शुक्रवार, 31 मार्च 2017

सुर-२०१७-९० : सिने जगत की अभिनय सम्राज्ञी : ‘मीना कुमारी’!!!

साथियों... नमस्कार...

हिंदी सिनेमा का ये सौभाग्य रहा कि प्रारंभ में भले ही संभ्रात परिवार वालों ने उसे हेय दृष्टि से देखा या औरतों ने उसमें काम करना नापसंद किया लेकिन, जब भी किसी ने किसी भी वजह से इसको अपनाया चाहे वो ख़ुशी से हो या मजबूरी से तो फिर अपने अभिनय के दम पर जीवित रखने वाले इन अदाकारों ने अपनी तरफ से कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी यहाँ तक कि जब अपनी आर्थिक परिस्थतियो की वजह से अच्छे परिवार की लड़कियों ने इसमें कदम रखा तो उन्होंने इसे महज़ रोजी-रोटी कमाने का जरिया नहीं समझा बल्कि अपने वास्तविक अनुभवों के निचोड़ से उस समय की काल्पनिक कहानियों में भी ऐसा वास्तविक अभिनय किया कि जब जरूरत पड़ी तो बिना ग्लिसरीन लगाये भी उनके नेत्र छलक पड़े कि उन्होंने इसे निरा नाटक नहीं समझा बल्कि अपने काम को पूजा की तरह समझा और जो भी किरदार निभाने को मिले साधना की भांति उसमें गहरे तक डूबकर अपनी तरफ से शत-प्रतिशत दिया तभी तो उस दौर की फिल्मों व कलाकारों को भूलना मुमकिन नहीं...

जो कि किसी तरह के एक्टिंग स्कूल में प्रशिक्षित न होने के बावजूद भी अपने सहज-सरल भावों से देखने वालों के दिल जीत लेते थे जबकि आज के ट्रेंड स्टार्स सब तरह की सुविधाओं के बाद भी वो प्रभाव छोड़ने में कामयाब नहीं रह पाते जिनके लिये हम आज भी पुराने कलाकारों को याद करते हैं कि उनकी अपनी विशेषतायें, उनके अपने अलहदा अंदाज़ व हाव-भाव जिनसे उनकी अपनी अलग पहचान बनी और आज तो सब एक जैसे ही नजर आते किसी के भी पास अपना कोई ख़ास स्टाइल या संवाद अदायगी नहीं जिसके लिये हम आज भी सोहराब मोदी, पृथ्वीराज कपूर, दिलीप कुमार, राज कपूर, देव आनंद, बलराज साहनी, राज कुमार, राजेंद्र कुमार, राजेश खन्ना, शत्रुध्न सिन्हा, निरूपा रॉय, कामिनी कौशल, नलिनी जयवंत, नादिरा, निम्मी, गीताबाली, नर्गिस, मधुबाला, मीना कुमारी, नूतन, माला सिन्हा, साधना, मुमताज़ का स्मरण करते हैं उनके डायलॉग दोहराते तो उनकी भाव-भंगिमाओं की भी नकल करते हैं कि किस तरह उन्होंने अपनी अदाओं से इन्हें यादगार बना दिया...

इसकी वजह शायद, इन सबका धरातल से जुड़ाव व अपने काम के प्रति गंभीरता थी जबकि आज तो एक फिल्म से कलाकार के भाव और कद आसमान छूने लगते वो भी तब जब फ़िल्में पहले की तरह न तो सिल्वर, गोल्डन, डायमंड या प्लेटिनम जुबली मनाती और एक वो भी समय था कि फ़िल्में व गाने सालों-साल तक गूंजते रहते थे और आज तलक भी उनकी मिठास हमें सुकून का अहसास देती और वो पुरानी फ़िल्में तो किसी पुरानी दवा की तरह हमारी परेशानियों पर मरहम का काम करती इसलिये जब भी उस सुनहरे दौर के किसी भी कलाकार की कोई तिथि आती तो अपने आप ही जेहन में उसकी सूरत व उसके काम की झलक रील की तरह चलने लगती ये दर्शाता कि कोई भी काम हो जिसे पूरी शिद्दत से किया जाता तो उसके अमिट निशान उस कलाकार के जाने के बाद भी उसका नामो-निशान मिटने नहीं देते बल्कि उनके जरिये वो उसे युगों-युगों तक जीवित रखते...

ऐसी ही एक हरदिल अजीज अदाकारा थी ‘महजबीन’ उर्फ़ ‘मीना कुमारी’ जिसके सौंदर्य ही नहीं बल्कि हर किरदार ने अपने चाहने वालों के दिलों-दिमाग पर इस तरह से कब्जा जमाया हैं कि जब भी दर्द या गम की बात हो तो ‘ट्रेजेडी क्वीन’ के रूप में उनकी ही तस्वीर मस्तिष्क में उभरने लगती जिन्होंने केवल दर्द को ही नहीं हर एक भाव, हर एक रस और हर एक अहसास को अभिव्यक्ति दी लेकिन जन्म से ही प्रकृति द्वारा अंतर में पीड़ा का कोई बीज इस तरह से रोपा गया था कि दिन-प्रतिदिन उसकी शाखायें निकलती जाती और एक दिन तो वो इतना विशाल वृक्ष बन गया जिसकी छाया ने उनकी मुकम्मल शख्सियत को अपनी कैद में भर लिया तो फिर कोई भी चरित्र हो या रोल उसमें कहीं न कहीं उस दर्द की छाप पड़ ही जाती यहाँ तक कि उनकी आवाज़ में भी वेदना की वो लहर लहू की तरह समा गयी थी कि उसे सुनकर ही मन द्रवित हो जाता और उसकी गूँज सिनेमा हाल से बाहर आकर भी कानों में सुनाई देती रहती यहाँ तक कि जिसने उनको महसूस किया वो आज भी उसे अपने भीतर सुन सकते हैं कि वो महज़ कोई आवाज़ नहीं दर्द का साज़ हैं.... 

अपने अंतर की वो बेख़ुदी उस पर इस कदर तारी थी कि जब उन्होंने उसे शब्दों में व्यक्त किया तो उनकी कलम से निकलकर अल्फाज़ भी गम की शायरी या नज़्म बन गये यदि हम इसे यूँ कहे कि वे पीड़ा का मानवीय अवतार थी तो ये अतिश्योक्ति न होगी बल्कि उनकी दिव्य सुंदरता, कोमलता और संजीदगी को देखकर तो हमने ये जाना कि दर्द इतना खुबसूरत भी होता हैं जो अपने भीतर गम को छिपाकर उपर से मुस्कुराता रहता हैं और जब इसे शान करना संभव नहीं होता तो उसे भूलने के लिये नशे का सहारा भी लेता हैं फिर इस तरह से उसमें डूब जाता कि अपना वजूद ही मिटा देता हैं कुछ ऐसा ही तो किया उन्होंने अपने जीवन के साथ कि जब हर तरफ से उन्हें सिवाय धोखे या बेवफाई के कुछ भी हासिल न हुआ तो फिर ऐसे में उन्होंने मदहोशी का रास्ता अपनाया कि हर तकलीफ को भूलकर यूँ गाफ़िल हो इस जहाँ से कि फिर किसी भी तरह की बड़ी से बड़ी तकलीफ़ का भी उन्हें कोई अहसास न हो कि पहले ही अंदर इतनी वेदना भरी कि अब थोड़े-से भी दर्द के लिये जगह शेष नहीं तो गम के प्यालों को छोड़कर नशे को तरजीह देने लगी जिसका नतीज़ा ये निकला कि उन्हें असमय ही इस दुनिया से रुखसती करनी पड़ी...

उनकी ये कहानी भी किसी फिल्म की तरह नजर आती असलियत में वो जिसकी नायिका की भूमिका निभा रही थी और अफ़सोस कि उसका अंत भी दुखद ही रहा जब वो कम उम्र में इस हंसती-खेलती दुनिया को आज ही के दिन अलविदा कहकर चली गयी आज उनकी पुण्यतिथि पर हम उनको याद करते हैं तो कभी वो सामने छोटी बहु की तरह नजर आती हैं तो कभी पाकीज़ा की तरह नाचती दिखाई देती हैं तो कभी परिणीता बन शर्माती हैं और कभी चित्रलेखा की तरह गाती हैं... “संसार से भागे फिरते हो, भगवान को तुम क्या पाओगे...” याने कि जितनी भूमिकायें उतने ही उसके विविध रूप आँखों में तैर जाते हैं... अब यही उनकी अंतिम निशानियाँ हैं, जिनके सहारे उनकी यादें दोहरानी हैं... स्मृति दिवस पर यही शब्दांजलि... उन महान अदाकारा के प्रति... :) :) :) !!!
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

३१ मार्च २०१७

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