शनिवार, 11 मार्च 2017

सुर-२०१७-७० : हर ‘चुनाव’ कुछ कहता हैं... जिसे अनसुना किया तो फिर भुगतना पड़ता हैं...

साथियों... नमस्कार...


केवल नाम का ही ‘उत्तर-प्रदेश’ था वो परंतु उसके अनगिनत प्रश्नों का किसी के पास एक भी उत्तर नहीं था और जिसे देखो वही अपने फायदे के लिये उसका जैसा चाहे वैसा इस्तेमाल करता था और अकेले उसकी ही नहीं अन्य प्रदेशों की भी त्रासदी लेकिन शोषण उसका ज्यादा हो रहा था क्योंकि वहां तो इंसानों को महज़ ‘वोट बैंक’ समझा जाता था और अपने हित के लिये उनको चुनाव के समय विशेष सुविधाओं एवं लुभावने वादों के जरिये आने हक में कर लिया जाता था परंतु आख़िरकार कब तक ऐसा चलता और कब तक वो इसे या उसे वोट देकर आजमाते रहते कि यही मसीहा साबित होगा उसे हराभरा-खुशहाल ही नहीं उन्नत बनायेगा लेकिन जैसे ही नतीजा आया अगले का काम बना उसने अगले पांच सालों के लिये उससे मुंह फेर लिया या किसी एक विशेष जाति को अधिक तवज्जो देकर दूसरे को पाना दुश्मन बना लिया इस तरह अंग्रेजों से ‘फूट डालो राज करो’ की नीति का सबक सीखने वाले वही लोग जो कभी उस दंश को झेल चुके हैं उसे भूलकर अपनों को फिर वही तजुर्बा करवाते हैं लेकिन ये भूल जाते हैं कि जिस तरह फिरंगियों के अत्याचारों का घड़ा भरा तो उसे न सिर्फ फोड़ दिया गया बल्कि उन्हें इस देश से खदेड़ भी दिया गया फिर भी ‘बीती ताही बिसार दे आगे की सुध लेय’ की तर्ज पर वे आगे बढ़ जाते पर, जो जुल्मों-सितम सहते वे जरुर जाग जाते और फिर उन्हें दुबारा ये याद दिलाते कि तानाशाही का शासन लंबा हो सकता पर, कभी न कभी उसे अपनी ही दुष्टता की वजह से उन्हीं लोगों के हाथों खत्म होना पड़ता जिसे उसने अपने शासनकाल में दबाकर रखा और जब वक्त आता तो ‘राजगद्दी’ पर  नये राजा को बिठाकर उसका राजतिलक किया जाता और यदि उस ‘राजा’ ने ही वही गलती दोहराई तो उसका भी वही अंजाम किया जाता याने कि जनता को जनार्दन यूँ ही नहीं कहा जाता बल्कि उसके पास वो ताकत हैं जो सत्ता परिवर्तन का अचूक हथियार अपने पास रखती जिसे आप कितनी भी जोर-जबरदस्ती करो लेकिन उससे छीन नहीं सकते क्योंकि मुंह पर आपकी-सी बोलकर भी वो किसे अपना अनमोल मत देगी ये सिवाय उसके कोई नहीं जानता

इसका परिणाम तब नजर आता जब चुनावों के नतीजे सामने आते तो अप्रत्याशित परिणाम पाकर प्रत्याषी बौखला जाते और उटपटांग बयान देने लगते जैसे कि आज के ‘इलेक्शन रिजल्ट्स’ को देखकर भी लग रहा जब हम पराजित उम्मीदवारों की उम्मीदों पर पानी फिरने के बाद उनके बोल-वचन सुन रहे तो अहसास हो रहा कि राजनीति के ये ठेकेदार कितने उथले दिमाग के जिनका मानसिक संतुलन बड़ी आसानी से गड़बड़ा जाता जिससे कि मुंह से अनर्गल प्रलाप चालू हो जाता जो विलाप ज्यादा नजर आता और ये किसी एक दल-विशेष का ही कार्य नहीं सभी हारने वालों का यही हाल होता जो ये दर्शाता कि गद्दी व सत्ता का मोह उन्हें किस कदर जकड़े हुये कि उससे अलग होने का दर्द वो सह नहीं पा रहे तो जो भी संभव उस तिकड़म को भिड़ाने में लगे यदि लगता कि दुश्मन को गले लगाकर पुनः कुर्सी पर काबिज हो सकते तो उन्हें शत्रु को मित्र कहने से भी कोई गुरेज नहीं होता कि मन की कटुता को भीतर रखकर उपर से मिठास उड़ेल अपने स्वार्थ के लिये गठबंधन कर लेते पर, जब ये रास्ता भी नजर नहीं आता तो फिर उलटे-सीधे स्टेटमेंट्स देकर खिंसयानी बिल्ली के टाइप मन की भड़ास निकालने का विकल्प ही शेष रह जाता और ये दृश्य कोई पहली बार हम नहीं देख रहे हर पार्टी जिसकी जीत होती वो तो ‘पार्टी’ मनाने में मस्त हो जाती लेकिन जिसकी ख्याली पार्टी बिगड़ जाती वो इस तरह से उसके मजे को खराब करने में जुट जाता जिसका असर सामने वाले पर, भले कुछ न हो लेकिन उसका असली चेहरा जरुर सामने आ जाता जिसे वो चुनाव पूर्व नकली मुस्कानों से ढंककर रखता और वोट पाने प्रजा की हर-तरह से लल्लो-चप्पो करता पर, जब उन्हें पा लेता या फिर नहीं पाता दोनों ही स्थितियों में उसकी प्रतिक्रिया परिवर्तित हो जाती क्योंकि चाहे कोई जीते या कोई हारे अपना काम निकल जाने के बाद जनता को दोनों ही भूल जाते और अगले पांच साल के बाद दुबारा उसके पास आते तब भी उन्हें याद नहीं आता कि पिछली बार हमने कौन-से दावे-वादे किये थे जिन्हें पूरा नहीं किया लेकिन जनता के दिमाग में सब कुछ साफ-साफ़ रहता और वो उसके कार्यों के आधार ही उसको आईना दिखाती जिसमें फिर अपनी शक्ल उसे साफ़-साफ़ दिखाई देती तो अगली बार फिर से उसे पटीयाने के नये उपाय सोचने और नये एजेंडे के साथ वो उसके सामने आती पर, सिर्फ बाहरी रूप से भीतर से वो बदलती नहीं...

इस बार के नतीजे भी यही कह रहे कि हम आपकी बातोंनफे  पर पूर्ण भरोसा कर आपको पूर्ण बहुमत दे रहे लेकिन यदि आपने इन्हें पूर्ण नहीं किया तो फिर आगे हम किसी पर भी भरोसा नहीं कर पायेंगे कि सबको आजमा चुके हाँ, कोई नया दल उभर आये तो वो अलग बात लेकिन जिन्हें परख चुके उन्हें अब कोई मौका नहीं देना इसलिये जो भी विजेता बने वे ये समझ ले कि ‘राजनीति’ सिर्फ उनको नहीं आती अब जनता भी इसे समझने लगी हैं तो जो भी कहा हैं आपने वो कर के दिखाना वरना, हमें आता हैं हराना... इंसान को केवल इंसान समझ जाये वोट मानकर उसकी भावनाओं से न खेला जाए कुछ यही कहना चाहती हैं यू.पी. की जनता शायद, जो ब्राम्हण-दलित-मुस्लिम जैसे भेदभावों में बंटकर अपने नुकसान व दलों के फायदे को समझ चुकी हैं कि ‘कोई नृप होय, हमें ही हानि’ इसलिये वो आपस में झगड़ना नहीं चाहती सब पढ़े-लिखे समझदार लोग जो किसी के हाथों अपना शोषण नहीं होने देना चाहते उन्हें तो महज़ तरक्की, सुरक्षा और खुशहाली चाहिये न कि मजहबी लड़ाई में अपनी जान गंवाना चाहते इसलिये जीतने वालों को बधाई व शुभकामनाओ के साथ ये हिदायत भी कि वे ‘देश’ को अपनी माँ कहे नहीं समझे भी और उसके प्रति ईमानदारी से निष्ठापूर्ण अपने दायित्वों का केवल निर्वहन करें बाकी स्वयमेव होता जायेगा... आप अपनी जिम्मेदारी निभाओ, हम अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं... राष्ट्र को फिर से ‘वसुदेव कुटुंबकम’ वाला प्यारा भारत देश बनाते हैं... :) :) :) !!!                          
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

११ मार्च २०१

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