साथियों... नमस्कार...
ज्यादा पुरानी नहीं कहने को पिछले साल मगर, चंद
महीने पुरानी ही बात हैं जब ‘रियो ओलंपिक’ में भारत की उम्मीद टूटने लगी थी जो बड़े
दावे के साथ अपने खिलाडियों को लेकर गयी थी ऐसे में ‘साक्षी’ और ‘पी. वी. सिंधु’
ने चंद घंटो के अंतराल में एक-एक मैडल जीतकर समूचे भारत देश को गर्वित होने के
क्षण दिये जिसने फिर एक बार ये सिद्ध कर दिया कि महिलाओं की प्रतिभा पर यदि
विश्वास कर उनको मौका दिया जाये तो वे हर्गिज़ निराश नहीं करती बल्कि आशाओं से बढ़कर
परिणाम देती हैं चाहे फिर खेल का मैदान हो या परीक्षा हाल वे शीर्ष पर ही छाई रहती
हैं गोया कि अव्वल आने का जूनून उनके भीतर होता हैं जो उनको वो कर दिखाने का
हौंसला देता जो अमूमन हम उनसे अपेक्षित नहीं करते तभी तो बचपन से घर में दूध, घी,
मलाई, मेवे तो लडकों को दिये जाते और उनकी थाली सदा लजीज खानों से भरी रहती जबकि
लडकियों को उनकी तुलना में उतना पौष्टिक भोजन व आहार नहीं दिया जाता न ही कोई
विशेष देख-रेख या ख्याल ही रखा जाता फिर भी वे भीतर से ही इतनी ऊर्जावान और उवर्रक
होती हैं तो हर कमी को अपने भीतरी जोश से पूरा कर हर परिस्थिति से लड़ लेती हैं
याने कि जिस ख्वाहिश से लड़कों का पालन-पोषण किया जाता वे उस कसौटी पर भले खरे न
उतरे लेकिन लड़की अपने फ़र्ज, अपने दायित्व न बखूबी समझती बल्कि उनका निर्वहन किस
तरह से करना इसे बेहतर तरीके से जानती हैं...
बचपन से ही ने केवल उनके खान-पान में ही भेद
किया जाता बल्कि उनके रहन-सहन के तौर-तरीकों में भी विभेदन पाया जाता यहाँ तक कि
लड़कियों को तो बात-बात पर टोका जाता उनके हर एक काम, उनकी हर एक हरकत पर न केवल
नजर रखी जाती बल्कि सांसों पर भी पहरे होते और छोटी-से-छोटी बातों को नोटिस किया
जाता, उन पर टीका-टिप्पणी की जाती इतना ही काफी नहीं उनके खेल-खिलोनों में फर्क
किया जाता जहाँ लड़कों के पास अच्छे-अच्छे गेम, गन और मोटर-कार होती वहीं लडकियों
को चुनिंदा खिलौने जैसे कि तरह-तरह की गुड़िया, किचन सेट, डॉल हाउस दिलाये जाते
याने कि उनके टॉयज भी अलग-अलग होते और उनके खेलने लायक खेलों को भी निर्धारित कर
दिया गया कि फलां लडकों के खेल तो ढिकाना लडकियों के परंतु धीरे-धीरे उसे ये अहसास
हुआ कि वो केवल इस सीमाओं में बंधकर अपनी शारीरिक क्षमताओं का पूर्ण उपयोग नहीं कर
सकती तथा उसका भी मन शूटिंग करने या कुश्ती लड़ने या मुक्केबाजी करने का होता परंतु
यहाँ तो खेलों पर भी पाबंदी वो भी बड़ी प्यारी-सी दलील के साथ कि वो नाजुक, खुबसूरत
और घर के काम के लिये ही बनी ये सब मर्दाना खेल हैं जिनमें हाथ आजमाना या आने का
सोचना भी बड़ी हिमाकत हैं उसे तो केवल दौड़ना-कूदना या ज्यादा से ज्यादा हुआ तो
स्विमिंग या बेडमिंटन, फुटबाल, क्रिकेट आदि में आने की इजाजत मिल सकती मगर, कुश्ती
या मुक्केबाजी या तीरंदाजी या निशानेबाजी पर मर्दाना टैग लगा हुआ तो धीमे-धीमे
उसने इन खेलों पर लगे मर्दाना लेबल को भी उतार फेंका जिसकी वजह से हमें कई बड़ी
अच्छी शूटर, बॉक्सर, रेसलर मिली जिन्होंने अपने धांसू प्रदर्शन से न केवल अपने देश
का नाम ऊंचा किया बल्कि देश-विदेश की सरज़मीन पर कई बड़े-बड़े अवार्ड व सम्मान भी
जीते...
यदि हम इन भारतीय महिला खिलाडियों के बारे में
पढ़े या इनकी कहानी को जानने का प्रयास करें तो पता चलता कि इस शीर्ष मुकाम तक आना
कोई सहज-सरल रास्ते से संभव नहीं हुआ या इतने मेडल्स उन्हें तश्तरी में रखे हुये
नहीं मिले बल्कि इन्हें पाने के लिये उन्होंने हाड़-तोड़ मेहनत के साथ उतनी ही लगन व
शारीरिक-मानसिक तैयारी की जितनी एक इमानदार खिलाडी को करना चाहिये यहाँ तक कि
कभी-कभी तो इनको भी कुछ बहुत बुरे हालातों का भी सामना करना पड़ा लेकिन इन्होने
अपने लक्ष्य को जब एक बार तय कर लिया तो फिर उसे प्राप्त किये बिना अपनी विजय
यात्रा को थमने नहीं दिया जिसका नतीजा आज हम देख रहे कि भारत देश को इन बेटियों के
नाम से जाना जा रहा... बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं जब ‘पी.टी. उषा’ ने दौड़ के
माध्यम से ‘उड़नपरी’ का टाइटल ही नहीं कई ख़िताब अर्जित किये तो ‘अश्विनी नाचप्पा’
और ‘बुला चौधरी’ ने भी एथलीट व तैराकी में अपना नाम किया फिर उसके बाद तो नाम जुड़ते
ही गये कर्णम मल्लेश्वरी, मेरीकॉम, सानिया मिर्ज़ा, साईना नेहवाल, ज्वाला गीता, बबिता
फोगट, गुट्टू, दीपा कर्माकर, पी.वी. सिंधु, साक्षी, आदीबा, अंजली
भागवत, अनीसा
सैयद, अंजुम
चोपड़ा, अनुराधा
बिस्वाल, आशा
अग्रवाल, दीपिका
कुमारी, ज्योतिर्मयी
सिकदर, कोनेरू
हम्पी, कविता
चहल,
सुनीता रानी आदि ने इस फेहरिश्त में अपने नाम दर्ज करवाकर लडकियों को ये सन्देश
दिया कि “खेलों का कोई लिंग नहीं होता तो जो मर्जी में आये खेलो” केवल खुद की
काबिलियत का अहसास व विजेता बन कीर्तिमान रचने की जिद होनी चाहिये फिर कोई भी ऊंची
से ऊंची चोटी हो या भारी-भरकम पहलवान या कितनी भी गहरी खाई हो उसे पार करना
नामुमकिन नहीं... आओ जिद करो खेलने की, नाम पैदा करने की, भारत को गौरव दिलाने की फिर
खेल कोई हो जीत तुम्हारी ही होगी, भूल जाओ कि ये खेल मर्दाना या जनाना कि खेलों का
कोई लिंग नहीं... :) :) :) !!!
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© ® सुश्री
इंदु सिंह “इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
०६ मार्च २०१७
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