शनिवार, 24 जून 2017

सुर-२०१७-१७४ : ‘फेमिनिज्म’ कलम का विषय या करनी का ???


जो खुद को लिख-लिख कर ‘फेमिना’ साबित करने में तुली उन्हें ये इल्म नहीं कि ‘फेमिनिज्म’ कलम के जोर से नहीं करनी से आयेगा तब उनकी गाथायें उन्हें स्वयं बयान नहीं करनी पड़ेगी बल्कि स्वतः ही इतिहास में लिखी जायेगी... कैसे ???

ये जानने पढ़े उन आदर्श वीरांगनाओ की कहानियाँ जो कहीं ‘अबला’ भी थी तो कहीं ‘सबला’ बनने में भी देर नहीं की...   

चार सौ साल पहले लहराया
‘महिला सशक्तिकरण’ का परचम
‘रानी दुर्गावती’ ने देकर प्राणों की आहुति
नारी का आत्मसमान बचाया...

‘फेमिनिज्म’ इस शब्द का प्रयोग आजकल कुछ ज्यादा ही खुलकर किया जा रहा और बेतरह लिख-लिख कर समस्त नारियां खुद को ‘फेमिना’ सिद्ध करने में जुटी हुई हैं यहाँ तक कि वे तो खुलकर गाली देने, मनमानी करने, शराब-सिगरेट पीने, लडकों से दोस्ती करने और अपनी मर्जी से संबंध बनाने को ही ‘फेमिनिज्म’ साबित करने में लगी उन्हें जरुर भारत की उन नारियों की कहानी जरुर पढनी चाहिये जिन्होंने ‘अबला’ शब्द के मायने अपनी अनोखी करनी से यूँ बदले कि उनकी बहादूरी को परिभाषित करने के लिये ‘मर्दानी’ शब्द गढ़ा गया क्योंकि उस समय तक ‘वीरता’ केवल पुरुषों का ही आभूषण मानी जाती थी लेकिन हर युग में चंद ऐसी वीरांगनायें हुई जिन्होंने सिर्फ़ समाज की चारदीवारी या रीति-रिवाजों की सीमाओं का ही पूर्ण निष्ठा से पालन नहीं किया बल्कि जब वक़्त पड़ा तो जिस घूंघट की आड़ में उन्होंने खुद को बुरी नजर से बचाकर रखा उसी आंचल को अपनी कमर पर कसकर फिर सामने वाले की आँखों में आँखें डालकर उसे अपने भीतर छिपी ताकत का यूँ अहसास भी कराया कि यदि वो छुई-मुई की तरह रहना जानती हैं तो अपने आत्म-सम्मान पर ऊँगली उठाने वाले का सर कलम करना भी उसे आता हैं

वो प्राकृतिक रूप से भले ही कोमल और कमजोर हैं लेकिन जब बात मर्यादा की रक्षा करने की हो तो किसी के भी आगे झुकना उसे मंजूर नहीं क्योंकि स्वाभिमान केवल आदमियों की बपौती नहीं उस पर औरतों का भी उतना ही अधिकार हैं आखिर, वे भी तो उसी पंचतत्व से बनी माटी की काया हैं जिसमें अंतर सिर्फ़ नजरिये का हैं वो भी अधिकांशतः पुरुषों द्वारा प्रचारित एक सुनियोजित षडयंत्र हैं जिसकी वजह से अधिकतर स्त्रियों ने अपने आपको उसी आईने में देखना शुरू कर दिया जो ‘नर’ के द्वारा निर्मित किया गया परंतु उनके बीच ही कुछ ऐसी भी महिलाओं ने जनम लिया जिन्होंने मर्दों की इस चाल को समझ लिया इसलिये उन्होंने अपने बाहुबल पर भरोसा किया जिसके दम पर ही अमूमन ये आदम जात उसे दोयम दर्जे पर रखती आ रही थी ऐसे में उसने अपनी भुजाओं में यदि चूड़ियाँ पहनी तो शत्रु को धूल चटाने तलवार भी उठाई फिर भले ही जीत हासिल हो या पराजय का सामना करना या चाहे अपनी जान ही गंवानी पड़ी उसने हार नहीं मानी कि उसे अपनी सक्षमता का पूर्ण अहसास कि वो क्या कर सकती या क्या नहीं यही वजह कि ऐसे हालात आने पर उन्होंने अपने से बलशाली शत्रु का सामना करने का निर्णय लेने में देर न लगाई जबकि आज की तथाकथित स्त्रीवादी  का परचम लहराने वाली आधुनिकाएं सिर्फ कलम की जोर से बदलाव लाने में लगी ये भूलकर कि ये लिखने नहीं बल्कि कर के दिखाने वाला विषय हैं

आज की स्मार्ट जनरेशन वाली लडकियों को लगता कि मर्दों को नीचा दिखाना, किचन से पीछा छुड़ाना, लिव-इन में रहना, बच्चे पैदा न करना, यदि हो तो पति से उसे पलवाना, लडकों की तरह कपड़े पहनना और जो जी में आये करना यदि कोई कुछ कहे तो उससे कुतर्क करना यही ‘स्त्रीवाद’ हैं । ऐसी लडकियाँ ये नहीं समझ सकती कि इस देश में प्राचीन काल से ही ऐसी जागरूक स्त्री शक्ति ने जनम लिया जिसने अपने स्त्रीत्व के फर्ज निभाकर भी कभी खुद को पुरुष से कमतर साबित होने नहीं दिया जिसकी वजह से उनका नाम भी उतने ही आदर और श्रद्धा के साथ लिया जाता जितना कि किसी महापुरुष का । उन्होंने अपनी ये जगह अपने कर्मो से बनाई न कि जुबान की ताकत से लड़कर अपने को सशक्त सिद्ध किया यदि विश्वास न हो तो सतयुग, त्रेतायुग और द्वापर तक के सभी ग्रंथ उठाकर देख ले ऐसी अनगिनत सबल स्त्री चरित्र मिल जायेंगे जिनके सामर्थ्य के आगे मर्द भी कम नजर आये क्योंकि इन्होने अपनी कार्य कुशलता, बुद्धिमता, संयम, धैर्य, पवित्रता, ममत्व जैसे गुण जिन्हें आज की स्त्रियाँ कमजोरी समझती को अपना संबल बनाया और अपने विशेष गुणों से अपना अलग नाम और इतिहास में विशिष्ट स्थान बनाया । चाहे वो ‘सावित्री’ हो या ‘गार्गी’ या ‘कैकयी’ या ‘सीता’ या ‘द्रोपदी’ या ‘कुंती’ या ‘अंबा’ या ‘सत्यवती’ या ‘रानी लक्ष्मीबाई’ या ‘रजिया सुल्ताना’ या ‘रानी दुर्गावती’ इनके भीतर अपने पृथक अस्तित्व की वो अग्नि धधकती थी कि ये उस काल की परिपाटी के अनुसार अपने स्त्री धर्म का निर्वहन करते हुये भी की लीक से हटकर चलने में कामयाब हुई न कि आज की पढ़ी-लिखी नारियों की तरह अपने कर्तव्यों से हाथ छुड़ाकर खुद को ‘फेमिना’ बताना चाहा ।                 

कल्पना कीजिये आज से लगभग चार सौ वर्ष पूर्व के समाज कि जहाँ बचपन में ही लडकियों की अपने से दोगुनी उम्र के आदमी से शादी कर दी जाती थी तब लड़कपन में ही उन्हें न केवल अपने कोमल हाथों से घर-गृहस्थी की गाड़ी खींचनी पड़ती थी बल्कि असमय ही मातृत्व की जिम्मेदारी भी उठानी पड़ती थी इसके साथ ही वैधव्य का श्राप भी झेलना पड़ता था तब भी ऐसी विषम परिस्थियों में वे घबराने की जगह बिना पढ़ी-लिखी होने पर भी सही निर्णय लेकर आगे कदम बढ़ाती थी कुछ ऐसा ही हुआ गोंडवाना की ‘रानी दुर्गावती’ के साथ भी जब शादी के चार साल बाद ही जबकि उनकी गोद में एक बालक भी था अपने पति के निधन के बाद उनको राज्य की बागडोर संभालनी पड़ी तब उन्होंने अपने नेतृत्व कौशल से यदि प्रजा का भार उठाया तो युद्ध की स्थिति बनने पर अपनी कटार का करिश्मा भी दिखाया जिससे उन्हें सम्राज्ञी कहा गया उनके शौर्य और सुंदरता की प्रसिद्धि का ये आलम था कि मुग़ल शासक ‘अकबर’ उन्हें अपने हरम की शोभा बनाना चाहते थे जिसके लिये उन्होंने सूबेदार ‘आसफ़ खां’ को उनके राज्य में इस घिनौने प्रस्ताव के साथ भेजा पर, जब रानी ने साफ़ इंकार कर दिया तो फिर उसने उनके राज्य पर हमला कर दिया लेकिन रानी अपना पक्ष दुर्बल होने पर भी डिगी नहीं और मुक़ाबला किया पर, जब लगा कि वे उससे जीत नहीं पायेंगी तो खुद को उनके हवाले करने की जगह अपनी कटार से अपने आपको समाप्त कर डाला लेकिन जीवन के लिये कोई समझौता नहीं किया कि वे जानती थी ऐसी लानत भरी जिंदगी जीने से सम्मान के साथ मौत को गले लगाना बेहतर हैं

अब आज के संदर्भ में यदि हम इस प्रसंग को रखे तो पायेंगे कि अधिकांश स्त्रियाँ जो ‘फेमिनिज्म’ का नगाड़ा बजाती फिरती वही जरा-सी भी प्रतिकूल परिस्थिति आने पर समझौता करने से पीछे नहीं हटती कि उनके लिये जीवन की सुरक्षा प्रथम तो फिर वे किस तरह खुद को महिला सशक्तिकरण के लिये एक्जाम्पल सेट करना चाहती । जब ऑफिस में बॉस के द्वारा नौकरी से निकाले जाने की धमकी देने या प्रमोशन की खुशखबरी की खातिर वे उनकी हर बात मानने को तैयार हो जाती जिसके लिये तर्क होता कि जीवन-यापन के लिये इसके सिवा कोई विकल्प नहीं था और कुछ तो अति-आधुनिक कहती कि इससे क्या फर्क पड़ता ये तो आजकल का ट्रेंड... तब लगता ‘फेमिनिज्म’ महज़ उपरी आवरण जिसके भीतर छिपा व्यक्तित्व एकदम खोखला जिसके लिये दुनिया के सामने खुद को मॉडर्न दिखाना इतना जरूरी कि उसके लिये किसी हद तक जाने में कोई गुरेज नहीं । ऐसे में लगता कि ‘फेमिनिज्म’ को पुनरपरिभाषित करने की आवश्यकता जहाँ ‘आत्मसम्मान’ पहले नंबर पर हो न कि वैयक्तिक आज़ादी जिसके नाम पर अपने फर्जों को त्यागकर सिर्फ मनमानी करना ही उद्देश्य जबकि महिला सशक्तिकरण तो इन आदर्श नारियों से जीवित जिनका ये अक्सर मजाक बनाती रहती कि इनके भीतर वो आत्मबल ही नहीं जिससे वे अपने आपको साध सके बल्कि वे तो उन व्यसनों को चखकर खुद को ‘स्वतंत्र’ घोषित करना चाहती जिसने कभी मर्दों को ही अपनी इंद्रियों की आसक्ति से मुक्ति नहीं दिलाई जो कहीं न कहीं ये दर्शाता कि उनके भीतर कहीं न कहीं उन बुराइयों के प्रति कोई आकर्षण जिसे वे यूँ ‘फेमिनिज्म’ की आड़ में पूरा करना चाहती हैं ।

अपनी आन, बान, शान के लिये अपने प्राणों का उत्सर्ग करने वाली फेमिनिज्म का वास्तविक उदहारण ‘रानी दुर्गावती’ को उनके बलिदान दिवस पर कोटि-कोटि प्रणाम... :) :) :) !!!
              
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२४ जून २०१७

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