सोमवार, 12 जून 2017

सुर-२०१७-१६२ :‘बालश्रम’ एक अन्य पहलू... कोई ख़ुशी से नहीं अपनाता लेकिन क्या करे वो? जब जीने का यही एकमात्र सहारा होता...!!!


केस-०१ : नन्ही ‘चीनी’ को उसके मालिकों ने काम से निकाल दिया क्योंकि बच्चों से काम करवाना कानूनन जुर्म हैं तो जब उन पर सब तरफ से दबाब पड़ा तो उन्हें उसे निकालना ही पड़ा लेकिन इस वजह से वो ‘चीनी’ जो कल तक काम कर के घर वालों की मदद कर रही थी अब बेरोजगार होकर बोझ बन गयी थी तो रोज-रोज ताने सुनने पड़ रहे थे कि सरकार ने कानून क्या बना दिया हमारी तो मुश्किलें बढ़ गयी अब किस तरह से घर का हर्ज चलेगा क्योंकि सरकार पढ़ाई और एक वक्त खाने को तो दे रही स्कूलों में लेकिन उसके बाद भी क्या फर्क पड़ता आखिर करना तो यही पड़ता तो फिर अभी से करने में क्या बुराई पढ़-लिखकर तो वैसे भी इन सब कामों से बच्चे चिढ़ने लगते तो वहां भेजकर अपनी परेशानियाँ कौन बढ़ाये ?

केस-०२ : जैसे ही बचपन बचाने वाले एक एन.जी.ओ. को पता चला कि फैक्ट्री इ गलत तरीके से बच्चों से काम लिया जा रहा हैं तो उन्होंने वहां जाकर न केवल उन बच्चों को छुड़वाया बल्कि उनके रहने और पढ़ने की भी व्यवस्था कर दी परंतु उसके माँ-बाप चिंता में पड़ गये क्योंकि बेटी की शादी के लिये लिया गया कर्ज यदि उन्होंने समय से नहीं चुकाया तो उनके रहने का ठिकाना न बचेगा इसलिए उन्होंने मजबूरीवश अपने बच्चे को भी काम पर लगा दिया था पर, अब वो सहारा भी न रहा तो वे निराशा में डूब गये कि इन हालातों में वे अब किस तरह से इस मुसीबत से निपटे ??

केस-०३ : नन्हे-नन्हे बच्चों को छोड़ कर शांता भगवान को प्यारी हो गयी तो उसके पति ने दूसरा ब्याह कर लिया और सौतेली माँ ने आते ही उन पर अत्याचार करने शुरू कर दिये उनकी पढाई छुड़वा दी तो बेबस होकर उन दोनों ने ठेके पर जाकर ईट ढ़ोने का काम शुरू कर दिया पर, कानून के नाम पर कुछ लोगों ने उनको वहां से निकलवा दिया जिसकी वजह से दोनों बच्चे भीख मांगने पर मजबूर हो गये कि पिता तो दूसरी माँ के आगे कुछ बोलते नहीं और न ही उनकी तरफ ध्यान देते ऐसे में उनके पास जीने का यही एकमात्र रास्ता बचा था और वे दोनों दुखी थे कि यदि कानून न होता तो वे बेहतर तरीके से जी सकते थे

ऐसी कई तस्वीरें भी छिपी बाल-श्रम के पीछे जिसे किसी भी तरह से जायज नहीं ठहराया जा सकता लेकिन ये भी सच कि भले कोई ख़ुशी से इसे नहीं करना चाहता लेकिन कुछ लोगों के लिये ये जीने का सहारा होता कि इससे उनकी साँसें जुडी होती ऐसे में इन पहलुओं पर भी विचार करने की आवश्यकता हैं क्योंकि कहने को भले सरकार ने बच्चों के लिये आंगनवाडी की व्यवस्था की हो या मध्यान्ह भोजन के साथ-साथ पढ़ाई भी निशुल्क कर दी हो फिर भी कुछ लोगों के लिये इतना पर्याप्त नहीं होता और वे मजबूरी या हालात की वजह से ये करते और जब उनसे ये सहारा भी छुड़ा लिया जाता तो जीना कठिन हो जाता तब कितनी भी समाजसेवी संस्था हो या सरकारी मदद लेकिन वो उसकी उस तरह से सहायता नहीं कर पाती जैसी उसकी पारिवारिक जरूरतों के हिसाब से उसको आवश्यक होती तब इन स्थितियों में इस तरह का कानून उनके गले की फांस ही नहीं फांसी भी बन जाता कि आर्थिक अभाव में उनको मौत को गले लगाना पड़ता अतः इस तरह की घटनाओं को देखते हुये ये सोचने की भी जरूरत कि इन हालातों में क्या किया जा सकता हैं ?

कोई भी सामाजिक संगठन हो वो केवल बच्चे की जिम्मेदारी ले सकता लेकिन उसके परिवार की अधिक मदद नहीं कर सकता और जब तक वो बच्चा पढ़-लिखकर काबिल बने उसकी सफ़लता का देखने उसके परिजन जीवित रह सके या उनका स्वस्थ कायम रह सके इसकी संभावना उतनी ही जितनी कि उस बच्चे के कुछ बन जाने की क्योंकि ये जरूरी नहीं कि उसका मन पढ़ाई में लगे ही और वो कोऊ मुकाम हासिल करे लेकिन यदि वो बचपन से मजदूरी करता हैं तो इतना स्वावलंबी बन जाता हैं कि जीवन उसे बोझ नहीं लगता और वो किसी भी काम को हेय दृष्टि से नहीं देखता जबकि पढाई का चश्मा लग जाने से उसका नजरिया और दृष्टिकोण दोनों ही नडल जाते तो ऐसे में भी बाल-श्रम का विकल्प उचित ही जान पड़ता कि कम से कम वो बचपन से मेहनत करना तो सीख जाता और ये भी गारंटी कि बेरोजगार नहीं रहता जबकि पढाई में ऐसी कोई निश्चिंतता नहीं तो फिर इस तरह की स्थिति भी पुनर्विचार को प्रेरित नहीं करती क्या ??

जो बच्चा बचपन से ही किसी न किसी तरह का काम करता वो धीरे-धीरे उसमें दक्ष हो जाता और किसी भी तरह के श्रम से नहीं घबराता साथ ही साथ उसे लोगों की मानसिकता का भी परिचय होने लगता तो उसकी दुनियादारी की समझ भी बढती जाती और ये व्यवहारिक ज्ञान उसे वक़्त से पहले अधिक समझदार बना देता जबकि स्कूल में इस तरह की कोई शिक्षा न मिलने से जब उसे किसी परिस्थितिवश हथोड़ा उठाना पड़ता या गाड़ी रिपेयर करना पड़ता या किसी भी तरह के काम को अपनाने मजबूर होना पड़ता तो या तो कभी वो उसके साथ सामंजस्य नहीं बिठा पाता या कभी खुद को उसके लायक नहीं समझता तो कभी उसके मन में हीन भावना घर कर जाती पर, यदि वो शुरू से ही ये सब करता तो फिर उसे किसी तरह का कोई संकोच या हिचक नहीं होती तो ये पहलू भी विचारणीय जो ये बताता कि बाल-श्रम गैर-क़ानूनी होने से बेरोजगारों की ही संख्या में इजाफा होगा तो इससे अच्छा उनके लिये श्रम की श्रेणी, कार्य सीमा, मजदूरी आदि निर्धारित कर दी जाये ताकि वो स्वाभिमान से जीते हुये अपना हक़ प्राप्त कर सके... ‘विश्व बालश्रम निषेध दिवस’ हमें ये भी दर्शाता कि किन्ही स्थान और परिस्थिति में ये किसी के लिये जानलेवा भी साबित हो रहा तो किस तरह से इसे प्राणदायक बनाया जाये कि इससे उस वर्ग का फायदा हो जिसके लिए ये बनाया गया वैसे भी किसी अमीर या भिजटी वर्ग के बच्चे तो इसके अंतर्गत आते नहीं और जो आते उनके लिये ये जीवन का विषय तो क्यों नहीं इसे पुनः परिभाषित किया जाये ताकि जिन बच्चों के लिये ‘रोटी’ ही जीवन-मरण का प्रश्न वो भी अपने प्रश्नों के उत्तर पा सके... :) :) :) !!!      
     
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

१२ जून २०१७

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