बुधवार, 2 सितंबर 2015

सुर-२४५ : "जैसा होता सामने का मंजर... वैसा ही चलता दिल के अंदर...!!!"


वक़्त की
उँगलियों पर
सांसों की डोर से बनी
‘जीवन माला’
मनका-मनका कर
आगे बढ़ती ही जाती
हर क्षण होते अनुभवों से
कड़ी-कड़ी जुड कर
धीरे-धीरे पूरी होती जाती   
और खत्म होते ही जीवन चक्र 
दाना-दाना बिखर जाती   
जिन्हें समेटकर भी
दूसरी माला बन नहीं पाती
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मित्रों...,

‘जीवन’ में कितने क्षण या कितने जीवन होते ये तो किसी को भी नहीं पता लेकिन ये तय हैं कि हर एक आने वाला नया पल अपने साथ कुछ नया लेकर आता जिससे मन का मिजाज भी बदल जाता और क्यों न बदले आखिर ‘मन’ का दूसरा नाम ‘वक्त’ ही तो हैं जो कभी स्थिर नहीं रहता सबको पीछे छोड़कर हमेशा आगे-ही-आगे बढ़ता जाता और इन आते-जाते लम्हों का जो भी असर उसके उपर होता उसे जेहन के सफों पर अदृश्य स्याही से लिखता जाता जिसे पढ़ने का समय भी सबको नहीं मिल पाता लेकिन जब कभी तन्हाई में ये पन्ने खुल जाते तो वो खुद अचरज में पड़ जाता कि किस-किस मुकाम से होकर गुजर गयी जिंदगी अपने कदमों के निशाँ पीछे छोड़कर जिन पर लिखी इबारत ने उसे फिर से उसी दौर में पहुंचा दिया जब उसने इन सब पलों को जिया था कभी हंसकर तो कभी रोकर उनका खट्टा-मीठा अमृत पिया था तभी तो वो पल अमर होकर उसके स्मृति ग्रंथ में सदा-सदा के लिये दर्ज हो गये और अब यही उन बीती बातों का चलचित्र दिखा रहे जिसमें कहीं सुख तो कहीं दुःख हैं और कहीं ऐसे भी वाकये हैं कि जिसने उसकी जिंदगी का रुख ही बदल दिया तो कुछ ऐसे मुकाम भी जहाँ पहुंचकर जीवन गाड़ी फंस गयी या अटक गयी और किस्मत का धक्का खाकर फिर आगे बढ़ गयी तो कहीं ऐसे भी पानी के बुलबुले जैसे क्षणभंगुर घटनाओं के सिलसिले हैं जब ‘मन’ उन पलों के साथ बह गया उनका ही होकर उन जैसा ही सोचने लगा और जैसे कोई अम्मोहन टुटा और वो वापस मुख्य धारा में शामिल होकर फिर से सबके साथ बहने लगा

वाकई कभी-कभी हम समय के किसी हिस्से के रंग में यूँ रंग जाते कि बस, उस पल तो उसी तरह का बन जाना चाहते जैसी कि उस शय को देखकर मन की तासीर हो जाती तभी तो बच्चों के साथ खेलते हुये हम बच्चे बन जाते और पढ़ने या लिखने बैठते तो गंभीर हो जाते याने कि जिस तरह का माहौल होता उसी तरह से व्यवहार करने लगते जो कि सबके लिये न सही मगर, सामान्यतः उन लोगों के लिये बड़ा अनुकूल होता जो अपने आपको किसी तरह के आडम्बर से नहीं बांधते तो वे उन्मुक्त होकर अपने मनोभावों का प्रदर्शन करते लेकिन जिनके भीतर कुछ हिचक होती वे अंतर को दबाकर बैठे रह जाते जबकि चंद लोग अपने को सर्वश्रेष्ठ जाहिर करने किसी भी तरह की प्रतिक्रिया नहीं करते लेकिन फिर भी जीवन की क्षण-भंगुरता के अहसास से हर किसी के अंदर एक से ही भाव जगते और वो उस पल से ही खुद को बदलने का निर्णय ले लेते जिसे कि ‘श्मशान वैराग्य’ कहा जाता जिसकी कैफियत हर किसी अंदर एक समान ही होती तभी तो जब भी कहीं ऐसा कोई मंजर नजर आता हर आँख अपने आप भींग जाती और कहीं भीतर का कोई कोना द्रवित होकर उसके लिये सोचने लगता सच, जीवन एक ऐसी अनपेक्षित रहस्यों से भरी कहानी हैं जिसके अगले पृष्ठ पर क्या लिखा हैं कोई नहीं जानता उसे तो बस उस कथा में लिखे किरदार को उसी तरह से निभाना हैं जैसा कि उसमें दर्ज हैं क्योंकि इसे लिखने वाला कलमकार कोई आदम जात नहीं बल्कि उपरवाला ‘रब’ हैं जिसने हर एक रूह को एक अलग किरदार और कथा से नवाजा हैं और हमें तो केवल अपने को दिये गये पात्र को अभिनीत करना हैं

अपनी भूमिका निभाते-निभाते हम अपने आपको ही अपनी जिंदगी का सिरमौर समझने लगते पर, सत्य तो सत्य ही होता जिसका अहसास अंतिम घड़ी से सामना होने पर ही होता क्योंकि किसी का जीवन कैसा भी सुविधायुक्त या सुविधाविहीन क्यों न रहा हो लेकिन उस आखिरी सफर पर सबको पैदल ही जाना हैं जो कुछ भी यहाँ मिला या कमाया सब कुछ यही छोड़कर जाना हैं शायद, इसी कारण जब उसके समक्ष कोई ऐसा नजारा आता जो उसे इस हकीकत का अहसास कराता तो बेशक यही ख्याल आता कि काश, घड़ी की सुइयों या कदमों को वापस मोड़ सकते... काश, उस एक अवसर को फिर से जी सकते या काश, उस पल को बदल सकते.... लेकिन ‘काश’.... तो ‘काश’ ही होता और कोई जीवन ऐसा नहीं जिसमें कोई ‘काश’ न हो क्योंकि जितनी तेजी से समय का पहिया घूमता या मन भागता उतनी तेजी से हम अपने आपको नहीं बदल सकते बस, चंद पल ही उस तरह से सोच सकते जैसा कि प्रत्यक्ष दिखने वाली वस्तु के दृष्टिगोचर होते ही मन में भाव उमड़ता जो केवल क्षणिक होता और हमें कभी फलक पर उडाता तो कभी जमीन पर ला पटकता... क्या कहे सिवाय इसके कि दिल तो हैं दिल... दिल का ऐतबार क्या कीजे... कभी हंसे कभी रोये क्या कीजे... सच... जैसा होता सामने का मंजर... वैसा ही चलता दिल के अंदर... :) :) :) !!!        
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०२ सितंबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री

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