सच्चा भक्त नहीं होता... जो नजर आता वो दिखावा हैं जिसकी आड़ में पतिदेव अपनी मनमानी करते और पत्नी खुशफहमी में फूली रहती कि उसका पति उसका कितना कहना मानता हैं... माय फुट... आइंदा मुझसे ऐसी फालतू बात न कहना समझो... कहते हुए पतिदेव अपने उसी दोस्त के साथ चले गये जिसका हवाला देकर वो उनसे आदर्श पति बनाम ‘पत्निव्रता’ बनने के अपेक्षा कर रही थी ।
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०३ सितंबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री

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