शनिवार, 17 जून 2017

सुर-२०१७-१६७ : दुःख आते 'मायामृग' बनकर… सतर्क न हो तो छल जाते 'रावण' की तरह...!!!


अपने 'दुख' हम खुद ही चुनते ये और बात हैं कि हमें इसका अहसास बहुत बाद में होता क्योंकि ये हमारी ज़िंदगी में अपने वास्तविक स्वरूप में नहीं आते बल्कि किसी छलावे बोले तो 'मायामृग' की तरह ख़ुशी का भेष धारण कर आते तो हम इन्हें पहचान नहीं पाते और ख़ुशी-ख़ुशी अपना लेते हैं पर, समय रूपी 'राम' का तीर लगते ही ये अपने असली रूप में आकर हमें तकलीफ पहुंचाते मगर, तब तक उतनी ही देर हो जाती जितनी सीता जी को उस स्वर्ण मृग की हकीक़त जानने में लगी थी ।

हम सब भी तो सीता की तरह मोह-माया में फंस जाते और उस दुःख को पाने की जिद करते जिसके कारण कभी-कभी हमारे अपने भी हमसे दूर हो जाते अब आप कहेंगे कि जब सीताजी देवी होकर इस मनमोहक आकर्षण में आ उलझ गयी तो फिर हमारी बिसात कहाँ लेकिन ये भी याद रखे कि असलियत में भले ही वो देवी हो लेकिन जब सीता का रूप लिया तो एक मानवी की तरह ही इस धरती पर आई तो फिर उनके भीतर वही मानवसुलभ कुतूहल का समावेश कोई आश्चर्य नहीं कि उनका वो रूप सच में तो हम सबको सबक सीखाने के लिये ही धारण किया गया था फिर उनसे ये भूल क्योंकर न होती फिर भी सब कुछ जानते-बूझते भी कि सोने का हिरण नहीं होता या जिसे हम ख़ुशी समझ रहे वो धोखा भी हो सकता हम उस खुबसूरत धोखे के जाल में फंस ही जाते ।

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

१७ जून २०१७

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