हम सब भारतीय स्वाधीनता के प्रथम संग्राम में
अपने प्राणों को उत्सर्ग करने वाली वीरांगना ‘रानी लक्ष्मीबाई’ का
नाम तो बड़े जोशो-खरोश से लेते हैं, उनकी शौर्य की गाथा भी बड़ी
उमंग से गाते हैं, उनकी
वीरता की कहानी भी उतने ही चाव से कहते-सुनते हैं... मगर, ये
भूल जाते हैं कि उनके भीतर ये देशभक्ति, ये साहस, ये
जोश भरने वाला और कोई नहीं उनके पिता ‘मोरोपंत ताम्बे’ थे...
जिन्होंने ४ वर्ष की नन्ही बेटी को माँ के ना रहने पर अकेले ही पाला और एक साथ ना
सिर्फ़ माता-पिता का प्यार दिया बल्कि हर कर्तव्य भी उतनी ही जिम्मेदारी से
निभाया... बहुत मुश्किल रहा होगा उनके लियें ये सब कुछ क्योंकि वो खुद अंतिम पेशवा
‘बाजीराव
द्वितीय’ की
सेना में एक उच्च पद पर आसीन थे अतः काम के साथ-साथ एक बच्ची के देखभाल का ज़िम्मा
उठाना कोई आसान बात तो नहीं ।
उन्होंने ही इनका नाम बड़े प्यार से ‘मणिकर्णिका’ रखा
था और लाड़ से उसे ‘मनु’ बुलाते
थे... जब उनकी पत्नी का स्वर्गवास हो गया और घर में उसकी देखरेख के लियें भी कोई
नहीं था तो 'पिता' ने
ही उसे महान और आदर्श चरित्रों की कथायें सुनाकर उसके जीवन और आत्मबल को मजबूत
करने के साथ-साथ उसे शस्त्र-शास्त्रों की शिक्षा एक साथ दी... वो उसे अपने साथ ‘पेशवा’ के
दरबार में भी ले जाते जहाँ उनके बच्चों को पढ़ाने के लियें जो शिक्षक आते थे वो ही ‘मनु’ को
भी सभी तरह का ज्ञान देते थे... पिता का प्रोत्साहन पाकर उनकी सुनाई वीरों की
कहानियों से प्रेरणा लेकर यही सबके साथ उसने घुड़सवारी, युद्ध
कौशल, तलवारबाज़ी
और धनुर्विद्या सीखी जिसने उनके भीतर अपार निडरता, साहस के अलावा अन्य वीरोचित
गुणों को संजोया... ये हरदम साथ रहने उनके पिता की ही शिक्षा-दीक्षा थी जो
उन्होंने अपनी बेटी को दी और उसे लड़की के समान सिर्फ़ घर के काम-काज में ना लगाकर
उसकी प्रतिभा को निखरने का मौका और माहौल दिया जबकि आज भी ऐसे पिता कम ही देखने
में नहीं आते जो बेटा-बेटी को एक समान समझ पूर्ण उदारता से उनका लालन-पालन
निष्पक्षता से करें और ‘मोरोपंत
तांबे’ ने
उस ज़माने में आज से लगभग 200 साल पूर्व किया ।
यदि ‘मनु’ को
उसके पिता ने इस तरह का धरातल ना दिया होता, उसकी इतनी दृढ नींव ना तैयार
की होती तो वो भी अन्य साधारण नारियों के समान ही भूला दी गई होती उनका नाम इस तरह
इतिहास में अमर ना होता... जब-जब पिता की महानता की बात हो तो उनमें ‘मोरोपंत
तांबे’ का
ज़िक्र भी जरुर होना चाहियें जिन्होंने अपनी पुत्री का जीवन ऐसा बनाया कि आज भी
संपूर्ण नारी जगत को उस संबोधन से पुकारा जाता हैं... धन्य हैं पिता का ये त्याग, ये
समर्पण जिसने बनाया साधारण को असाधारण... आज पितृ दिवस पर नमन पिता-पुत्री को
हमारा... :) !!!
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© ® सुश्री
इंदु सिंह “इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
१८ जून २०१७
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