जाने क्यों मुझे ऐसा
महसूस हो रहा जैसे कि मैं हंसना-मुस्कुरना भी भूलती जा रही हूँ... क्योंकि आज ही
राह में कोई परिचित मिला और देखकर मुस्काया भी पर, काफी प्रयत्न करने के बाद भी मैं अपने चेहरे पर वो भाव नहीं ला पाई...
हालाँकि वो तो आगे निकल भी गया लेकिन मुझे सोचने पर मजबूर कर गया... आखिर ये हो
क्या रहा हैं ?
मेरे अंदर सारे
अहसास मर गये या मैं ही उन्हें प्रदर्शित करना भूलती जा रही हूँ... कुछ तो हैं...
पहले आती थी हाल-ए-दिल पर हंसी अब किसी भी बात पर आती नहीं... जल्द ढूंढना पड़ेगा
इसे वरना बड़ा मसला हो जायेगा ।
विचारों की श्रृंखला
मानो आज रुकने का नाम ही नहीं ले रही और मन में न जाने किस-किस तरह के ख्याल एक के
बाद एक चले आ रहे हैं, जो कभी मन में उपजे पहले ही प्रश्न का जवाब लगते तो कभी
लगता उनका पिहले सिरे से कोई लेना-देना ही नहीं मगर, अंततः सब एक ही धागे में बुने
प्रतीत होते... उफ़...
आखिर कोई कब तलक
अपने मन को झूठी कल्पनाओं से बहला सकता हैं... ?
कब तक अहसासों की
रंगीन कल्पनाओं से भ्रमित होली खेल सकता हैं जबकि जीवन में कभी-भी वो रंग सजीव
होकर अपने होने का सच्चा वाला अहसास न दिलाये... केवल कुछ दिन या थोड़े समय तक ही
आप ऐसा कर सकते हैं... जब लंबे अंतराल तक या बोले कि आजीवन यही स्थिति रहें तो
साले रंग भी रंगहीन हो जाते किस्मत की स्याही की तरह....
कब तक आप आशाओं के
दीप जलाकर दीपावली की अनुभूति का मिथ्या अहसास ले सकते हैं... जबकि कभी भी वास्तव
में आपकी जिंदगी में रौशनी की सच्ची वाली किरण न दमके... सिर्फ तब तक जब तक
सकारात्मक सोच का तेल उन झूठमूठ के दीपकों की खोखली बतियों को अपने दम से प्रज्वलित
करेगा... जिस दिन ये चूका आप जीते जी बेजान हो जाते हैं....
ये सारे धर्मगुरु, उपदेशक, मोटिवेटर... जो भी कहते
हैं वो आपके मन को जिलाने के लिये थोड़ी-सी खुराक दे देता हैं... जिससे आप मरते
हुये मन को पॉजिटिव थिंकिंग के वेंटिलेटर पर रखकर चंद साँसे चंद दिनों के लिए
मुहैया करवा देते हैं....
पर, जब ताउम्र आपकी लंबी जिंदगी में सचमुच का कोई जीवंत
अहसास कोई सच्ची ख़ुशी नहीं होती ये सब आसमान के चाँद की तरह थोड़ी-सी अवधि में आपको
खुश होने का अवसर देती हैं... फिर मरने जैसी स्थिति होने पर आपातकालीन ICU के मरीज की तरह सांत्वना की नीरस ऑक्सीजन की जरूरत पड़ती हैं... जिसे देने
के लिये आपके आस-पास वो लोग मौजूद होते हैं... जो सच्ची मुच्ची की खुशियों के
स्विमिंग पुल में तैर रहे होते हैं और आप पर सहानुभूति जताने का मौका छोड़ना नहीं
चाहते इसलिये अपने पूल में से चुल्लु भर नहीं नहीं केवल गीले हाथों का चिपका हुआ
उपदेश रूपी जल छिड़क देते हैं... आप कृतार्थ हो जाते हैं और वो धन्य कि उन्हें किसी
के जीवन की बुझती लौ में अपना बचा हुआ या इस्तेमाल किया हुआ वस्तुओं का तेल डालने
का परमार्थ हासिल हुआ...
किसी का जीवन ऐसे ही
दूसरों के सहारे पलता हैं, उनको देखकर वो खुद को खुश कर लेते...
और अंतर्मन जो
चीत्कार करता तो उसे डांट डपटकर चुप कर देते... इतनी डांट और गलियां खाकर फिर वो भी
एक दिन इच्छा करना ही भूल जाता... बस, उस दिन से आप एक प्रस्तर मूरत की तरह अंतिम सांस अंतिम हिचकी के इंतजार
में जीना सीख लेते ।
_____________________________________________________
© ® सुश्री
इंदु सिंह “इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
११ जून २०१७
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें