शुक्रवार, 10 मार्च 2017

सुर-२०१७-६९ : समय उतना ही रहेगा... बदलना हमें ही पड़ेगा...!!!

साथियों... नमस्कार...


‘समय’ सबके पास २४ घंटे का ही होता कोई भी नहीं जिसको दिन में इससे अधिक एक मिनट भी मिलता लेकिन ये उस व्यक्ति पर ही निर्भर कि वो चाहे तो अपनी समझदारी व टाइम मैनेजमेंट से इन्हें ही २५ या ३० घंटे बना ले या चंद घंटों में बदल ले पर, कुछ लोग तो इन्हें कम ही समझते और दिन-ब-दिन उनकी ये समस्या बढती ही जाती क्योंकि अव्यस्थित रहने की आदत उनको कभी भी कोई काम नियत समय पर करने नहीं देती उस पर तुर्रा ये कि उन्हें खुद की व्यस्तता का देश के प्रधानमंत्री से भी अधिक गुमान ऐसे में ज़ाहिर हैं कि उनसे न सिर्फ उनके अपने बल्कि वो सब भी जो किसी तरह से जुड़े परेशान रहते कि अगला किसी काम के लिये जो भी टाइम देता कभी भी उस पर उपस्थित नहीं रहता जिसकी वजह से न केवल उसका बल्कि स्वयं का भी नुकसान होता ऐसे में जिनके लिये संभव होता वो उससे दूरी बना लेते पर, महाशय को सुधरना ही नहीं तो फिर चाहे कितने भी कड़वे या बुरे अनुभव हो जाये कोई फर्क नहीं पड़ता...

भले उन्हें इस बात का अहसास हो कि उनकी इस आदत के कारण लोग उससे रिश्ते नहीं बना रहे या उसको पसंद नहीं करते वो अपनी ही गति से चलते रहते कम ही होते वे जो एकाध झटके में संभल जाते बाकी तो आज के संकल्प को कल भूल वापिस उसी ढर्रे पर चलने लगते कि लीक से हटकर चलने में उनको बड़ी परेशानी होती इस तरह के लोगों से आये दिन हमारा पाला पड़ता पर, कितनी भी समझाइश दो उन पर कोई असर नहीं होता वे तो कुत्ते की दम की तरह टेढ़े के टेढ़े ये जानते हुये भी कि समय बदलता जरुर पर, कभी भी बढ़ता नहीं ऐसे में उसका भरपूर उपयोग करने हमें ही खुद में परिवर्तन लाने पड़ते नहीं तो अमूमन यही नतीजा होता कि दूसरों की तरक्की को देखकर जलते-कुढ़ते रहने या हाथ मलने के सिवाय कोई विकल्प नहीं बचता या फिर वे अपनी कमियों को दूसरों पर थोपना शुरू कर देते या किस्मत/तकदीर जैसे तर्कों से अपनी गलतियों को ढंकना शुरू कर देते...

आज के इस तकनीकी युग से कदमताल करने तो समय का संयोजन अत्यंत आवश्यक क्योंकि गेजेट्स के साथ हमारा सर्वाधिक समय व्यतीत हो रहा जिसके कारण कई आवश्यक काम भी छूट जाते लेकिन जब तक मोबाइल में बेट्री होती हाथ से मोबाइल नहीं छूटता या फिर लैपटॉप पर ऑंखें गडाये बैठे रहते दिन से रात हो गयी इस बात का अंदाजा भी तब होता जबकि पलकें झपकने लगती तो कान में ठूंसे इयर फोन सहित मोबाइल को थामे-थामे ही सो जाते और ये किसी एक दिन विशेष की बात नहीं रोज का यही हाल यहाँ तक कि किसी को समय दिया हो तो वो भी याद नहीं रहता कि कोई हमारा इंतजार कर रहा या हमें कहीं पर एक निश्चित टाइम में ही पहुंचना और ऐसा न करने पर किसी भी तरह का खामियाजा उठाना पड़ सकता परंतु वादाखिलाफी का आलम वो हो चुका कि तमाम दावे खोखले साबित हो रहे चाहे फिर वो किसी नेता के हो या किसी प्रेमी के या  फिर किसी भी  रिश्ते के सब इस आदत के आगे सर पटक रहे कि हमारी बारी कब आयेगी?

‘फुर्सत’ वो लफ्ज़ कि जिसका इस्तेमाल अधिकतर वही लोग करते जिनके पास फालतू का समय अधिक होता पर, जरा नकारात्मकता के साथ कि बोले तो वो कहावत चरितार्थ करते हैं “काम कौड़ी का नहीं, फुर्सत घड़ी की नहीं” लेकिन जिन्हें घड़ी की सुइयों के साथ लेफ्ट-राईट-लेफ्ट करना आता वो इसे जुबां पर कम ही लाते कि जरूरी-गैरजरूरी कामों की महत्ता का उनको पूरी तरह से अहसास होता तो उसी के अनुसार हर काम को जगह देते और जहाँ जरूरी लगता वही इसकी आड़ लेते कि ये कामचोरों का अस्त्र जिसे चलाकर वो समय बर्बाद करते इसलिये सफ़ल व्यक्ति गिनती के होते क्योंकि वे हर हाल में खुद को समय के साथ बदलते रहते क्योंकि वे जानते कि समय तो हमेशा उतना ही रहेगा... उसे कम या ज्यादा हमें ही बनाना होगा, बदलना उसका नियम लेकिन सिर्फ तारीखों के मामले में वो हर दिन नया होकर सामने आता लेकिन होता उतना ही जितना बरसों से चला आ रहा तो ऐसे में जितनी जल्दी हो खुद को उसके अनुसार ढाल ले... गर, कुछ करने की तमन्ना मन में हैं... :) :) :) !!!         
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

१० मार्च २०१

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